Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय वर्ग ] [73 की माला के समान आँसू गिराती हुई इस प्रकार बोली-'ये केश हमारे लिये बहुत-सी तिथियों, पर्वो, उत्सवों, नागपूजादि रूप यज्ञों और महोत्सवों में गजसुकुमाल कुमार के अन्तिम दर्शन-रूप या पुनः पुनः दर्शनरूप होंगे / ऐसा विचार कर उसने उन्हें अपने तकिये के नीचे रख लिया। इसके बाद गजसुकुमाल कुमार के माता-पिता ने उत्तर दिशा की ओर दूसरा सिंहासन रखवाया और गजसुकुमाल कुमार को सोने चांदी के कलशों से स्नान करवाया। फिर सुगन्धित काषायित (गन्ध-प्रधान लाल) वस्त्र से उसके अंग पोंछे। गोशीर्ष चन्दन से गात्रों का विलेपन किया। तत्पश्चात् उसे पटशाटक (रेशमी वस्त्र) पहनाया। वह नासिका के निश्वास की वायु से भी उड़ जाय ऐसा हल्का था, नेत्रों को अच्छा लगने वाला, सुन्दर वर्ण और कोमल स्पर्श से युक्त था / वह वस्त्र घोड़े के मुख की लार से भी अधिक मुलायम था, श्वेत था, उसके किनारों में सोने के तार थे। महामूल्यवान और हंस के चिह्न से युक्त था। फिर हार (अठारह लड़ी वाला अर्द्ध हार पहनाया। अधिक क्या कहा जाय, ग्रथिम (गुथी हुई) वेष्टित (वींटी हुई) पूरिम (पूर कर बनाई हुई) और संधातिम (परस्पर संघात की हुई) मालाओं से कल्प वृक्ष के समान गजसुकुमार को अलंकृत एवं विभूषित किया गया। इसके बाद उसके पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! सैकड़ों स्तम्भों से युक्त लीला करती पुतलियों से युक्त इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णित विमान के समान यावत् मणिरत्नों की घण्टिकानों के समूहों से युक्त, हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिबिका (पालकी) तैयार करके मुझे निवेदन करो।" इसके बाद गजसुकुमाल कुमार केशालंकार, वस्त्रालंकार, मालालंकार और आभरणालंकार, इन चार प्रकार के अलकारों से अलंकृत और विभूषित होकर सिंहासन से उठा / वह प्रदक्षिणा करके शिबिका पर चढा और पूर्व की ओर मुंह करके श्रेष्ठ सिंहासन पर बठा / तत्पश्चात् गजसुकुमाल कुमार की माता, स्नानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत करके हंस के चिह्न का पटशाटक लेकर प्रदक्षिणा करके शिबिका पर चढ़ी और गजसुकुमाल के दाहिनी ओर उत्तम भद्रासन पर बैठी। फिर गजसुकुमाल की धायमाता स्नानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत करके रजोहरण और पात्र लेकर प्रदक्षिणा करके शिविका पर चढ़ी और गजसुकुमाल के बाँई ओर उत्तम भद्रासन पर बैठी। इसके बाद ‘गजसुकुमाल के पीछे मनोहर आकार और सुन्दर बेष वाली, सुन्दर गतिवाली, सुन्दर शरीरवाली यावत् रूप और यौवन के विलास से युक्त एक युवती हिम, रजत, कुमुद, मोगरे के फूल और चन्द्रमा के समान श्वेत कोरण्टक पुष्प की माला से युक्त छत्र हाथ में लेकर, लीलापूर्वक धारण करती हुई खड़ी हुई। फिर गजसुकुमाल के दाहिनी तथा बाँयी प्रोर, शृगार के प्रागार के समान मनोहर आकार वाली और सुन्दर वेषवाली उत्तम दो युवतियाँ दोनों ओर चामर ढुलाती हुई खड़ी हुईं। वे चामर मणि, कनक, रत्न, और महामूल्यवान् विमल तपनीय (रक्त सुवर्ण) से बने हुए, विचित्र दण्ड वाले थे और शंख, अंकरत्न, मोगरा के फूल, चन्द्र, जलबिन्दु और मथे हुए अमृत के फेन के समान श्वेत थे। इसके बाद गजसुकुमाल के उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान T) में शुगार सहित उत्तम वेषवाली एक उत्तम स्त्री श्वेत रजतमय पवित्र पानी से भरा हमा. उन्मत्त हाथी के मुख के आकार वाला कलश लेकर खड़ी हुई / गजसुकुमाल के दक्षिण-पूर्व (प्राग्नेय कोण) में, शृगार के घर के समान उत्तम वेषवाली एक उत्तम स्त्री विचित्र सोने के दण्डवाला पंखा लेकर खड़ी हुई।। तब गजसुकुमाल के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा—'हे देवानु कोण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org