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-The TFIC Team.
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गुलेदगढनिवासी आत्मार्थी बंधुः । श्रीयुत नेमीदासजी श्रीमलजीकी ओरसे, जैनसमाचार के ग्राहकांको
बक्षीस!
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जैन शास्त्रमाला खंड १ में पृट ७८ छपे गये थे, इस साबसें यह दूसरा खंड पृष्ट ७९ से शुरु किया जाता है. पृष्टः १. से ७८ तकके पहले खंडमें श्री विपाक सूत्र" अथइति छापा था, पृष्ट ७९ से १४० तक के दूसरे खंडमें श्री.
उपासक- दशांग " सूत्र अथ इति छपा गया है, और तीसरे खंडमें, पृष्ट १४१ से श्री “निरावलीका सूत्र " शुरू किया जायगा.
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साधु-साध्वी और जनशालाके लिये 9 अमूल्य दिया जायगा. जिसे चाहिये निचे
लिखे पतेसे मंगवा ले. पताः-श्रीयुत नेमीदासजी श्रीमलजी.
गुलेदगढ (बीजापुर).
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श्री
उपासक दशांग सूत्र. ( जैन शास्त्रका ७ वां अंग. ) जिसमें,
धर्मकी उपासना करनेवाले दस श्रावकांका इतिहास दिया गया है.
१. आनन्द
२. कामदेव
३. चुलणीमिया
४. मूरादेव .
५. चूलशतक.
".
जहां
3305
६. कुंड कोलिया ..
७. सद्दालपुत्र.
८. महाशतक.
९. नंदणीपिया.
१०. लेतिणी पिया.
( ये १० चरित्र श्रावकका कर्त्तव्य बतलाते हैं और
eer व श्रद्वाकी शिक्षा देते हैं. )
धर्म है वह सब कुछ है.
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प्रवेशिका.
उस काल, उस समय में ( अवसर्पिणीके चौथे आरेमें ) चंपा नगरी थी. ( इसका वर्णन उब्वाई सूत्र से जान पडेगा. ) इस नगरी के वाहिर ईशान कोनमें नन्दनवन समान उद्यान था. इसमें पूर्णभद्र यक्षका देहरा था. इस उद्यानमें श्री महावीर प्रभुके शिष्य आर्य सुधर्म स्वामी पधारे। उन्हें वन्दना कर उनके शिष्य जम्बूस्वामीने पूछा: हे पूज्य ! श्रमण भगवान : श्री महावीर स्वामी' जो मोक्षको प्राप्त हो गये हैं उन्होंने सप्तम अंग जो उपासक दशांग मूत्र उसके अर्थ किस तरह प्ररुपित किये हैं ? कृपा कर फरमायगे ?
आर्य सुधर्म स्वामीने इस प्रार्थनाको स्वीकार की और श्री उपासक दशांग मूत्र दश अंग इस प्रकार फरमाने लगे.
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अध्ययन : ला-आनन्द गाथापति.
वाणिज्यग्राम नगर में जितशत्रु नामका राजा राज्य करता था। वहां पर एक बंडा भारी धनवान' आनन्द नामका गाथापति ( गृहस्थ ) रहता था । वह इतना धनवान था कि चार कोटि सुवर्ण जमीनमें गाड रखता था। चार कोटि सुवर्णसे व्यापार करता था और चार कोटि सुवर्णसे घरको सजाया था । उसके यहां १०,००० गायका १ गोकुल ऐसे ४ गोकुल थे.
इतना धनवान होने पर भी और ऐसा जीवदयाधारी होने पर भी आनन्द गाथापनि ( ऐसा चतुर था कि ) राजपुरुप, सार्थवाह, कुटुम्बी, धरके मनुष्य आदि सब क्या गुप्त विषय में और क्या व्यवहारकी वार्ता में इसकी सलाह लेते थे । यह कुटुम्बमें स्थम्भके समान था ।
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आनन्दकी पत्नी शिवानंदा भी बडी रूप वाली ३२ लक्षण और ६४ कलामें प्रवीण थी । त्री पुरुष एक दोनोंको वडे
* सद्गृहस्थ कैसा लायक होता है यह इससे जान पडेगा । यह पैसावाला हो इतना ही नहीं वह गोप्रतिपालक भी होना चाहिए। गंभीर होना चाहिए। समझदार होना चाहिए। सब कोई उसे पूछे, गरीबों को निभावे, गुप्त मदद दे | अपना पेट भर लेनेवाला सख्स ‘सद्गृहस्थ' नहीं हो सकता । कुटुम्बियांका पोपण करे, नगरवालाको सलाह दे । इतना ही क्यों गूंगे जानवरों को भी पाले - पोपे । ( पहिले समय में हरेक साहुकार गोकुल रखते थे-यानी हजारो गायेfको पालते थे । आज रसकसका मुख्य साधन जो गाय भैंसे हैं, उनकी 'हिंसा बहुत होनेसे रसकस कम हो गये हैं। मनुष्य दुबले हो गये हैं और जमीन नीरस हो गई है । )
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प्रेमसे चाहते थे । वाणिज्य नगरके वाहिर ईशान कोनमें दूतीपलाश नामक उद्यान था और कोलाग नामका *सन्निवेश था। वहांपर आनन्दके इष्ट मित्र, परिजन, स्वजन, व्यापारी आदि बहुतसे मनुष्य रहतेथे । ये भी सव दौलतमन्द थे ।
एक समय श्रमण भगवान श्री महावीर दुतिपलाश उद्यानमें पधारे । उव्वाई सूत्रों जैसे कुरणीक राजा वन्दना करनेको चला था वैसे ही इस वक्त जितशत्रु राजा वन्दना करनेको चला ।आनन्द गाथापतिने सुना कि भगवानको वन्दना करनेका महा फल है इस लिये मैं भी जाउं । ऐसा संकल्प होते ही स्नान कर. कीमती परन्तु वजनमें हलके ऐसे वस्त्राभूषण पहन घरसे बाहर निकला । सकोरंट नामके वृक्षके फूलांकी माला पहन छत्र माथे धार कर बहुतसे मनुष्योंके समुदायके साथ वाणिज्य ग्रामके बीचेांचीच हो दुतिपलाश उद्यानमें जहां भगवान महावीर विराजेथे वहां आया । दहनी ओरसे तीन प्रदक्षिणा की । बन्दना कर बैठ गया। श्री महावीर स्वामीने आनन्द गाथापति और परिषद्को * धर्मका कही । उसे सून परिषद् व राजा. पीछे लौटे। आनन्द गाथापतिने उसे सुन विचारा, हियेमें रक्खा। हर्ष-संतोष पाया । और भगवान महावीरसे सविनय कहने लगा : हे भगवन् ! यह सिद्धान्त वचन सच्चा और सन्देह रहित है इस लिये मुझे रुचा है। हे देव. * ' सनिवेश':= शहरके पासका मैदान जहां मनुष्य खेल कूदके लिये जाते है.
* धर्म दो तरहका है:-आगार -धर्म १ व अणगार धर्म २. अर्थात् १ ला गृहस्थका-श्रावकका व २ रा साधुका-त्यागीका.
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ताके वल्लभ ! जिन राईसर (राजा युवराज), तलवर (तलाटी), माईविक (लग्न करनेवाले), कोडविक (कुटुम्बी), सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदिने गृहस्थपन छोडकर आपके पास साधुपन स्वीकार किया हो उन्हें धन्य है। परन्तु मेरी ऐसी सामर्थ्य नहीं है कि ऐसा कर सङ्घ । इस लिये गृहस्थीमें रहकर आपके पास पांच अणुव्रत और सात शिक्षाप्रत यों श्रावक धर्मरुप बारह व्रतको ग्रहण करुंगा। भगवानने कहाः हे देवताके वल्लभ! जैसे सुख उत्पन्न हो वैसे करो. परन्तु धर्मके काममें विलम्ब न करो। फिर आनन्द गाथापतिने नीचे लिखे मुआफिक श्री महावीरके पास बारह व्रत अंगीकार किये।
पहिला व्रत. यावज्जीवन दो करण और तीन योगसे स्थल' और उस जीवकी हिंसा करनेका (पत्याख्यान) पञ्चखाण (अर्थात् बंदी.)
दूसरा व्रत. __ यावज्जीवन दो करण और तीन योगसे स्थूल झूठ बोलनेके पच्चखाण.
४ ५ अणुयत, ३ गुणग्रस, ४ शिक्षाबत = १२ प्रत.
१. यरोयो. २ चलते फिरत-हलते दुलते जीव. ३. योग तीन है. मनोयोग, वघयोग व काययोग. तीन योगसे किसी पापको त्यागनाफा अर्थ यह है कि मन, वचन, कायसे न करना। करना, कराना, और करनेघालेको अच्छा जानना इसे निकरण ' कहते हैं । निकरण ' से पापफी बंदी की इसका अर्थ है कि ऐसी प्रतिज्ञा ली गई कि न पाप किया न पाप करनेवालेको भच्छा जाना न पाप कराया. मन, वचन, कायसे पाप न करनेका नियमको ‘तिन कोटि ' से नियम किया कहा जाता है। इन तीनों योगेसेि पाप न करानेको दूसरी तीन कोटि' नियम कहते हैं(यो छह कोटि हुई) तीनों योगेसे पाप करते हुएको भएछा न जागना तीसरी तीन कोटि फहाती है (यो नय कोटि हुई)
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तीसरा व्रत. . · यावज्जीवन दो करण और तीन योगसे अदत्त दान लेने के (विनादीहुई चीज लेने के, चोरी करनेके) पच्चखाण ।
चौथा व्रत. अपनी स्वीसे संतुष्ट रहनेकी पर्यादा करे सो । एक शिवनन्दा भार्याको छोडकर दूसरी स्त्रियांसे मैथुन करने के पर्चखाण ।
पांचवा व्रत. परिग्रहमा परिमाण करे (१) घडा हुआ और वे घडा हुआ उसका परिमाणः-चार सुवर्ण कोटि जमीनमें गडा हुआ, चार सुवर्ण कोटि व्याजपर दिया हुआ और चार हिरण कोटिकी घरकी सजावट । बासी सब सोने चांदीकी विधियोंके पञ्चखाण. (२) चौपाये जानवरोंका परिमाणः-दस हजार गायका १ ब्रज (गोकुल ) ऐसे ४ बजेको छोडकर बाकीके पशुओका पञ्चखाण. (३) खेतवथ्थु यानी खुली और ढंकी जमीनका परिमाण-पांचसो हलसे ज्यादा जमीनका पञ्चखाण (१०० निवर्तनका एक हल या ढाई कोस और पांचसो हलके १२५० कोस हुए)* (४) गाडी और बैलका परिमाणलकडी, घाम, और अन्नादि लाने के लिये ५०० गाडे बहुत
___ *संवत् १८४५ की लिखी हुई प्रतिके टव्य में लिखा है-णियतगे-निवर्तन. मगध देश प्रसिद्ध भूमिकाका परिमाण विशेष १०० णियत्तगका १ हल ऐसे पांचसो हलका एक क्षेत्रवथ्थु (दूसरा अर्थ ) दस हाथका एक बांस, बीस बांसका एक नियतन, १०० नियतनका एक हल ऐसे पांचसो हलकी जमीनका परिमाण (इस कोप्टकके मुआफिक एक हलके २०००० हाथ हुए और ८००० हाथका एक कोस इस हिसाबसे एक हलके २॥ कोस हुए और ५०० हलके १२५० कोस ).
