Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 64] [अन्तकृद्दशा चाहता हूँ। भगवन् ! यह ऐसा ही है (जैसा आप कहते हैं), यह उसी प्रकार का है, अर्थात् सत्य है / भगवन् ! मैंने इसकी इच्छा की है, पुनः पुनः इच्छा को है, भगवन् ! यह इच्छित और पुनः पुनः इच्छित है। यह वैसा ही है जैसा पाप फरमाते हैं। विशेष बात यह है कि, हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता की आज्ञा ले लू, तत्पश्चात् मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करूंगा।" भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय ! जिससे तुझे सुख उपजे वह कर, परंतु उसमें विलम्ब न करना। तत्पश्चात् गजसुकुमाल (र) कुमार ने अरिहंत अरिष्टनेमि को वन्दन किया, अर्थात् उनकी स्तुति की, नमस्कार किया, स्तुति-नमस्कार करके जहां हस्तिरत्न था, वहां गये। जाकर हाथी के कन्धे पर बैठकर महान् सुभटों और विपुल समूह वाले परिवार के साथ द्वारका नगरी के बीचोंबीच होकर जहां अपना घर था, वहां आये, पाकर हस्ति-स्कन्ध से उतरकर, माता-पिता के पैरों में प्रणाम करके इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! मैंने भगवान् अरिष्टनेमि के समीप धर्म श्रवण किया है और मैंने उसकी प्राप्ति की इच्छा की है, बार-बार इच्छा की है / वह मुझे रुचा है।' तत्पश्चात् गजसुकुमाल के माता-पिता इस प्रकार बोले-'पुत्र ! तुम धन्य हो, पुत्र ! तुम पुण्यवान् हो, हे पुत्र ! तुम कृतार्थ हो, कि तुमने भगवान् अरिष्टनेमि के निकट धर्म श्रवण किया है और वह धर्म भी तुम्हें इष्ट पुनः पुनः इष्ट और रुचिकर हुअा है।' तत्पश्चात् गजसुकुमाल माता-पिता को दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहने लगामाता-पिता ! मैंने अरिहंत भगवान् अरिष्टनेमि के पास धर्म श्रवण किया है / उस धर्म की मैंने इच्छा की है, बार-बार इच्छा की है, वह मुझे रुचिकर हुआ है। अतएव हे माता-पिता ! मैं आपकी अनुमति पाकर भगवान् अरिष्टनेमि के समीप मुण्डित होकर, गृहवास त्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ। तत्पश्चात् देवकी देवी उस अनिष्ट (अनिच्छित) अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम { मन को न रुचने वाली) पहले कभी न सुनी हुई, कठोर वाणी को सुनकर और हृदय में धारण करके मनोगत महान् पुत्र-वियोग के दुःख से पीड़ित हुई / उसके रोमकूपों में पसीना आने से अंगों से पसीना झरने लगा। शोक की अधिकता से उसके अंग काँपने लगे / वह निस्तेज हो गई। दीन और विमनस्क हो गई। हथेली से मली हुई कमल की माला के समान हो गई / “मैं प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ," यह शब्द सुनने के क्षण में ही वह दुखी और दुर्बल हो गई। वह लावण्यरहित हो गई, कान्तिहीन हो गई, श्रीविहीन हो गई, शरीर दुर्बल होने से उसके पहने हुए अलंकार अत्यंत ढीले हो गये, हाथों में पहने हुए, उत्तम वलय खिसक कर भूमि पर जा पड़े और चूर-चूर हो गये। उसका उत्तरीय वस्त्र खिसक गया / सुकुमार केशपाश बिखर गया / मूर्छा के वश होने से चित्त नष्ट होने के कारण शरीर भारी हो गया। परशु से काटी हुई चंपकलता के समान तथा महोत्सव सम्पन्न हो जाने के पश्चात् इन्द्रध्वज के समान (शोभाहीन) प्रतीत होने लगी। उसके शरीर के जोड़ ढीले पड़ गये। ऐसी वह देवकी देवी सर्व अंगों से धस्-धड़ाम से पृथ्वीतल (फर्श) पर गिर पड़ी। ___ तत्पश्चात् वह देवकी देवी, संभ्रम के साथ शीघ्रता से, सुवर्णकलश के मुख से निकली हुई शीतल जल की निर्मल धारा से सिंचन की गई / अतएव उसका शरीर शीतल हो गया। उत्क्षेपक (एक प्रकार के बांस के पंखे) से, तालवृन्त (ताड़ के पत्ते के पंखे) से तथा वीजनक (जिसकी डंडी अंदर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org