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(११) जहांतक हो सकेगा मैं यत्न और अप्रमादसे अपने आत्माका पालन करूंगा। वर्पमें ( ) दिन पैौपधव्रत करुंगा कि जिसमें २४ घंटे निर्दीप जीवन व्यतीत करना पडता है और अपनी उन्नति संबंधी विचार करने का अवकाश मिलता है।
(१२) जहां तक बनेगा में पात्र और सुपात्रको दान दूंगा और अपने भोगान्तरायी कमाका नाश करूंगा। दीन दुःखीयोको दान, उपदेशकांको दान, त्यागी महात्माको दान इस प्रकार सुपात्रको दान करनेका मौका ढूंढता रहूंगा और मौका मिलतेही वडे आनंदसे दान दूंगा। :- इन बारह नियमेकी सूचना देने के बाद अब हम आनन्दजीकी कथासेनिकलते हुए दूसरे मुद्दे पर विचार करेंगे। आनन्दजी जैसे 'पति' आजके समयमें थोडेही होते हैं। अपने आधे अंगको अर्थात अपनी धर्मपत्नीको उन्होंने श्राविका धर्म समझाकर अंगीकार करवायाः मतलब यह है कि उन्होंने अपनी स्त्रीको इन्द्रिय सुखों के लिये दासी न समझकर मित्र या सखी गिनी और वास्ते उस्के हितके चिंता करी। मनुष्य का धर्म है कि वह अपनी स्त्रीको धर्मज्ञान दें। और वास्ते उसके आत्महितके हो सके उतनी मुगमता कर दें। ___आश्चर्यकी बात है कि ऐसे द्रढ श्रावक जो जीव और अजीवादि नवतत्त्व इत्यादिके ज्ञाता थे और ग्यारह प्रतिमा और संथारा तककी हिम्मत करनेवाले थे,उन्हें भी श्रीसवज्ञ भगवानने दीक्षा लेनेको असमर्थ ठहराये थे । अरेरे ! हमारे मुनिवर अपने महावीर पिताके इन वचनेका ममें कब समझेगे? दीक्षा कुछ छोटीसी बात नहीं है। बिना आध्यात्मिक जीवन के प्रवज्या अर्थात् दीक्षा कभी दृढतापूर्वक नहीं पल सकती। .