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बाकीका पच्चखाण. (५) समुद्र में जहाज चले उसका परिमाण - देशान्तर जानेके लिये बडे जहाज के साथ ४ छोटी नावों के सिवाय के पच्चखाण | एक करण और तीन योगसे यानी मन, वचन, कायसे पांचवें व्रत के पञ्चखाण ।
छडा व्रत.
इस व्रतमें चारों दिशाओं के कोसाका परिमाण किया जाना है। पांचवे व्रत में खेतवथ्थुका परिमाण किया है, उसीसे समझ पडता है, सूत्र पाटमें इसका कुछ खुलासा नहीं किया । सातवां व्रत.
रोज भोग आनेवाली चीजों का परिमाण - मर्यादा :- (१) उलणियाविहं - गंध साडी यानी लाल साडी एक वाकीके शरीर के पढेका पञ्चखाण (२) दंतणविहं - जेठी मकी लकडीके दातुनको छोड कर वाकीके वृक्षोंकी लकडीके पच्चखाण. (३) फळविहं - गुठली रहित खीरकी तरह मीठे ऐसे खीर आंवलोंको छोडकर और और फलोंके पच्चखाण. (४) अभंगणविहं - शतपाक और सहस्रपाक तेलको छोडकर और और तेलके शरीर में मलने के पच्चखाण. ( ५ ) उवविहं गेहके आटे से मिला हुआ सुगंधित उबटनको छोड कर बाकी उबटनके पचखाण. (६) मझणविहं - आठ वढे वडे पानी को छोडकर निजके काममें आनेवाले पानी के पञ्चखाण. ( ७ ) वत्थविहं रुई के दो कपडे के सिवाय बाकी के वस्त्र के पच्चखाण. (८) विलेवणविहं- अगर, केशर, चंदनादिको छोड़ कर लेपके पच्चखाण. ( ९ ) पुष्कविहं- सफेद कमल, जाई, मालती आदिके फूलों की मालाके
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सिवाय सब फूलोंके पच्चखाण. ( १० आभरणविहं-कानके एक वडे कुंडल और हाथकी वीटीके सिवाय जेवरके पचखाणः (११) धुपविहं-अगर, तुरुक, धूप · वृक्षकी छाल और शिलाजीत वगैराको छोड कर धूपके पचखाण. (१२) पेझविहं-मूंग और चावलकी रावको छोड कर पेय वस्तु के पचखाण. (१३) भरवणविहं-खांड भरे हुए घेवर और खांजोंको छोड कर पकवानके पञ्चखाण. (१४) उदंणविह -कलमशालि (एक प्रकारका धान्य) को छोड कर लासा धानके पचखाण. (१५) भूपविहं-मूंग और उडदकी दालको छोड कर दाल के पच्चखाण. (१६) कृतविहं-शरदऋतुमें इकठे किये हुए गायके घीको छोड कर घीके पञ्चखाण.(१७) साकविहं-चवटेकी फली, अमृतफली, पैांच्या, रायटोडी, मंडकीको छोड लीलोत्तरीके पच्चखाण. (१८) माहुरविहं-मधुर सालण और मधुर पालकको छोड कर और माहुरके पच्चखाण. (१९) जमणविहं-घोलण आदि, मूंग आदि दालके वों व पुढेको छोड कर बाकी के पच्चखाण. (२०) पाणीविहं-आकांशसे पडे हुए पानीको छोड कर बाकीके पच्च'खाणः (२१) मुखवासविहं-इलायची, लौंग, कपूर, कंकोल और
जायफल इन पांच सुगन्ध सहित पान (काथा चूना मिला हुआ) को छोड़ कर वाकीके पच्चखाण.*
. आठवां व्रतः . . .. ... धर्म, अर्थ और काम इन तीनों में से एक भी काम न, हो तो भी जो दंड मिले उसे अनर्थ दंड कहते हैं। वह चार '
_*.उध्वीस बोलकी धारणा कहीं जाती है। उनसे २१ . सूत्र में मिलती हैं। पांच नहीं मिलती । सो पांच प्रतिकमणकी पुस्तके . .. देख लेना चाहिए. (२२) वाहनविहः (२३) वाहनिविह..(२४) " .. सयणविहं. (२५) सचितविह. (२६) द्न्य विह. .
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तरहका है. (२) आर्तध्यान और रौद्रध्यान धरनेसे, याने मनमें उद्वेग करनेसे और दूसरेका पूरा चीतनेसे.(२) विकथासे और तेल, घी आदिके वर्तनांको खुले रखनेसे (३) हिंसा हो सके ऐसे शखांके इकट्ठा करनेसे या देनेसे. (४)पापोपदेश फरनेसे । इन चारों प्रकारके अनर्थदंड के पच्चखाण.
नवा व्रत-सामायिक व्रत । दसवां व्रत--दिशावगासिक व्रत । ग्यारवां पोषध व्रत । वारवां अतिथि संविभाग व्रत.
(इन चारों के अंगीकार करनेकी विधि मूत्रमें नहीं लिखी परन्तु नीचे अतिचारकी आलोचन विधिमें उनके अतिचार लिखे हैं उसपरसे समझमें आ जाता है.)
. अब भगवान महावीर आनंद श्रावकसे उन अतिचारोंका वर्णन करने लगे, जिन्हे श्रावकको जान लेना चाहिए.
सम्यक्त्वके अतिचार:-१. जिनवाणीमें सन्देह करना. (२) अन्यमतकी इच्छा करना. (३) धर्म कर्मके फलमें सन्देह करना. (४) पाखंडी मतकी प्रशंसा करना. (५) पाखंडी मतका परिचय होना.
अब बारह व्रतके अतिचारोंका वर्णन करते हैं।
(१) प्रथम व्रतके अतिचार-१) किसी त्रस जीवको बांध दिया हो. (२) लकडीसे मारा हो. (३) अंगोपांग छेदे हो. (४) शक्तिसे ज्यादा बोझ रख दिया हो. (५) खाने पीनमें बाधा दी हो. .
(२) दूसरे व्रतके अंतिचार:--(१) किसीको भय हो ऐसा वचन कहना.(२) किसीकी छिपी हुई पातको प्रकट करना. (३) अपनी स्वीके मर्म औरोंको प्रकट करना. (४) किसीको झूठा उपदेश करना. (५) खोटे खत पत्र तैयार करना।
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(३) तीसरे व्रतके अतिचार:- (१) चोरीकी चीजको लेना. (२) चोरको सहायता देना. (३) राजकी जकातकी चोरी करना. (४) खोटे तोलके बाट रखना. (५) पुरी वस्तुको अच्छी कह कर दे देना या मिलावट करके वेचना.
(४) चौथे व्रतके अतिचार:-(२) छोटी उम्रकी अपनी स्त्रीसे विषय करना. (२) बिना परणी स्त्रीसे गमन करना. (३) किसी भी तरहकी कामक्रीडा करना. (४) औरोंकी शादी करा देना. (५) काम भोगमें तीव्र इच्छा रखना.
(५) पांचवे व्रतके अतिचारः-(१) खुली या ढकी हुई जमीनकी मर्यादाको छोडना. (२) मर्यादाके बाहर सोना चांदी रखना. (३) मर्यादा वाहर धान्य यो नक्दी रखना. (४) मर्यादा वाहर दो पगे या चौपगे जानवरोको रखना. () घरके सजानेकी चीजोंको मर्यादा बाहर रखना. . (६) छठे व्रतके अतिचार:-(१)उंची दिशाकी मर्यादाको उल्लंघन करना.(२)नीची दिशाकी मर्यादाको उल्लंघन करना. (३) विचली दिशाकी मर्यादाको छोडना. (४) एक दिशाको कम कर दूसरी दिशाको वहाना.(4) संदेह आजानेपर भी आगे बढ जाना। ' (७) सातवें व्रत के अतिचार:-(१) मर्यादासे बाहर संचेत वस्तुका खाना. (२) सचेत वस्तुसे मिली हुइ वस्तुका खाना. (३) अध पकी वस्तुका खाना.(४) भुडता वगैरा खाना.() ऐसी वस्तु खाना जिसमें खावे कम और डालदेवहुत. अब१५कर्मके आने के स्थाने को कहते है जो इस व्रतमें श्रावकको जान लेने चाहिए परन्तु आदरने नहीं चाहिए:-(१) आग जलानेका
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- व्यापार. (२) जंगल कटाने का व्यापार. (३) गाडी आदि बेचने का व्यापार. (४) गाडी बैल रखकर भाडा करनेका व्यापार. (५) पृथ्वीको खुदानेका व्यापार. (६) हाथीदांत वगैराका व्यापार. (७) जानवरों के वाले का व्यापार. (८) मदिरादिकका व्यापार. (९) लाख आदि रंगने की वस्तुओं का व्यापार. (१०) जहरीली वस्तुओं का व्यापार (११) घाणी आदिका व्यापार. ( १२ ) वैलेकेि अंग छेदनेका व्यापार. (१३) जंगलमें आग लगानेका व्यापार (१४) सरोवर कुए तालाव आदिको सुखाने का व्यापार (१५) और हिंसक जीवोंको पालने व बेचनेका
व्यापार ।
(८) आठवें व्रत के अतिचार : - (१) काम बढे ऐसी बातें करना. (२) कुचेष्टा करना (३) मुंह साम्हने मीठा बोलना और पीछे से बुराई करना. (४) अधिकरणका संयोग बना लेना, (५) एक वार भोगनेकी वस्तुको बार बार भोगना.
(९) नववे व्रत के अतिचारः - (१) मनको बुरे रास्ते जाने देना. (२) वचन बुरे कहना. (३) कायका बुरा उपयोग करना. (४) सामायिक करलेने पर भी उसकी याद न रखना. ( ५ ) सामायिकका समय पूरा न होने पर भी उसे पूरा कर देना.
(१०) दसवें व्रत के अतिचार : - (१) हदकी मर्यादा से वाहरकी वस्तु मंगवाना. (२) मर्यादासे बाहर चाकरके साथ वस्तु मंगवाना या भेजना. (३) हद वाहरसे किसीको चिल्हा कर बुलाना. ( ४ ) अपना स्वरूपं वता समझा कर किसीको घुलाना. (५) मर्यादा से बाहर कंकर फेंक कर किसीको बुलाना.
