Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचम वर्ग] [105 यह पूर्वापर का विरोध संगति चाहता है। उत्तर में निवेदन है कि जहां पर तीर्थकर आदि महापुरुषों का जन्म होता है, वे देश आर्य हैं, यह सिद्धान्त युक्तियुक्त और शास्त्रसम्मत है। रही बात साढे 25 देशों की गणना की, वह भगवान महावीर स्वामी के समय की अपेक्षा से की गई प्रतीत होती है। अतः पुण्ड्र देश को आर्य देश मानने में किसी प्रकार का विरोध दिखाई नहीं देता। "अरहा" शब्द भगवान् अरिष्टनेमि की सामान्य अर्थ से सर्वज्ञता का सूचक है तथा विशेष अर्थ से तीर्थकरत्व का द्योतक है। “रह" अर्थात् रहस्य, गुप्तता आदि रह जिनमें नहीं है वे 'अरहा' अर्थात् जगत का कोई भी रहस्य जिनसे गुप्त नहीं है वे 'अरहा' हैं। अर्ह का अर्थ है-योग्य होना और पूजित होना / घातिकर्मों का अन्त करने से उन्हें अरिहन्त भी कहते हैं / "अप्फोडेइ, अप्फोडइत्ता वग्गइ, वग्गइत्ता तिवति छिदइ, छिदित्ता सोहनायं करेइ'. अर्थात् इस पाठ से सूत्रकार ने चार बातें ध्वनित की हैं। महाराज कृष्ण भविष्य में बारहवें नीर्थकर बनने की शुभ वार्ता सुनकर अानन्दविभोर हो उठते हैं / अपनी अनेकविध चेष्टाओं द्वारा अपने आन्तरिक हर्ष को अभिव्यक्त करते हैं। उनकी ये चेष्टाएँ चार भागों में विभाजित की गई हैं- (1) भविष्य में तीर्थंकर जैसे महान् आध्यात्मिक पद को प्राप्त करूगा, यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रमुदित होकर अपनी भुजाएं फड़काते हैं / उनके अंगों में स्फुरणा प्रारम्भ हो जाती है / (2) श्रीकृष्ण उच्च स्वर से प्रसन्नता प्रकट करने वाले शब्दों का उच्चारण करते हैं। (3) पहलवानों की तरह भूमि पर तीन बार पैतरे बदलते हैं या भगवान् के समवसरण में तीन बार उछलते हैं / (4) शेर की तरह गर्जना करते हैं। ६-तए णं सा पउमावई देवी प्ररहनो अरिटुनेमिस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुटु जाव' हियया अरहं अरिद्वमि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी "सहहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, से जहेयं तुम्भे वयह / जं नवरं ---देवाणुप्पिया! कण्हं वासुदेवं प्रापुच्छामि / तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयामि / 'ग्रहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि / ' तए णं सा पउमावई देवो धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहिता जेणेव बारवई नयरी जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियानो जाणध्यवरानो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव [परिग्गहियं दसगह सिरसावत्तं मत्थए अंजलि] कटु कण्हं वास देवं एवं वयासी-- इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुहिं अज्मगुग्गाया समाणा अरहम्रो प्ररिटुनेमिस्स अंतिए मुंडा जाव: पब्वइत्तए / अहासहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करहि / तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एतं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! पउमावईए महत्थं निकतमणाभिसे उबटुवेह, उबटुवित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / तए णं ते जाव पच्चप्पिणंति / 1. तृतीय वर्ग, सूत्र 7. 2-3. पंचम वर्ग, सूत्र 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org