Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 58 ] [ अन्तकृद्दशा अर्थात् हिंगुल धातु, तरुण सूर्य, तोते की चोंच और दीपशिखा के समान तेजोलेश्या का वर्ण होता है। प्रस्तुत सूत्र में तरुण शब्द रक्त अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, अन्यथा तेजोलेश्या के वर्ण सम्बन्धी अर्थ की संगति नहीं हो सकती। जपासुमन, रक्तबन्धु-जीवक, लाक्षारस, सरस पारिजातक और तरुण दिवाकर समान जिसकी प्रभा हो, कान्ति हो, चमक हो, वर्ण हो, उसको 'जपासुमन-रक्तबन्धुजीवक-लाक्षारस-सरस पारिजातक-तरुण दिवाकर-समप्रभ' कहते हैं / गय-तालुय-समाणं-अर्थात्-गज हाथी को कहते हैं। तालु अर्थात् ऊपर के दांतों और कौवे के बीच का गड्ढा / गज के तालु को गजतालु कहते हैं। गज के तालु के समान जिसका तालु हो वह 'गज-तालु-समान' कहलाता है। वैसे सभी प्राणियों का तालु रक्त और कोमल होता है पर हाथी का तालु विशेष रूप से रक्त और कोमल माना गया है / राजकुमार गजसुकुमार के युवक हो जाने पर उसके विवाह आदि के सम्बन्ध में क्या हुआ ? इस जिज्ञासा के सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैंसोमिल ब्राह्मण १६-तत्थ णं बारवईए नयरीए सोमिले नाम माहणे परिवसइ---अड्ढे। रिउन्वेय जाव [जजुब्वेद-सामवेद-अहव्वणवेद-इतिहासपंचमाणं, निघंटुछट्ठाणं चउण्हं वेदाणं संगोबंगाणं-सरहस्साणं सारए, वारए, धारए, पारए, सडंगवी, सद्वितंतविसारए, संखाणे, सिक्खाकप्पे, वागरणे, छंदे, निरुत्ते, जोइसामयणे, अन्न सु य बहूसु बम्हण्णएसु परिवायएसु नयेसु] सुपरिणिट्ठिए यावि होत्था / तस्स सोमिल-माहणस्स सोमसिरी नामं माहणी होत्था / सूमाल / तस्स णं सोमिलस्स धूया सोमसिरोए माहणीए अत्तया सोमा नाम दारिया होत्था। सोमाला जाव' सुरूवा। स्वेण जाव (जोवणेणं) लावण्णेणं उक्किट्टा उक्किटुसरीरा यावि होत्था। तए णं सा सोमा दारिया अण्णया कयाइ व्हाया जाव विभूसिया, बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता सयानो गिहाम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायमगंसि कणतिदूसएणं कोलमाणी चिट्टइ। उस द्वारका नगरी में सोमिल नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो समृद्ध था और ऋग्वेद, [यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इन चारों वेदों, पांचवें इतिहास, तथा छठे निघण्टु, इन सबके अंगोपांग सहित रहस्य का ज्ञाता था। वह इनका 'सारक' (स्मारक) अर्थात् इनको पढ़ानेवाला था, अतः इनका प्रवर्तक था अथवा जो कोई वेदादि को भूल जाता था उसको पुनः याद कराता था, अतः वह स्मारक था / वह वारक था अर्थात् जो कोई दूसरे लोग वेदादि का अशुद्ध उच्चारण करते थे, उनको रोकता था, इसलिये वह 'वारक' था / वह 'धारक' था अर्थात् पढ़ हुए वेदादि को नहीं भूलनेवाला था अपितु उनको अच्छी तरह धारण करनेवाला था। वह वेदादि का 'पारक'-पारंगत था। छह अंगों का ज्ञाता था। षष्ठितन्त्र (कापिलीय शास्त्र) में विशारद (पंडित) था। वह गणितशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, प्राचारशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, इन सब शास्त्रों में तथा दूसरे बहुत से ब्राह्मण और पारिव्राजक सम्बन्धी शास्त्रों 1. देखिए, ततीय वर्ग का प्रथमसूत्र / 2. देखिए, तुतीय वर्ग का नवमसूत्र। 3. देखिए, वर्ग 3, अ.१, सूत्र 2 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org