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(११) ग्यारहवें व्रतके अतिचार:-(१)पाट और बिछानेको अच्छी तरह न देखना.या देखना ही नहीं. (२) पाट और बिछानेको अच्छी तरह न पूंजना या पूंजना ही नहीं. (३) लघुशंका या दीर्घशंकाकी जगहको अच्छी तरह न तलाश की हो या तलाश की ही न हो. (४) उसी जगहको अच्छी तरह साफ़ न की हो यां की ही न हो. (५) पोषधमें प्रमाद किया हो या क्रिया ही न की हो ।
(१२) बारहवें व्रतके अतिचार:-(१) सचेत वस्तु रख कर बोहरानाः (२) अचेत वस्तुसे ढंक कर सचेत वस्तु बोहराना. (३) बासी वस्तु या बिगडी हुई वस्तु बोहराना. (४) स्वयं सूझता होने पर भी दूसरेको बोहरानेको कहना. (५) दान देकर अहंकार करना. ___ अब यहांपर मरणके अंत समयमें संथारा किया जाता है उसके अतिचार बताते है. (१) इस लोकमें सुख पानेकी इच्छा करना. (२) परलोकमें देवता होने की इच्छा करना. (३) जीने की इच्छा करना. (४) अशाता होनेसे मरनेकी इच्छा करना. (५) मनुष्य और देवताके कामभोगकी इच्छा करना. इस तरह आनन्द गाथापति श्रमण भगवान महावीरके पास बारह व्रत अंगीकार कर उन्हें वन्दना नमस्कार कर कहने लगे "हे भगवन् ! आजसे मुझे अन्यतीथीके तपस्वी तथा मिथ्यावी देवतों और साधुपनको न पालें ऐसे अरिहंतके साधुआको वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पे, मैं उनकी न सेवाभक्ति करुंगा न उनके पास ही जाउंगा। पहले न बोलूंगा न बोलाउंगा। बिना बोलाया न बोलंगा। एकवार नबोलाऊंगा न मारवार बोलाऊंगा। उन्हें अन्न पाणी, मेवा, . मुखवास, न
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दूंगा न दिलवाऊंगा। इसमें इतना आगार (छूट.) कि:-(१) राजाके हुकमसे. (२) समाजके हुकमसे. (३) किसी बलवानके परवश हो. (४) देवताके परवश हो. (५) मावाप या गुरुके उपसर्गकी जगह. (६) जंगलमें या अकालमें, इन २ बातेको करना पडे तो सम्यक्त्व जावे नहीं। और साधुको वन्दना नमस्कार करना, उनकी सेवा भक्ति करना, माशुक निर्दोष आहार पाणी, मेवा, मुखवास, वस्त्र, पात्र, कंबल, पाट, पाटे, स्थानक, संथारो, औषध देना. मुझे कल्पे। इस तरह व्रत अंगीकार कर तीनबार महावीर स्वामीका नमस्कार कर आनन्द दुतीपलास वनसे वाणिज्य गाम नगरमें अपने घर गया। वहांपर सब बातें अपनी शिवनन्दा भार्यासे कही और कहा "हे देवानुमिये ! तुम्ह भी श्रमण भगवान महावीरके पास जाभी और वन्दना कर श्राविका धर्म अंगीकार करो."
यह सुनकर शिवनन्दाको हर्ष संतोष हुआ। वह कुटुम्बके मनुष्योंको और सेवकोको साथ लेकर जल्दी चलनेवाले लघुकरण रथमें बैठकर भगवान महावीरको वन्दना करनेको निकली । भगवान महावीरने बडी परिषद्में शिवनन्दाको धर्म कथा सुनाई, उसे सुनकर आनन्द गाथापतिकी भांति शिवनन्दाने भी बारह व्रत रुपी श्राविका धर्म अंगिकार किया। फिर जिधर होकर आईथी उधर होकर ही घर गई।
एक समय गौतम स्वामी भगवान महावीर स्वामीको पूछने लगेः "हे भगवन् ! आनन्द गाथापति आपके पास दिक्षा ग्रहण करेगा?"भगवान वोलेः " हे गौत्तम! वह दीक्षा लेनेको समर्थ नहीं है."
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आनन्द गाथापति श्रावक हुआ और शिवनन्दां भार्या श्राविका । वे दोनों जीव अजीव और नो तत्व के ज्ञानी हो साधु-साध्वीको दान देते हुए पोषध, उपवास, आयंवील आदि तप करते हुए विचरते हैं । इस तरह चौदह वर्ष हो गये । पन्दरहवें वर्ष एक समय आधीरातमें धर्म जागरिका जगते हुए आनन्द गाथापतिको अध्यवसाय उत्पन्न हुआ। उसने सब सेठ, सेनापति, मित्र जाति समुदायको वुला जिम्हा कर बडे पुत्रको घरका भार समर्पण किया । फिर उससे पूछ कोल्लाग सन्निवेशमें पोषधशाला और लघुशंका और दीर्घशंकाकी भूमिको पडीलेह, पोषधशाला में डाभका संथारा बनाया। उस पर बैठ कर पोषध किया । और डाभके संधारेमें बैठ कर श्रावककी ग्यारह * प्रतिमा रुप धर्मको अंगिकार किया । १ ली प्रतिमा १ मासकी, २ री दोकी, यों ११ वीं ग्यारह मासकी आराधन करते हुए विचरने लगे । -
दुष्कर तप करते २ आनन्दजीका शरीर दुबला होकर सूख गया । एक समय आधीरातमें धर्म जागरिका जगते २ उसे ऐसा अध्यवसाय उपजा "मेरे शरीर में वीर्य, बल, पराक्रम कम हो गया है । यदि मेरे धर्माचार्य श्री महावीर स्वामी पधारें तो उनके पास प्रातःकालमें संलेहणा कर चार प्रकारके आहारवा त्याग करूं " ऐसी निर्मळ लेश्याको ध्याते हुए ज्ञानावरणीय
* ( 1 ) प्रतिमा १ मासकी जिसमें शुद्ध सम्यक्त्व पाला जावे. (२) दो मासको अच्छे व्रतोंका पालना. (३) तीन महीनेकी सामायिक. (४) पोपध प्रतिमा. (५) काउरसग. (६) ब्रह्मचर्य. (७) 'सचित आहारं त्याग. (८) आरंभ वजेन. (९) 'नृत्य प्रेक्षावर्जन. (१०) उद्दिष्ट आहार त्याग. ( ११ ) नाथा मुंडाकर रजोहरण लेकर यति जैसा होकर फिरे । सब मिल कर पांच वर्ष छह मास में पूरी होती है
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काँका पडदा हट गया और निर्मल अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्व दिशामें लवण समुद्रमें ५०० धनुष्य क्षेत्र देख पडने लगा। दक्षिण पश्चिम की भी यही दशा हुई । उत्तरमें भी चूल हेमवंत और वर्षधर पर्वत तक दिखने लगे । ऊपर सुधर्म देवलोक तफ देख पड़ने लगा और नीचे रत्नप्रभा नरक तक कि जहां चोरासी हजार वर्षकी स्थिति है।
बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । इनके प्रथम शिष्य इंद्रभूति (गौतम) नामक गणधर थे। वह सांत हाथ ऊंचे थे। बडे तपस्वी थे। सम चौरस नाम संठाण और वज्रऋषभनाराच नाय संघयणके धनी थे । सोनेकी तरह उनका शरीर शोभायमान था। कमल कासा गौर वर्ण था। शरीर परसे उन्होंने राग छोड दिया था। तेजस् लेश्याको छिपा दिया था। क्रोध, अहंकार, माया और लोभको जीत लिया था। जाति कुलसे शुद्ध थे। छह छठके पारणे करते हुए विचरते थे। उन्होंने एक दिन छटके पारणेके दिन पहले पहरमें सझाय, दूसरे पहरमें ध्यान किया और वह तीसरे पहरमें भगवान महावीरसे आज्ञा लेकर दुतीपलाश उद्यानमेंसे निकल कर वाणिज्य गांवमें गोचरीको गये। वहां ऊंच नीचं. घरमें अटण करते हुए भिक्षा ले पीछे लौटते हुए कोल्लाग सन्निवेशके पास होकर निकले । वहांपर वहुतसे मनुप्यांका कोलाहल सुना कि आनन्द गाथापतिने इस पोपंधशालामें संलेहणा की है। आनन्द गाथापति जहां सोया हुआ था गौत्तम गये। गौतमको आते हुए देख कर आनन्द गाथापतिने वन्दना नमस्कार किया और कहा कि " पूज्य ! गृहस्थीमें रहते हुए किसी श्रावकको भषधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है या क्या?"
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गौत्तमने कहाः “हां, श्रावक ! हो सकता है " । आनन्दने कहाः “सो मुझे हुआ है। पूर्व दिशामें लवण समुद्रमें ५०० योजन देखता हूं और नीचे लोलुचुय नरकवास देखता." गौतमने कहाः " इतना ज्यादा अवधिज्ञान नहीं उत्पन्न हो सकता इस लिये 'मिच्छामी दुक्कडं ' लो यहां ही " । आनन्द योला: " पूज्य ! सच्ची वातका 'आलोयण' नहीं होताइस लिये आप ही 'मिछामी दुक्कड' लो।" फिर गीतमको शंका हुई। वहांसे जल्दी श्रमणं भगवान महावीरके पास आये। भात पानी दिखाया, नमस्कार कर पूछने लगे:"प्रभो! मैं आलोवू या आनन्द श्रावक आलोवे ? भगवानने कहाः . "गौतम ! आनन्दका कहना सही है इस लिये तुम्ह वहीं जा कर आलोवो और प्रायश्चित लेकर आनन्द श्रावककोखमाओ" श्री महावीर स्वामीके वचनको तहत कह कर गौतम स्वामी. आनन्दके पास आये, उन्हें खमाया और 'आलोयण लिया। . आनन्दने वीस वर्ष तक श्रावकपन पाला। श्रावककी ११ मतिमा की । मरणके वक १ मासकी संलेहणा की। अपनी आत्माको निर्मल की। ६० टंक भात पानीका अणसंण छेद,। आलोया, पडिकमा, समाधि संतोष पाया। कालके समय काल कर सुधर्म देवलोकमें सुधर्मवतंस बड़े विमानसे उत्तर पूर्व बीचमें इंशान कौनके अन्दर अरुणाभ विमानमें चार पल्योपमकी स्थितिसे देवता उत्पन्न होंगा। .. ... - गौतमने कहाः "हे भगवन् ! वहाँसे आयुष्य पूर्ण कर आनन्द श्रावक कहां जावेगा ?" भगवानने कहाः " महाविदेह क्षेत्रमें* हो दृढपइनाकी तरह कर्म खपा मोक्ष पावेगा.". : . . : . सार. .
श्रावकके १२ व्रत समझाने के लिये यह अध्ययन लिखा * From Theosophic point of view the word .
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हुआ है. १२. क्रोड सुवर्णका मालक आनंद गाथापति जैसा धनाढ्य भी व्रत अंगीकार कर सेका, इससे मालूम होता है कि व्रत अंगीकार करनेमें लक्ष्मी कोइ बाधा नहीं करती है. ____ आनंद श्रावक प्रथम तो जैन धर्मसे अज्ञ था, मगर श्री महावीर प्रभु के दर्शन होने के पहले, पूर्व भवोंमें अनेक प्रकारके अनुभवोंसे वह आत्मा रुपी क्षेत्र सुधरता सुधरता 'संस्कारी' तो अवश्य हुआ था; मतलब कि वो : मार्गानुसारी' तो हुआ ही था. पिछे भगवान के सदुपदेशसे 'श्रावक' हुआ, व्रत अंगीकार किये, पिछे ११ पडिमा.. आदरी, और अखीरमें देह और आत्माका भेद बरावर अनुभवमें आनेसे संथारा कर दिया. इस तरह क्रमशः उनकी आत्मा उन्नतिक्रमकी सीढी पर चढती २ परमपदको प्राप्त हुई... ___ 'व्रत' ये कुछ खाली शब्द नहीं है। हमेश के छोट-बडे तमाम कार्योंमें आचारशुद्धि और विचारशुद्धिका पालन हो ऐसा निश्चय करना उसीका नाम 'व्रत' है. व्रतधारी ,श्रावफका दररोजका जीवन शुद्ध होता है, उनका . प्रत्येक कार्य, शब्द-विचारमें दया और यत्नाका समावेश होता है, उनका लक्ष विंदु परम पद ही है. इस लिये 'वत' पालन करने के लिये दररोज फजरमें करने योग्य भावना निचे दी गई है.
मैं निश्चय करता हूं कि:- . . . क्षेत्र may moan 'Plane ' and महा विदेह क्षेत्र, accordingly, should not be understood as 'land, but as in particular plano-condition of lifo-higher life 'Whero in stead of tho physical body the finer : bodies are working for the evolution of the soul.
