Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 108 ] [ अन्तकृद्दशा तए णं सा पउमावई अज्जा बहुपडिपुण्णाई वीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं असेइ, झसेत्ता सट्रि भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सट्राए कीरइ नम्गभावे जाव [मुडभावे, केसलोए, बंभचेरवासे, अण्हाणगं, अच्छत्तयं अणुवाहणयं भूमिसेज्जायो, फलगसेज्जासो, परघरप्पवेसे, लद्धावलद्धाई माणावमाणाई, परेसिं होलणामो, निंदणामो, खिसणाओ, तालणाओ, गरहणामो, उच्चावया विरूवरूवा बावीसं परीसहोवसग्गा-गामकंटगा अहियासिज्जति] तमलैं पाराहेइ, चरिमुस्तासेहि सिद्धा। तब उस पद्मावती देवी ने ईशान-कोण में जाकर स्वयं अपने हाथों से अपने शरीर पर धारण किए हुए सभी आभूषण एवं अलंकार उतारे और स्वयं ही अपने केशों का पंचमुष्टिक लोच किया। फिर भगवान् नेमिनाथ के पास आकर वन्दना की। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-"भगवन् ! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दुख रूपी आग में जल रहा है / यावत् मुझे दीक्षा दें।" __इसके बाद भगवान नेमिनाथ ने पद्मावती देवी को स्वयमेव प्रव्रज्या दी, और स्वयं ही यक्षिणी आर्या को शिष्या के रूप में प्रदान की। तब यक्षिणी आर्या ने पद्मावती को धर्मशिक्षा दी, यावत् इस प्रकार संयमपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए। तब वह पद्मावती आर्या ईर्यासमिति, [भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भाण्ड-मात्र-निक्षेपणा समिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिका समिति, मनःसमिति, वचनसमिति, काय-समिति इन आठ समितियों और मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायागुप्ति से सम्पन्न, इन्द्रियों का गोपन करने वाली गुप्तेन्द्रिया--कछुए की भान्ति इन्द्रियों को वश में करने वाली ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। तदनन्तर उस पद्मावती आर्या ने यक्षिणी प्रार्या से सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, बहुत से उपवास–बेले-तेले-चोले-पचोले-मास और अर्धमास-खमरण आदि विविध तपस्या से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। ___ इस तरह पद्मावती आर्या ने पूरे बीस वर्ष तक चारित्रधर्म का पालन किया और अन्त में एक मास की संलेखना से प्रात्मा को भावित कर, साठ भक्त अनशन पूर्ण कर, जिस अर्थ-प्रयोजन के लिये नग्नभाव, [मुण्डभाव, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, अस्नानक, अछत्रक, अतुपाहनक, भूमिशय्या, फलकशय्या, परगृहप्रवेश, लाभालाभ, मानापमान, हीलना, अवहेलना, निन्दा, खिसना, ताड़ना, गर्दा, विविध प्रकार के ऊंचे-नीचे 22 परिषह तथा उपसर्ग सहन किये जाते हैं उस अर्थ का अाराधन कर अन्तिम श्वास से सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गई। 2-8 अध्ययन गौरी प्रादि ६-तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नयरी। रेक्यए पव्वए। उज्जाणे नंदणवणे / तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे वासुदेवे। तस्स गं कण्हस्स वासुदेवस्स गोरी देवी, वण्णो / अरहा समोसढे / कण्हे णिग्गए / गोरी जहा पउमावई तहा निग्गया। धम्मकहा। परिसा पडिगया। कण्हे वि / तए णं सा गोरी जहा पउमावई तहा निक्खंता जाव' सिद्धा। 1. वर्ग 5, सूत्र 5, 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org