Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पंचम वर्ग ] [65 अध्ययन में किया जा चुका है। यावत् श्रीकृष्ण वासुदेव वहाँ राज्य कर रहे थे / श्रीकृष्ण वासुदेव की पद्मावती नाम की महारानी थी। यहां औपपातिक सूत्र के अनुसार राज्ञीवर्णन जान लेना चाहिए। उस काल उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि तीर्थकर संयम और तप से आत्मा को भावित कर विचरते हुए द्वारका नगरी में पधारे। श्रीकृष्ण वंदन-नमस्कार करने हेतु राजप्रासाद से निकल कर प्रभु के पास पहुँचे यावत् प्रभु अरिष्टनेमि को पर्युपासना करने लगे। उस समय पद्मावती देवी ने भगवान् के आने की खबर सुनी तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुई। वह भी देवकी महारानी के समान धामिक रथ पर आरूढ़ होकर भगवान् को वंदन करने गई। यावत् नेमिनाथ की पर्युपासना करने लगी। अरिहंत अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव, पद्मावती देवी और जनपरिषद को धर्म कही। धर्मकथा सुनकर जन-परिषद् वापिस लौट गई। द्वारकाविनाश का कारण 2 तए णं से कण्हे वास देवे अरहं अरिद्वमि वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी "इमीसे णं भंते ! बारवईए नयरीए नवजोयणविस्थिन्नाए जाव' देवलोगभूयाए किमूलाए विणासे भविस्सइ ?' 'कण्हाइ !' अरहा अरिटणेमी कण्हं वास देवं एवं वयासी "एवं खलु कण्हा ! इमोसे बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिन्नाए जाव देवलोगभूयाए स रग्गिदीवायणमूलाए विणासे भविस्सइ।" तब कृष्ण वासुदेव ने भगवान नेमिनाथ को वंदन-नमस्कार करके उनसे इस प्रकार पृच्छा की "भगवन ! बारह योजन लंबी और नव योजन चौड़ी यावत् साक्षात् देवलोक के समान इस द्वारका नगरी का विनाश किस कारण से होगा ?" 'हे कृष्ण !' इस प्रकार संबोधित करते हुए अरिहंत अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया-- "हे कृष्ण ! निश्चय ही बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान इस द्वारका नगरी का विनाश मदिरा (सुरा), अग्नि और द्वैपायन ऋषि के कोप के कारण होगा।" श्रीकृष्ण का उद्वेग : उसका शमन ३-कण्हस्स वासुदेवस्स अरहनो अरिटुणेमिस्स अंतिए एयं सोच्चा निसम्म अयं अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुष्पज्जित्था--'धण्णा णं ते जालि-मयालि-उवयालि-पुरिससेणवारिसेण-पज्जुण्ण-संब-अणिरुद्ध-दढणेमि-सच्चणेमि-प्पभियओ कुमारा जे गं चइत्ता हिरणं, जाव [चइत्ता सुवण्णं एवं धण्णं धणं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं चइत्ता विउलं धण-कणग-रयणमणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-संतसार-सावएज्जं विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता दाणं दाइयाणं] परिभाइत्ता, अरहो अरिट्ठणेमिस्स अंतियं मुंडा जाव [भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं] पव्वइया / अहणं अधण्णे प्रकयपुषणे रज्जे य जाव [र? य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंते उरे 1. 2. देखिये—वर्ग 1, सूत्र 5. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org