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(१) आज मैं किसी प्राणीको इरादापूर्वक इजा करूंगा 'नहीं और अयना यांने दुर्लक्षसे या प्रमादसे किसी प्राणीको हानी न पहुंचे इस वातकी दरकार करूंगा.
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( २ ) आज मैं किसीको कोइ तरहका नुकसान हो ऐसा झूठ वचन नहीं बोलूंगा. हाश्य, परनिंदा, गपसप आदि वाचाके दुरुपयोग के कार्यों से मैं दूर रहने की दरकार करूंगा.
(३) आज मैं किसीकी चोरी नहीं करूंगा, फोकटके धनकी इच्छा नहीं करूंगा, व्यापारादिमें उगाई नहीं करूंगा.
(४) आज मैं विषयवृत्तिको अंकुशमें रखूंगा. धर्मपत्नी सिवाय और सब स्त्रीयोंसे भगिनी भाव रखूंगा. धर्म पत्नीको भी विषय वासना तृप करने का ही पदार्थ न समझते हुवे बुद्धिपुरस; वासनाका दमन करूंगा. मेरे मनको विषय संबंधी विचारोंसेः आँखाको विषयजनक पदार्थोंसे, जीव्हाको अश्लील शब्दोच्चार से दूर ही रखूंगा.
(५) आज मैं परिग्रहमें लुब्ध होनेके स्वभावको अंकुशमें रखूंगा. स्थावर व जंगम जो परिग्रह मेरी पास है उससे ज्यादा जो कुछ प्राप्ति मुझे आजके दीनमें हो, उसमेंसे रु. - कीमतका रख कर दूसरा सब दुःखी जीवांको गुप्त सहायता पहुंचाने में और ज्ञानकी भक्ति करने में व्यय करूंगा.
(६) आजके दीनमें, जहां तक हो, - माइलसे ज्यादा, परमार्थके कार्य सिवाय, भ्रमण नहीं करूंगा.
(७) आजके दीनमें, उपभोग - परिभोग के पदार्थों बनेगा त्युं थोडेसे ही नीभालूंगा. वस्त्रादि 'परिभोग ' की चीजें और खानपानादि ' उपभोग ' की चीजें ये दोनोकी
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खास आवश्यकता जितनी होगी उससे ज्यादा (शोखके लिये.) काममें नहीं लूंगा. ज्यूं ज्यूं आवश्यकता ज्यादा चीजेंकी होती है यूं त्यूं आत्मा पर बोजा बढता है और खूदका विचार करने की फुरसद कम रहती है, ऐसा समझ कर खानेकी पीनेकी-पोशाककी मर्दनकी-बीछानेकी इत्यादि हरएक प्रकारकी चीजें ज्यु बनेगी त्युं थोडीसे ही चला लूंगा. मैं सादा, आत्मसंयमी और मिताहारी वनूंगा.
(८) मुझसे बनेगा वहां तक मन, वचन और कायाको व्यर्थ व्यापारमें न फँसाउंगा। इधर उधरकी खटपट, गप्प, चिंता और कुतर्कमें अपने आत्मतत्त्वको नाश न होने दंगा। भोग विलासकी चीजेपर मूर्छित न बनूंगा। और न किसीका बुरा चिंतूंगा । आत्मक्लेश न होने दूंगा।
(९) मुझसे बनेगा वहांतक चित्तका समतोलपन रक्खंगा। तमाम दिन चित्तका समतोलपन न भी रह सकेगा तो भी कमसे कम ४८ मिनिट तो उसके अभ्यासके लिये अवश्य निकालूंगा । इस समयमें 'सामायिक व्रत' पालूंगा। मन, वचन और कायाके योगसे पाप कर्म न करूंगा, न कराउंगा तथा न करतेको भला समझूगा । इन नव 'कोटी मेंसे मुझसे जीतने पल सकेंगे उतने तो अवश्य पालुंगा ही। ___(१०) जहां तक मुझसे हो सकेगा ( ) इतने माइलसे दूरकी वस्तु मेरे भुक्तने के लिये नहीं मंगवाउंगा । अथवा आई हुई वस्तुको उपयोगमें न लूंगा। (यह व्रत स्वदेशभक्तिका है भारतके बाहरसे कोई वस्तु मंगाउंगा नहीं या मंगवाइ होगी तो उपयोगमें न लाउंगा ऐसा नियम करनेसे यह प्रतं भली प्रकार पाला कहा जायगा)।
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(११) जहांतक हो सकेगा मैं यत्न और अप्रमादसे अपने आत्माका पालन करूंगा। वर्पमें ( ) दिन पैौपधव्रत करुंगा कि जिसमें २४ घंटे निर्दीप जीवन व्यतीत करना पडता है और अपनी उन्नति संबंधी विचार करने का अवकाश मिलता है।
(१२) जहां तक बनेगा में पात्र और सुपात्रको दान दूंगा और अपने भोगान्तरायी कमाका नाश करूंगा। दीन दुःखीयोको दान, उपदेशकांको दान, त्यागी महात्माको दान इस प्रकार सुपात्रको दान करनेका मौका ढूंढता रहूंगा और मौका मिलतेही वडे आनंदसे दान दूंगा। :- इन बारह नियमेकी सूचना देने के बाद अब हम आनन्दजीकी कथासेनिकलते हुए दूसरे मुद्दे पर विचार करेंगे। आनन्दजी जैसे 'पति' आजके समयमें थोडेही होते हैं। अपने आधे अंगको अर्थात अपनी धर्मपत्नीको उन्होंने श्राविका धर्म समझाकर अंगीकार करवायाः मतलब यह है कि उन्होंने अपनी स्त्रीको इन्द्रिय सुखों के लिये दासी न समझकर मित्र या सखी गिनी और वास्ते उस्के हितके चिंता करी। मनुष्य का धर्म है कि वह अपनी स्त्रीको धर्मज्ञान दें। और वास्ते उसके आत्महितके हो सके उतनी मुगमता कर दें। ___आश्चर्यकी बात है कि ऐसे द्रढ श्रावक जो जीव और अजीवादि नवतत्त्व इत्यादिके ज्ञाता थे और ग्यारह प्रतिमा और संथारा तककी हिम्मत करनेवाले थे,उन्हें भी श्रीसवज्ञ भगवानने दीक्षा लेनेको असमर्थ ठहराये थे । अरेरे ! हमारे मुनिवर अपने महावीर पिताके इन वचनेका ममें कब समझेगे? दीक्षा कुछ छोटीसी बात नहीं है। बिना आध्यात्मिक जीवन के प्रवज्या अर्थात् दीक्षा कभी दृढतापूर्वक नहीं पल सकती। .
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भगवान के नियमको तो देखिये कि उस दादाने मुख्य शिष्य गौतमको भी फरमाया कि "तू जा, अभी जा और आनन्द श्रावकसे क्षमा मांग"। एक श्रावकसे बडाभारी महात्मा क्षमा मांगे ! कैसा निष्पक्षपाती न्याय है ! वर्तमान समयके मेरे श्रावक भाई अपने गुरुकी हठ व आचारभ्रष्टता देखतेही गौत्तमजीका दृष्टांत देकर क्षमा मांगनेकी फरज पाढे तो कैसी भली वात हो! ___ देखिये ! कैसे आश्चर्यकी बात है कि भगवानके मुख्य साधुको जो ज्ञान वांकी दीक्षा होने पर भी ( उस समयतक) नहीं उत्पन्न हुआ वही अवधिज्ञान गृहस्थ आनन्दजीको उत्पन्न हुआ! आजके साधु'चाहे जैसे उत्तमश्रावक याने भावसाधुसें हम उत्तम हैं । इस प्रकारका दावा करते हैं, वे इस रहस्यको अपने हृदयमें विचारें तो उनका खूब भला-कल्याण होगा।
श्री आनन्दजीका चरित्र एक सत्यपर और प्रकाश डालता है। उन्होंने नियम लिया था कि, " साधुपनेको नहीं निभाते ऐसे अरिहंतके साधुको भी मैं नमन नहीं करूंगा। उनकी सेवा भक्ति न करूंगा ! साधु जानकर अन्न-जल- वस्त्र नहीं दूंगा" इन नियमको धारण करनेवाला सख्स भगवानका पक्का श्रावक है। उनके हालको लिखनेवाले शास्त्रकार वास्तवमें माननीय महात्मा हैं। इस प्रकार जिनकी श्रद्धा हो उन सब जैनी भाइयेसे वीतराग प्रथुके नामपर मैं पूछता हूं कि, जीन २ साधुओंको आप वन्दना करते हैं उन सबकी योग्यताका-गुणका आपने कभी विचार किया है ? क्या सब सच्चे साधु हैं ? . यदि शास्त्रकारकी इस बात पर ध्यान दिया जावेतो जैनधर्मके निर्मल झरेमें कचरा भी आ मिला है वे अपने आपदूरहोजावे।
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अध्ययन २ रा-सुश्रावक कामदेव.
