Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [ अन्तकृद्दशा "एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा अण्णाइट्ठे समाणे रायगिहे नयरे बहिया इथिसत्तमे छ पुरिसे घाएमाणे-घाएमाणे विहरइ / ' तए णं से सेणिए राया इमोसे कहाए लठे समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी— "एवं खलु देवाणुप्पिया! अज्जुणए मालागारे जाव' घाएमाणे घाएमाणे विहरइ / तं मा गं तुम्भे केइ कटुस्स वा तणस्स वा पाणियरस वा पुप्फफलाणं वा अढाए सइरं निग्गच्छह / मा णं तस्स सरीरयस्स वाबत्ती भविस्सइ त्ति कट्ट दोच्चं पि तच्च पि घोसणयं घोसेह, घोसेत्ता खिप्पामेव ममेयं पच्च पिणह / तए णं से कोडुबियपुरिसा जाव' पच्चप्पिणंति / उस समय राजगृह नगर के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख राजमार्ग आदि सभी स्थानों में बहुत से लोग परस्पर इस प्रकार बोलने लगे "देवानुप्रियो ! अर्जुनमाली, मुद्गरपाणि यक्ष के वशीभूत होकर राजगृह नगर के बाहर एक स्त्री और छह पुरुष, इस प्रकार सात व्यक्तियों को प्रतिदिन मार रहा है।" उस समय जब श्रेणिक राजा ने यह बात सुनी तो उन्होंने अपने सेवक पुरुषों को बुलाया और उनको इस प्रकार कहा 'हे देवानुप्रियो ! राजगृह नगर के बाहर अर्जुनमाली यावत् छह पुरुषों और एक स्त्री-इस प्रकार सात व्यक्तियों का प्रतिदिन घात करता हुआ घूम रहा है / अत: तुम सारे नगर में मेरी आज्ञा को इस प्रकार प्रसारित करो कि कोई भी घास के लिये, काष्ठ, पानी अथवा फल-फूल आदि के लिये राजगृह नगर के बाहर न निकले / ऐसा न हो कि उनके शरीर का विनाश हो जाय / हे देवानुप्रियो ! इस प्रकार दो तीन बार घोषणा करके मुझे सूचित करो।' यह राजाज्ञा पाकर राजसेवकों ने राजगृह नगर में घूम घूम कर राजाज्ञा की घोषणा की और घोषणा करके राजा को सूचित कर दिया। श्रावक सुदर्शन श्रेष्ठी ७-तत्थ णं रायगिहे नयरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परिवसइ-अड्डे। तए णं से सुदंसणे समणोवासए यावि होत्था-अभिगयजीवाजीवे जाव [उवलद्धपुण्णपावे, पासव-संवर-निज्जर-किरियाहिगरणबंध-मोक्खकुसले, असहेज्जदेवा-सुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किपुरिस-गरुल-गंधव-महोरगाइएहि देवगणेहि णिग्गंथाओ पावयणाप्रो अणइक्कमणिज्जे, णिग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निश्वितिगिच्छे, लट्ठ, गहियठे, पुच्छियडे, अहिगयो, विणिच्छियठे, प्रद्धिमिजपेमाणुरागरत्ते। अयमाउसो ! निगंथे पावणे अठे, अयं परमठे, सेसे अणठे, उसियफलिहे अवंगुयदुवारे, चियत्तंते उरपरघरदारप्पवेसे, बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चश्खाण-पोसहोपवासेहिं चाउद्दस्सट्ठमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायछणेणं पीढ-फलग-सिज्जा-संथारएणं प्रोसह-भेसज्जेण य पडिलामेमाणे अहापरिग्गहिहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे] विहरइ / 1-2. देखिए ऊपर प्रस्तुत सूत्र / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org