उस काल उस समयमें चंपा नामकी नगरी थी । उस नगरीमें पूर्णभद्र नामका देहरा था, वहांका राजा था जीतशत्रु। इसी नगरीमें एक धनाढय गाथापति रहता था, उसका नाम था कामदेव । इसके घरमें छ कोटी सुवर्णभूमिमें गड़ा हुआ था, छ करोडसे व्यापार चलता था, और छ करोडके सामानसे घर सजा रखा था। इसके सिवाय छ गोकुलका वह स्वामी था। एक एक गोकुलमें दस हजार गायें थी। ___ कामदेवकी धर्मपत्नीका नाम भद्रा था। वह बडी रुपवान थी और पांचों इन्द्रियोंसे सुशोभित थी। ___एक समय श्री महावीर स्वामी पूर्णभद्र चैत्यमें पधारे । उन्होंको वंदना करनेको आनंदजीकी तरह कामदेव भी गये और भगवानको वंदना कर धर्मकथा श्रवण करी, आनंदजीकी तरह 'श्रावक धर्म' अंगीकार किया, घर आकर घरका कार्यभार बडे बेटेको सुपुर्द किया।
बाहरका बोझ उतारकर भीतरका बोझ उतारने के अभिलाषी कामदेव श्रावक स्त्री, ज्येष्ठ पुत्र और मित्रादिको पूछ कर पौपधशालामें आये । आनंदजीकी भांति पौषध करने लगे, और श्रावककी ११ प्रतिमा (पडिमा) अंगीकार की।
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___ एक समय पौषधमें बैठे हुए कामदेवको विचलित करने के इरादेसे एक मिथ्याद्रष्टि देवताने अलग २ तीन रुप धारण कर उपसर्ग किये; परन्तु इस कसौटीमें कामदेव पार उतरे और उनकी सरलता बनी रही।
प्रथम तो देवताने एक महाभयंकर पिशाचका रुप बनाया। औधे किये हुए 'सूंडला' * जैसा उसका मस्तक था ॥डाभके अग्रभागसे तीन और चावल के तुशसे पीले उस पर बाल थे। पानी भरने की वडी मटकी के ढीवरे जैसा उसका लिलाट था। गिलेरीकी पूंछकीसी विकृत आंखके दोले थे और डरावने लगते थे । वकरेके नाककीसी उसकी नाक थी और भट्टीकेसे नकतोडे थे । घोडे की पूंछ जैसी उसकी मूंछ थी और वह पीली पीली और लंबी व डरावनी जान पड़ती थी। ऊंटके होठ जैसे उसके लंबे लटक रहे थे। लोह के फावडे जैसे दांत थे । लव लब करती उसकी जीभ बाहर निकल रही थी। हलके दांत जैसी ठोडी थी। घी भरनेके फूटे कुलकेसे उसके भूरे २ गाल थे। और वडे कडे थे । वडे नगरके दरवाजेके किंवाड समान उसकी छाती थी और बडी कोठी केसे उसके हाथ थे। पत्थरकी 'निसा' जैसी उसके हाथकी हथेलीयां थी और कुरांचेकीसी हाथकी उंगलीयां, सीप केसे नख थे।जहाज के हवा भरने के कपडे जैसे उसके स्तन थे। कोटकी बुरजकासा पेट था और परनाले कीसी नाभी। शिंकाकार लटकता हुआ गुह्यस्थान था और कचरेसे भरे हुए कोथले जैसा उसका अंडकोप था । अर्जुनके तृग समान उसकी पीडीयां थी
* ढोकला
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(१०)
और बडी कोठी कीसी उसकी जांघ थी। लोहेकी एरण समान उसके पैर थे, गाडेके उंटडे समान हिलता हुआजांघोंका ढांचा था। मुख पोला कर जीभ बाहर निकाली थी। उससे ललाट को चाट रहा था। काकीडेकी और चूओंकी माला पहन रखी थी। और न्यौलेको कानों में लटका रखा था। सांपका उत्तरासन किये हुए था। ऐसा भयंकर रुप धारण किये हुए वह तालिये वजाता हुआ, गर्जना करता हुआ और हूड हड हंसता हुआ, नाना प्रकारके रोमराय युक्त पंचवर्ण,एक बड़ी भारी नीलोत्पलसी अलसीके फूलकीसी हाथमे नंगी तरवार ले कर वहां पौपधशालामें आया,जहां कामदेव श्रावकने पौपथ किया या । वहा आकर क्रोधसे सुंसाटा करता हुआ कामदेवको कहने लगा." अरे कामदेव श्रावक ! वे मौत मरनेकी इच्छा करनेवाले ! बुरी पर्यायांका धनी ! बुरे लक्षणवाले ! खराब चौदश पूनमके जन्मे हुए ! लज्जा-शोभा-कीर्ति-धैर्य हीन ! यदि तू पौषधको खंडित न करेगा तो मैं इस तरवारसे तेरे टुकडे टुकडे उडा दूंगा । और इससे तू खूप दुःखी होगा व आध्यान और रौद्रध्यान ध्याता हुआ अकाल मौतसे मरेगा।"
इस प्रकार दो तीन बार कहा परन्तु इससे कामदेव न डरा, न दुःखी हुआ, न विचलित हुथा, और बोला भी नहीं और अपने धर्मध्यानमें रह रहा।
कामदेवको विचलित हुआ न देख कर पिशाच बहुत क्रुद्ध हुआ। उसके ललाटमें तीन सल पड गये । कामदेवके शरीरके उसने टुकडे २ कर दिये । इससे कामदेवको वडाही
* यह वर्णन धीरे धीरे मननपूर्वक पढनेका है। श्रावकजीके
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( १०३ )
असा परिसह - दुःख हुआ परन्तु उसे उसने शुद्ध परिणाम व समभाव से सहन किया और मनके अध्यवसायको तिलमात्र भी न डिगने दिया ।
अपना प्रयोग यों खाली गया देखकर उस देवने पिशांच रुपको छोड़कर हाथीका रूप धरा । वे ऐसा था:
चारों पैर, सुंठ, पूंछ और गृहस्थान ये सातों उरके अंग जमीनको स्पर्श करते थे । आगेसे वे उंचा था, और पीछे से शूकरकी समान नीचा था । वकरीके समान लंबी कूख थी । गणपति कासा लंबा पेट था । मालतीके फूल केसे सफेद दांत थे और उसपर सोने की खोली चढी हुईथी । धनुप्यकी तरह संदके अग्रभागको का कर रखा था । कछुवे केसे उसके नख और पैर थे ।
ऐसा भयंकर मदोन्मत्त हाथीका रुप धारण कर मेघ समान गर्जना करता हुआ गम व पवन के वेग से पौषधशालामें कामदेव के पास आया और बोला:" रे कामदेव | यदि तू व्रतको न तोडेगा तो तुझे सुंढसे पकडकर बाहर ले जाउंगा और आकाश उंचा उछल ढुंगा । तथा दांतद्वारा खूब पीडा पहुंचाउँगा । भूमिपर पटक कर तीन चार पैसे दलूंगामलूंगा । इससे तुझे वडी पीडा होगी और तू आर्तध्यान और रौद्रध्यान ध्याता हुआ अकाल मृत्यु पायगा "। परन्तु कामदेव
शरीरके टुकडे २ हो गये; तो भी उन्होंने आर्तध्यान रौद्रध्यान न satarऔर नहीं धर्म पलटा । मिलके वाइलर में गाडा भर कोयले भरने पर भी बॉइलर पर 'ॲस्प्रेस्टोस' नामके पदार्थका टुकडा टाल देते हैं तो उस जाज्वल्यमान आगपर हो कर कोई भी जा सकता है । वैसे ही 'धर्मध्यान' 'एस्बेस्टोस ' है । उसे स्थूल वस्तु और घटना रूपी आगपर रखनेसे मनुष्यको भाधि-व्याधि-उपाधि रुपी जलन नहीं सताती । यह लाभ हा भारी लाभ है ।
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(१०४) डरा नहीं। उस देवने तीन बार ऐसा कहा तो भी कामदेवजीके मनके अध्यवसाय वरावर बने रहे।
इससे वह देव क्रुद्ध हो कर लाल आँख कर कामदेवको झूढमें ले कर आकाशमें उछालने लगा और मूसल जैसे दांतों पर झेलने लगा। फिर भूमिपर डालकर तीन बार पैरसे रगदला । इससे कामदेवको तीव्र वेदना उत्पन्न हुई । उसको उसने समभावसे सहन करी। अपने मनके अध्यवसायको डिगने दिये नहीं।
यह दूसरा प्रयोग निष्फल हुआ देखकर देव पैपिध शाला के बाहर गया और एक भयंकर काले सर्पका रूप धर आया ! वह रुप ऐसा था:
उसमें बडा उग्र विष और दृष्टि विप था। शरीर मोटा और काजलके समान था । आंखें काजलके ढेर सी और प्रकाशित लाल थी। लप २ करती हुई बडी चंचल दो जीभ बाहर निकलती थी। स्त्री के चोटी समान लंबा था। चक्र जैसी वांकी और बडी मूछोंवाला उसका फण था । उसे वह चाहे जैसा फैला सकता था। उसका मणी भी वैसा ही था। ऐसा महा भयंकर रूप धारण करके लुहारकी धमणकी तरह धबधबाट करता हुआ पौषधशालामें कामदेवके पास आया
और कहने लगाः" अरे कामदेव ! यदि तू ब्रतको न तोडेगा तो मैं तेरी पीठपर होकर तेरे शरीर पर चढूंगा और गले में तीन आंटे लगाकर तीव्र विषसे भरी हुई दासे तेरे हृदयमें काढूंगा। इससे तुझे बड़ी भारी वेदना होगी । आतध्यान
और रौद्रध्यानसे कुसमयमें मरेगा। इस प्रकार उसने दो तीन वार कहा; परन्तु कामदेव किंचित् मात्रभी न डरा । इससे वह
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(१०५) क्रुद्ध हुआ और कामदेवकी पीठपर सर सर चढ गया। गलेमै तीन आंटियां दी। और तीक्षण तथा विप भरित दादोंसे काम देवके हृदयपे दंश दिया। इससे कामदेवके सारे शरीरमें वेद । हुई, तो भी वे धर्मसे चलायमान नहीं हुए। और वेदनाका शुद्ध परिणामसे सहन करीं। ___ इस प्रकारके भयंकर और उग्र परिसहाँसे जब कामदेव न डिगा तब वह देव निराश हो गया। उसने सर्पके रुपको त्याग दिया । और एक प्रधान देवताके रुपको धारण किया। पचरंगे वस्त्र पहरे, गलेमें हार डाल लिया, कानों में कुंडल सजे, मस्तकपर मुकुट धारण किया। चूंघरसे धमकार करता दसों दिशाओंको उद्योत करता हुआ आया और अन्तरीक्षमें-अधर रहकर कामदेव प्रत्ये कहने लगाः ।
"अहो कामदेव ! धन्य है आपको! आप पुण्यवान्, कीर्तिवान् और सदाचरणी हो । हे देवताओंको मिय ! एक दिन शक्रेन्द्रने चौरासी हजार सामानिक देव और देवियों के परिवारमें सिंहासनारुढ हुए कहा था कि.. 'आजके समयमें जंबुद्वीपके भरतक्षेत्रकी चंपानगरीमें कामदेव श्रावक पौषधशालामें पापध करके बैठे हैं। उन्हें उन्होंके व्रतसे विचलित करनेको कोई देव, दानव, असुरकुमार, गंधर्व, राक्षस, किन्नर, किंपुरुषादि समर्थ नहीं है। मुझे. शक्रेन्द्र के इस वचनपर विश्वास न हो सका। इस लिये मैं आपको विचलित करने आया था। परन्तु शक्रेन्द्रने जैसा कहा था वैसेही आप रद्ध हो यह मैंने प्रत्यक्ष देख लिया। हे देवप्रिय ! मैं आपको खमाता हूँ। मेरे अपराधकी क्षमा करें। अब मैं ऐसा न करूंगा।
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( १०६ )
ये कहकर तीनवार पैरों में पड़कर दोनों हाथ जोडकर बारबार बंदन कर देवता जीधर होकर आया था उधर चला गया। " कामदेव श्रावकने उपसर्ग मिटा जानकर काउसग्ग पाला । इसी अरसे में श्रमण भगवान श्री महावीर देव चौदह हजार साधुओं के साथ उपर बतलाये हुए उद्यानमें पधारे। इस बातको सुनते ही - मालुम होतेही कामदेवने सोचा कि, भगवानको वंदना नमस्कार करके पैौषध पारना चाहिये । शुद्ध उज्वल वस्त्र पहनकर बहुतसे मनुष्योंके परिवार सहित भगवानको वंदना करने को गया । वहां परिषद् में भगवानने धर्मकथा कही । फिर कामदेवको कहा: “ अहो कामदेव श्रावक ! आज आधी रात में देवताने पिशाच, हाथी और सांपका रूप धरकर तुम्हें तीन उपसर्ग दिये और उनको तुमने सहन किया । फिर वह
* यहां पर एक बात विचारने जैसी है । प्राय: करके कसौटी मानसिक भवनपर होती है एसा यह एक दृश्यपर ले जाना जा सकता है। पहेले उपसर्ग में कामदेवके शरीरके अंगोपांग काटकर टुकडे किये थे, दूसरे उपसर्ग में शरीरको हाथीने रगदोला, और तीसरे उपसर्ग में भयंकर से भयंकर विप उसके शरीरमें व्याप्त किया । यह सब यदि मानसिक सृष्टिमें न बना हो और स्थूल सृष्टिमें ही बना हो तो कामदेवका टुकडे बना हुआ शरीर प्रातः काल में भगवान के दर्शन करने कैसे जा सके ? यह विचारवान् प्रश्न है । पापध पारे पहेले,
तो थोडे घंटे में
भगवान के दर्शन करने के लिये श्रावकजी गये हैं; टुकडे इकट्ठे हो कर संघ जाय यह कैसे बन पडे ? अतः एव समझा जाता है कि देवता जो कुछ परीक्षा लेते हैं - कसौटी करते हैं, वे मानसिक सृष्टि करते हैं । यद्यपि स्थूल भवनपर यह बनाव बनता हो ऐसा उस मनुष्यको भास होता है और स्थूल पीडा कीसी पीडा भी होती है तथापि वे शरीरकी स्थिति नहीं बदलती । योग मार्ग में चढनेवालेको ऐसे अनेक महा भयंकर रूप डराते हैं; इतनाही नहीं परंतु सुंदर रूपोंमें फैलाकर नीचे भी डाल देते हैं ।
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( १०७)
देव देवलोकको गया । यह बात सच है?"
"हां स्वामिन् ! सही है " कामदेवने कहा ।
फिर श्री महावीर स्वामी बहुत साधु-साध्वीको उद्देश कर कहने लगे :- " अहो आयें ! कामदेव श्रमणोपासकने ( श्रावक ) गृहस्थावासमें रहते देव संबंधी उत्पन्नं भये हुए उपसर्ग सहन किये तो तुम भी वैसे उपसर्ग सहन करनेको शक्तिमान बनो ! | " ये आज्ञा साधु-साध्वीये।ने प्रमाण करी, फिर कामदेव श्रावक अति हर्पित होकर भगवानको वंदन करके जिस दिशा से आये थे उस दिशासे वापिस गये ।
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कामदेव श्रावक, बहुत छ- अहमादिक तपश्चर्या करके. बीस वर्ष तक श्रावक धर्म पालकर, श्रावककी ११ प्रतिमाका स्पर्शकर, एक मासका संथारा कर अपने आत्माको निर्मल करके, ६० टंक भत्तपानीका अणसण छेद आलोचना-प्रतिक्रमण, समाधि - संतोष पाकर, कालके समयमें काल करके सौधर्म देवलोक में सुधर्मावतंसक नामके बडे विमानसे इशान कोने में अरुणाभ विमानमें चार पल्योपमकी स्थितिसे देवता होगा ।
गैौत्तमने पूछा: " भगवन् ! कामदेव श्रावक वहांसे आयुष्य पूर्ण कर कहां जायगा ? "
भगवान बोलेः " हे गौतम! कामदेव श्रावक वहांसे चवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर कर्म क्षय कर मोक्ष पायगा "।
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(१०८)
सार
कामदेव श्रावकका चरित्र लिखने में शाखकारने 'धर्मध्यान' की खूबी समझाने का आशय रक्खा जान पडता है । मनुष्य किसी समय चिंतामें होता है तब कहा जाता है कि वह आर्त्तध्यानमें है । किसी समय गुस्से में होता है और अन्यकी बुराइ चाहता है, उस समय वह रौद्रध्यानमें कहा जाता है । किसी समय आत्माके विचारमें मग्न होता है— जड और चेतनका विचार करता है, उस समय वह ' धर्म ध्यान ? अथवा ' शुक्ल ध्यान ' में माना जाता है ।
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आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यानमें जब मनुष्य होता है तब ऐसा एक तार हो जाता है कि उसे इस बातकी खबर भी: नहीं रहती कि उसके आसपासमें क्या हो रहा है । रौद्र ध्यान - में चढा हुआ मनुष्य अपनी पत्नीको या बर्डे को तरवार से मारने को तैयार हो जाता है, उस समय में हानि लाभका कुछ भी विचार नहीं रहता । आर्तध्यानमें लगे हुए मनुष्यको भूख प्यासका भी विचार नहीं रहता, इतनाही नहीं परन्तु विष खाते दुःख न मानकर प्रसन्नतापूर्वक आत्मघात करता | इस प्रकार दुयनमें लगे हुए मनुष्यको ध्यानके सिवाय कुछ भी नहीं दिखता । तथापि 'धर्मध्यान' करने वाले मनुष्यों में वहुतही कम ऐसे होते हैं, जिनकी लगन इस तरह लगती हो । दस मिनट काउसग्ग रहेगा तो मेरे पैर दुःखने लगेंगे, पाँच मिनटमें मेरा श्वासोश्वास रुक जायगा और मैं मर जाउंगा, - ऐसे ऐसे भय से धर्मध्यानमें निश्चलं नहीं हो सकता । जब निश्चलता होती है तभी आनंद मिलता है । तभी दुःख स्पर्श
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नहीं कर सकता, और तभी देवकोप इसको कुछ असर नहीं कर सकता अर्थात् इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता ।
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पौषध व्रत जो है यह ' धर्मध्यान ' का एक उत्तम प्रकार है । आत्माको पोपण करनेके लिये लिया हुआ समय यह पपध व्रत है। इस व्रत में शरीरको शृंगारना छोड दिया जाता है और शरीरकी कुछ परवाह भी नहीं रक्खी जाती । जीन्दगी भरमें जो मन दिन रात शरीर के विचारमें मग्न रहता है, उसे इस व्रत में - शरीर के बजाय शरीरके राजाके ही विचारों में लगाया जाता है । इस पापघ व्रतमें रामायण आदि रासको पढना, या सुनना, यही आत्मकल्याणका विरोधी समझा जाय तो फिर रोजगार, घर के काम और इधर उधरकी गप्प मारनेवाले के पापघके लिये तो क्यादी कहा जाय ?
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वैद्य लोग कहते हैं कि, आरोग्यतावाले मनुष्य को भी हर महिने या हर आठवें दिन आरोग्यता रक्षणके लिये एक अच्छा जुलाब लेना चाहिये । शरीरकी सहीसलामती और आरोग्य रक्षण करने के वास्ते यह इच्छने योग्य है । तथापि हर महिने या हर आठवें दिन एक 'पौषध' होता हो तो मनुष्य स्थूल और सूक्ष्म यह उभय प्रकारके महान् लाभ प्राप्त कर सके। पौषधमें उपवास करनाही पडता है, अतः एवं शरीरमें संचित हुआ सारा मल जल जाता है और शरीर निर्मल हो जाता है (यह मेरा कहना तनदुरस्त मनुष्योंके लिये है, न कि विमार और कमजोरों के। ) और आठ दिन या महिनेभर में इधर उधर भटक गये हुए विचार एकांत सेवनसे एकत्र होकर मनोबल बढता है ।
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(११०) इस रीतिसे दूना लाभ देनेवाले पौषत्रतके लिये स्थान एकान्तमें होना चाहिये । एक स्थानपर इकठे होकर बहुन मनुष्योंका पौषध करना संघ निकालने जैसा है ! इसमें आत्माको आत्मिक विचारांसे पुष्ट करने का समय नहीं मिलता। प्राचीन समयमें प्रत्येक श्रावक अपने घरमें पौषधशालाकी कोटरी रखते थे और इस बात पर ध्यान रखा जाताथा कि, उस मकानके वायु मंडलको (याने वातावरणको) अपवित्र विचारका स्पर्श भी न होने दिया जाय। ___ आत्माकी पुष्टि करने के लिये पौषध किया जाता है; तथापि उस पौषधको पालन करने के लिये भी कुछ होना आवश्यक है। खुराक तो आत्माको भी चाहिये और पोषधको भी। क्योंकि विना खुराकके शरीर ग कोई सांचा नहीं चल सकता । पौषधकी खुराक 'भावना है। वारों भावनाओंमेंसे किसी एक भावनामें लीन-मग्न-मस्त हो जानेसे सारा दिन उसी भावनामें व्यतीत हो जायगा तो भी समय किधर गया इसका पतान लगेगा। परन्तु 'भावना तब ही होसकती है जबकि वस्तु संबंधी पढा हुभा या सुना हुआ ज्ञान अपने दिमागमें होता है। प्रथम तो गुरु महाराज के पास वस्तु संबंधी ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । फिर भावना भाकर पौषधको दृढ करना चाहिये और पौषधसे आत्माका पोषण करना चाहिये । इस रीतिसे क्रमशः आगे बढनेवाला-चढनेवाला पुरुष देवताकी मारसे या लालचसे कभी डिगेगा नहीं। कभी भावना या व्रतको न छोडेगा । और इस प्रकारको तल्लीनताका नाम ही आनन्द है । यही मोक्षकी बानगी है।
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अध्ययन ३ रा - चूलणीपिया गाथापति.
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उस काल और उस समय में वाराणसी नामक नगरी थी। वहां जीतशत्रु राजा राज्य करता था । इस नगर में चूलणीमिया नामक एक गाथापति रहता था । उसकी खीका नाम था सोमा । वह बडी रूपवाली थी । इस गाथापतिके पास आट कोटि सुवर्ण भूमिमें गड़ा हुआ था । आठ कोटिसे व्यौपार करता था । ८ कोटिकी: सजावट थी । इसके सिवाय वे आठ गोकुल का स्वामी था ।
एक समय भगवान श्री महावीर स्वामी कोष्टक नामक वन - उद्यानमें पधारे, वहां उन्होंको वंदन करने को चुलणीपिया गया । वन्दन नमस्कार कर उपदेश श्रवण कर आनंद श्रावकके जैसे श्रावक धर्म अंगीकार किया । घर आया । बडे पुत्रको सव घर कार्यभार सुपुर्द कर दिया । आप अपना जीवन धर्ममें व्यतीत करने लगा | स्त्री- पुत्रादिसे पूछ कर पौषधशाला में पौष करते ग्यारह प्रतिमाको अंगीकार कर विचरने लगा ।
एक रोज श्रावकजी पौषध करके बैठेथे, इतनेहीमें आधी रात के समय एक देव कमल कीसी उजली और बीजलीसी चमकती हुई तरवार हाथमें लेकर आया और कहने लगा: "हे चूलगीपिय श्रावक ! अमार्थित मरणके चाहनेवाले ।
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( ११२ )
बुरी पर्यायोंके धनी ! हीन चादस - पूनम के जन्मे । लज्जाशोभा - धैर्य कीर्ति रहित । यदि तू इस व्रतको न तोडेगा तो तेरे बढे बेटेको तेरे घरमेंसे लाकर इस तरवार से तेरी समक्ष ही कादूंगा और उसके मांसका कवाब तल तल कर तेरे शरीरपर उसके (रक्तमांस छांदूंगा । अतः एव तु तीव्र वेदना पाकर आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानसे करके अकालमै मरेगा " | परन्तु इससे चुलणीपिया न तो डरा और न धर्मसे चलायमान · हुआ । अतः एव वह देव अति क्रोधायमान होता भया । उसने श्रावक के बडे बेटेको लाकर उसके साम्हने काटा | उसके तीन सूलें किये | कढाइ तलें और उसका लोही मांस श्रावकके उपर छींट दिया। इससे श्रावकको तीव्र वेदना हुइ; परन्तु वे डरा नहीं, न दुःखी हुआ और न धर्मसे विचलित हुआ; 'प्रत्युत चुपचाप रहा | धर्मध्यान में लीन बना । इससे देवने चुलणीपिया के विचले लडके का भी यह हाल किया। और छोटे लडके का भी । तथापि श्रावक तो अपने धर्मध्यानमें लगा रहा । अखिर में देवने कहा कि 'अब मैं तेरी मां भद्राकी भी यही -गति करूंगा'। तो भी श्रावक नहीं डरा । देवने दुबारा कहा 'तो भी श्रावक दृढ रहा; परन्तु जब तीसरी बार माता भद्रा के 'वारेमें कहा तो श्रावक चुलणीपिया मनमें सोचने लगा कि "इस पुरुषकी बुद्धि बडी अनार्य है । इसने मेरे तीनों लडकेको मार डाला और मेरी माताको भी मेरे सामने मारनेका कह रहा है । जो माता देवगुरु समान है, जीने मुझे गर्भ में रखकर पालन किया है, उस माताको मेरे सामने कटती देखें, यह मेरे लिये ठीक नहीं है। अच्छा, इस दुष्टको अभी पकहूं "। ऐसा विचार कर चुलणीपिया मन, वचन और
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( ११३ )
कायासे करके उठा और देवको पकड़नेको ज्योंही खडा हुआ कि देवता आकाश मार्ग से रवाना हो गया । और ' चुलणीपियाने थंभा पकड बडे जोरसे हम्हू करना शुरु कर दिया । उसे सुनकर भद्रा सेठानी वहां आई और कहने लगी कं' हे बेटा ! अभी तूने बढे जोरसे कोलाहल कैसे किया ?' चूलजीरिया बोला- "माना जा कोई आदमी मुझपर गुस्से होकर कमल के फूल जैसी उजली और बिजलोसी चपकती हुई कलवार हाथमें लेकर कहने लगा कि -' हे चुलणीपिया ! तू व्रत नहीं तोरंगा तो तेरे बडे पुत्रको तेरे सामने अभी मैं मारुंगा, उसके मांस के सूळे कर कढाईमें तल उसका लोडी मांस तुझपर छिडगा | इस प्रकार तीन बार कहा परन्तु मैं डरा नहीं । फिर उसने तीनों लडकेको काट कर उसका लोहीमांस मेरे शरीर पर छिडका । मैं फिर भी नहीं डरा और न धर्मसे च्युत हुआ । परन्तु अखीर में उसने, मेरे परम पूज्य माताजी | उसने आपके लिये भी वैसा ही कहा, वे दो बार तो मैंने सहन कर लिया; परन्तु तीसरी वार मुझसे सहन न हो सका । मैं उसे पकडने को दौडा तो वे आकाश मार्ग से उड गया और मैं इस थंभे से लिपट गया और कोलाहल करने लगा " ।
भद्रा बोली :-- "बेटा ! तेरे तीने पुत्र मौजूद हैं। उन्हें कोई घरसे नहीं ला सकेगा और न मार सकेगा । कोई देव तुझे उपसर्ग करने आया होगा । उसने तेरे व्रत, पञ्चखाण, तप, नियम, सामायिक, पैौषधादि सबका भंग किया है । इस लिये
* इस प्रकार जीतने बनाव बनते हैं, वे सब मानसिक सृष्टि की हैं। भतः एष मध्यक्षले कोई विरोध नहीं भावा ।
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(११४) इसी जगह मन, वचन और कायासे आलोचना कर और मायश्चित ले। .. - चुलणीपियाने माताका कहना मान, वहीं आलोचनाकर मायश्चित लिया।
चुलणीपिया आनंदजीकी तरह ११ प्रतिमा आदर और कामदेवजीकी तरह अप.सण कर सुंधर्म देवलोक में साधर्मावतंसक नामा हे विमानके पास इशान कोने में अरुणम्भ नाम विमानमें चार पस्योरमकी स्थितिसे देवता हुआ । वहाँसे महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर मोक्ष पावेगा।
सार. कामदेवके चरित्र हम दृढ तन्मयताकी भावनाका चित्र देख चूके, कि जिस तन्मयताके सामने कोई संकट या कोई उच्चगुण भी याद नहीं आता। चुलणीपियाके चरित्रमें भी हम ऐसे ही एक पवित्र पुरुषके जीवनका चित्र देखते हैं, परन्तु इसमें वैसी सम्पूर्ण तन्मयता नहीं है। चुलणीपिया तो धर्मकी पूर्ण स्थितिकी अपेक्षा माताके प्रेमकी ओर अधिक ढल पडा हां, मातृभक्ति अत्यंत प्रशंसनीय बात है, वैसेही पितृभक्ति, कुटुंबपात्सल्य और स्वदेशभक्ति प्रत्येक परोपकारका काम है। परन्तु एक म्यानमें दो तलवार नहींसमा सकती। एक ध्यानमें लगे हुए दिमागर्म दूसरा विचार-फिर वे कितनाही उत्तम क्यों न हो--प्रवेश कर नहीं सकता और यदि प्रवेश करे भी तो ध्यानकी सम्पूर्ण अवस्था नहीं कही जा सकती।
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. . चुलणीमियाने कसौटीमें हार पाइ तो भी दूसरे दिन उसके बच्चे तो जीन्दाही मिले । माताने कसोटीके समय दृढ रहनेही शिक्षा दी, तव वह एक बारकी हारसे कम हिम्मत न हुआ और धर्मध्यानमें प्रयास करता ही रहा। अन्तमें महाविदेह
i * My own imagination explains the terms महाविदेह, क्षेत्र, विहरमान & सीमंधर in this way. 'सीमानम्'
धारयति इति सीमंधरः' सीमंधर is he who holds the .सीमन् or boundary i. o. Protector of the Faith, whose responsibility is enormous--say inconceivable. en does not mean physical place, it means भुवन or plane'. महाविदेह क्षेत्र means that plane or ya of life in which a man can exist independant of physical body o आधारिक शरीर.
A. Sadhu or & Saint can by means of आहारक लब्धि visit सीमंधर स्वामी or the तीर्थकर (Protector of the Faith ) who cannot live in our · land but who dirells in महाविदेह क्षेत्र i. e. the plane where there is perpetual चतुर्थ युग of joy or आनंद. Now what is this aster? It is that power of concentration or at thich enables a man to quit the physical garb and to travel singly.
विहरमान (Present Participle Adj. of वि with . ) means spurting, niring. The High Souls in
महाविदेह plane do actually move in air or subtlo matter and move from one place to avothor as if sporting. They being full in knowledge fool आनद even in airing; hence their विहार is
cquivalent to sporting, .. · This is what my imagination tells mo
unaided by any tonchor withor' त्यागी or गृहस्थ.
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क्षेत्रमें विहरमान प्रभुके चरणकमलकी भक्ति पाई और अन्तमें मोक्षको प्राप्त होता हुआ। इस परसे यह शिक्षा मिलती है कि विघ्न और पराजयसे अनुभव मिलता है और उन्नतिका (evolutional) मार्ग साफ होता जाता है । इस वास्ते गिर जाने वालेको बैठ रहना न चाहिये; परन्तु 'घोडे चढेगा सोही गिरेगा' इस कहावतको याद कर फिर उन्नतिके मार्गमें दौड लगानी चाहिये।
It mly be faulty. But I am surs I am not in fault when I believe that Ichind what is preachel by Jain Sutras there is hidden a treasure of' mystic knotirl dge which whena man knows he will no longer care much for the worls of Sutras but will pursistently try to grasp the sense hidden under those simplelooking words.
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अध्ययन ४ था - खरादेव गाथापति.
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उस काल और उस समय में बाराणसी नगरी थी। वहां जीतशत्रु राजा राज्य करता था। वहां सुरादेव नामक एक गाथापति था । उसके छ कोटी सुवर्ण जमीनमें गडा हुआ था। छ कोटिसे व्यापार करता था और छ कोटिकी घरकी सजावट थी । इसके सिवाय दस हजार गायेका एक गोकुल ऐसे छ गोकुलका वे स्वामी था । उसकी स्त्री पांवों इन्द्रियेां से बडी रूपवाली थी, जिसका नाम था धन्ना ।
एक समय महावीर भगवान कोष्टक वनमें पधारे। उन्हें वंदना करने जैसे आनंद गये थे वैसे सुरादेव गाथापति भी गया । भगवानको वंदना नमस्कार कर धर्मकथा सुन आनंदकी affar as धर्म अंगीकार किया और घर आकर पौषध आदि धर्मक्रिया करने लगा ।
एक समय सुगदेव पैशाला में पापघ कर बैठा था । इतनेही आधी शतके समय एक देवता कमलसी उज्वल विजलीमी चमकती हुई तलवार हाथमें लेकर उसके सामने आ कहने लगा- " हे सुगदेव श्रावक ! अमार्थित मरणको चाहने वाले ! बुरी पर्यायोंके स्वामी ! यदि तू इस तो नहीं तोड़ेगा तो तेरे बेटेको घरसे लाकर तेरे सामने
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(११८)
मारुंगा। पांच शूला कर कढाइमें तल उसका लोही और मांस तेरे शरीरपर छीटूंगा ! जिससे तू तीव्र वेदना भोगकर आतंध्यान और रौद्रध्यानसे मरेगा"। ऐसा कहने पर श्रावक नतोडरा और नधर्मसे चलित हुआ।देवताने दोबारतीनचार कहा, परन्तु श्रावक तो डरे ही नहीं। इससे देवने कुपित होकर श्रावकके बडे लडकेको पकड लाने बाद उसीके सामने मार डाला । उसके पांच शुले किये, कहाइमें तला और उसका रक्त मांस श्रावकके अंगपर छींटा। इससे उसे बड़ी भारी वेदना हुई, परन्तु डरा नहीं, न दुःखी हुआ, न बोला मत्युत धर्मध्यानमें विशेष निमग्न हो गया। अतः एव देवनाने विचले
और छोटे पुत्रका भी यह ही हाल किया और उनके लोही मांस भी वैसे ही श्रावकपर छींटा; तथापि श्रावक न तो डरा और नहीं धर्मसे चलित हुआ।
चोथी दफा देवने कहा कि,-" अहो मुरादेव श्रारक ! यदि तू इस व्रतको न छोटेगा तो तेरे शरीरमें १ श्वास २ कांसं ३ दाह ४ ज्वर ५ कुक्षी ६ शूल ७ भगंदर ८ अर्श ९ अंजीर्ण १० दृष्टिदुःख ११ गुह्यशूल १२ कर्णशूल १३ उदरवेदना १४ लिंगल १५ मस्तकशूल १६ कोह यह सोलह रोग प्रगट करदूंगा । अतःएव तू महा वेदना भोग कर अकाल मोतसे मरेगा। इस प्रकार उसने एकवार, दुबारा, तिवारा कहा । इस पर मुरादेव श्रावकने मनमें सोचा कि-'यह पुरुष महा अनार्य मतिका धनी है । इसने मेरे तीन बच्चाको लाकर मेरे साम्हने मारा और उनके लोही मांससे मेरे शरीरको छीट दिया। इतनेसे बस न कर मेरे शरीरमें सोलह रोग प्रकट करनेको कहता है, यह ठीक नहीं है। इस दुष्टको
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(११९)
पाडूं।"यों सोचकर ज्यांही उसे पकडनेको जाने लगा कि देवताने आकाश मार्गसे चलदिया। मुरादेव थंमा पकड कर हा हू करने लगा। यह सुन कर उसकी स्त्री धन्ना उसके पास आई और कहने लगी--'अभी हा ह क्यों कि ?' सुरादेवने कहा-"जाने अभी कोई मनुष्य सुझ पर गुस्से होकर एक विजली कीसी चमकती हुई तलवार अपने हाथमें ले मेरे सामने आफर कहने लगा कि-'हे सुरादेव! यदितू इस व्रतको न छोडेगा तो तेरे तीनों बच्चाको तेरे सामने इस तलवारसे मारंगा और पांच शुला कर उन्हें कढाइमें तल उनके लोही मांससे तुझे छींटंगा, और उसने किया भी ऐसा ही, परन्तु मैं न डरा । अन्तमें मेरे शरीरंगे सोलह रोग प्रकट करनेको कहा। और तीन बार कहा । इससे मैं उस दुष्ट पुरुषको पकडने चला तो उसने आकाशमें चल दिया और मैं इस थंभेसे लिपट रहा।
धन्ना बोली-“अपने तीने बालक मौजूद हैं । तुम्हें कोई देव उपसर्ग देनेको आया होगा । उसने तुम्हारे व्रत पचखाण भंग किये। इस लिये यही मन, वचन और कायासे आलोचना कर मायश्चित लीजिये।
तब उस श्रावकने वहीं पर आलोचना कर मायश्चित्त लिया।
फिर सुरादेव श्रावक अणसण कर सुधर्म देवलोकमें अरुणकांत नामा विमानमें चार पल्योपमकी स्थितिसे उत्पन्न हुआ। वहांसे महाविदेह क्षेत्रमें अवतार ले मोक्ष पावेगा।
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(१३०)
सार. कामदेवने पूर्ण दृढता रक्खी। चुलणीपियाने मातृप्रेम जैसे सद्गुणको अयोग्य समयमें बीचमें डाल तन्मयता गँवाइ और इस सुरादेवने शारीरिक पीडा (बाधा)के भयसे ( केवल स्वार्थसे) ध्यान खोया। आगे एक अध्ययनमें लक्ष्मीक मोहसे ध्यान भंग करने का.भी दृष्टान्त आवेगा।
ध्यानसे विचलित होने के ऐसे विविध कारण बताकर छठे अध्ययनमें सच्चे भक्तजनकी भगवानकं वचनमें कैसी अडग श्रद्धा होती है इसका दृष्टान्त देंगे। ___ इन सब कारणांसे ज्ञात होकर आत्मार्थी पुरुपको अपने प्रयासमें विशेष.सावधान होना चाहिये। ..
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अध्ययन ५ वां-चूलशतक गाथापति.
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उस काल उस समय में आलंभिका नाम नगरी थी। जीतशत्रु राजा राज्य करता था । चूलशतक वहां गाथापति था । छकोटि सुवर्ण भूमिमें गडा था । छ कोटिसे व्यापार चलता था और छकोटिका सामान था । छ गोकुलका स्वामी था । एक गोकुलमें दस हजार गायें थी । उसके खीका नाम था बहुला
एक समय भगवान श्री महावीर स्वामी शंख, उद्यानमें पधारे। उन्हें वन्दना करने आनन्द श्रावककी भाँति चूलशतक भी गये । भगवानको वन्दना नमस्कार कर धर्मकथा सुनी । आनंदकी तरह श्रावक धर्म अंगिकार किया । घर आये पौषधशालामें पोषध किया ।
एक समय चूलशतक श्रावक शाला free कर बैठे हैं । इतनेही आधीरातके समय एक देव आया । उसके हाथमें कमलसी उज्वल बिजली सी चमकती हुई तलवार थी । वह तलवार दिखाकर श्रावक से कहने लगा कि - 'हे चूलशतक श्रावक ! अप्रार्थित मरणके चाहनेवाले ! यदि तू यह व्रतको न छोडेगा तो तेरे तीनों बच्चाको लाकर तेरे सामने मारुंगा' | ( चुलणीपियाकी तरह सब हाल जानना । फरक इतनाही है कि यहां एक एक बच्चेकी सात सात शुलाकी बात हुई ) |
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( १२२ )
ये कह कर अनुक्रमसे तीनों बच्चाको लाकर उसके सामने मार सात सात शूळेकर कढाईमें तला और उनका लोही मांस इसके शरीर पर छींटा । तो भी चूलशतक श्रावक धर्मसे नहीं डिगे । चोथी बार देव बोला- “हे चूलशतक श्रावक ! यदि तू इस व्रतको नहीं छोड़ेगा तो मैं तेरे सारे द्रव्यको अर्थात भूमिमें गड़ी हुई और लगी हुई तथा व्यपार सजावट शोभित १८ ही करोड सुवर्णकी लक्ष्मीको आलमका नगरीकी गली २ में विखेर दूंगा । अतः एव तु आर्त - रौद्र ध्यानमें मर जायगा " । इस प्रकार उसने तीन दफा कहा । इतनेमें चूलशतक मनमें सोचने लगा कि " यह पुरुष महा अनार्य मतिका धनी है । इसने मेरे तीनों बच्चाको तो मेरे सामने मारा और उनका लोही मांस तल मेरे शरीर पे छींटा तथा अब मेरी सारी लक्ष्मीको आलंभिका नगरीमें बिखेर देने का कह रहा है । यह ठीक नहीं। पकडूं इस दुष्टको ।" ये सोच कर जो पकडनेको चला तो देवता आकाशमें उड गया और चलशतक थंभा पकड कर कोलाहल करने लगा । हा हृ सुन कर उसकी स्त्री उसके पास आई और कहने लगी कि " अभी आपने जोरसे हा हृ कैसे की ?" । चलशतकने कहाः “ जाने कोई आदमी आया और उसने मेरे तीनों बच्चाको मेरे सामने मार कढाईमें तला और उसने उनके खूनसे मेरे शरीरको छींटा | ( सारा हाल सुरादेवकी तरह जानना ।) फिर मेरी सारी संपत्ति आलंभिका नगरीमें बिखेर देनेका कहा; अतः एव उस दुष्टको मैं पकडने गया तो उसने आकाश मार्गसे चल दिया और मैं इस थंभे से लिपट पडा" ।
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बहुला. बोली:--' अपने तीने बालक मौजूद हैं । तुम्हें
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उपसर्ग देनेको कोइ देवता आया होगा । उसने आपके व्रत पच्चखाणोंका भंग किया । अतएव यहीं, मन, वचन और काया से आलोचना कर प्रायश्चित्त कर लीजीये"
श्रावकने वहीं आलोचना कर मायश्चित लिया।
चूलशतक अणसण कर सुधर्म देवलोकमें अरुणसिद्ध विमानमें उपजा । वहांपर चार पल्योपमकी स्थिति कर महाविदेह क्षेत्रमें उपज मोक्ष पावेगा.
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अमूल्य पापध व्रतको अंगीकार किये पाद रोजगारके विचारमें गोते खानेवाले को भी 'बहुला' जैसी धर्मज्ञ सुपत्नी मिले तो कैसी अच्छी बात हो ? कि जो भूल बता कर पायश्चित दिलवाके दृढधी बना सके। ।
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अध्ययन ६ठा-कुंडकोलिया गाथापति.
उस काल उस समयमें कपिलपुर नामक नगर था। वहां का राजा था जीतशत्रु । इसी नगरमें कुंडकोलिक नामका गाथापति रहता था। उसके छ कोटि सुवर्ण भूमिमें गहा था। छ कोटिसे व्यापार करता था और छ कोटिकी सजावट थी। छ गोकुलका धनी था । एक २ गोकुलमें दस २ हजार गायें थी। इसके स्वीका नाम था पुसा । ___एक समय श्रमण भगवान महावीर सहस्रांव नामक उद्यान में पधारे। उन्हें वन्दना करने को जैसे आनंद श्रावक गये थे वैसे कुंडकोलिक गाथापति भी गया। वहां भगवानको वंदना डर धर्मकथा सुनी। आनंदकी तरह बारह व्रत अंगीकार किया और जीधर होकर आया था उधर होकर ही घर आया। साधु साध्वीको आहार पानी देते हुए और धर्मक्रिया करते हुए विचरने लगा।
एक समय दिनके पिछले पहरमें कुंडकौलिक श्रावक जहां अशोकवाडी थी वहां आया और पृथ्वीशिला नामके पाटपर अपने नामकी मुद्रा और उत्तरीय वस्त्रको रखकर श्रमण भगवान महावीरके पास (जो श्रावक धर्म अंगीकार किया उस मतका) सामायिक व्रत लेकर बैठ गया। उस वक्त एक देवता
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आया। उसके नाम वाली अंगुठी और उत्तरीय वस्त्रको कोपसे शिलापट परसे उठाकर धुंघरु बजाता हुआ आकाशमें खडा रहा तथा कहने लगा:-" हे कुंडकोलिक श्रावक ! गोशाला नामक मंखलीपुत्रके धर्ममें उत्थानादि क्रिया, तप, संयम, चारित्र, वळ, पराक्रम, वीर्यके वीना ही कोंका क्षय हो जाता है और मोक्ष मिल जाता है ऐसा कहा है। श्रमण भगवान महावीर के धर्ममें इनके सिवाय मोक्ष नहीं होता ऐसा कहा है। अतः एव गोशाला नाम मंखलीपुत्रका धर्म श्रेष्ठ-सत्य है। सो तू इसे अंगीकार कर और महावीरके धर्मको झंग मान!" देवकी बात सुन कुंडकोलिकने कहा:-"अहो देव ! तू कहता है कि गौशाला मेखलीपुत्रका धर्म, क्रिया, तप, संयम, आदि के बिना मोक्ष मिले ऐसा उत्तम है और श्रमण भगवान महावीरका धर्म दया, बल, वीर्य और पुरुषार्थ युक्त हैं ठीक नहीं है । तो हे देवताको मिय ! तू ऐसी देवताकी पदवी, ऋद्धि, रुप, और सुख ये सब उत्थानादिक क्रियाएं तप, संयम, बल, तथा पराक्रम विना ही पाया था और किस तरह ? और अब जो जीव उत्थानादि क्रिया तप आदि नहीं करते हैं उनकी मोक्ष होगी या नहीं ?"
कुंडकोलियाकी यह बात सुन कर देवको संदेह हो गया और पीछा कुछ भी उत्तर न दे सका। चुपचाप उस अंगुठीको और उत्तरीय वस्त्रको पीछे पृथ्वी.शिलापट्ट पर रखदिये । तथा जिस दिशासे आया था उसी दिशासे चला गया। '
उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । इसे सुनकर, हर्प: संतोष पा, जैसे कामदेव श्रावक
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(१२६) चंदना करने गया था वैसे ही कुंडकोलिक वन्दना करने गया। धर्मकथा हो चूकनेपर महावीर स्वामी कुंडकोलिकसे कहने लगे--"हे कुंडकोलिक श्रावक ! कल पिछले पहरमें तू अशोकवाडीमें सामायिक लेकर बैठा था। उस समय एक देव तेरे पास प्रकट हुआ और तेरे नामकी अंगुठी और वस्त्रको लेकर पीछा रखकर चल दिया । क्या यह बात सच है ?" कुंडकोलिकने कहा--' हां, महाराज ! सत्य है ।' भगवान महावीर बोले--'धन्य है तुझे । तू कामदेव श्रावककी तरह धर्ममें दृढ रहा। इसके बाद भगवानने बहुत साधु-साध्वीको बुलाकर कहा:-" अहो आर्यो ! कुंडकोलिक गृहस्थी होनेपर भी अन्यतीर्थी और अन्य शासनके देवके भी प्रश्न करने पर न हारा। फिर तुम तो द्वादशांगीके जाननेवाले हो। तुम्हें तो ऐसा होना चाहिये कि अन्यतीर्थीको जीत सको"। सब साधुसाध्वाने उस बातको तहत कहा और विनयपूर्वक प्रशंसा की। यह सुन कर कुंडकोलिया हर्प--संतोपको प्राप्त भया। भगवान महावीरकी उसने प्रदक्षिणा की--वंदना की और जिस दिशासे आया था उस दिशासे होकर घर गया। और महावीर भगवान जनपदमें विहार कर विचरने लगे। ... कुंडकोलियाने १४ वर्ष शीलादि पाले । १५ वर्षमें बडे लडकेको घरका भार दिया, कामदेवकी तरह, और पापधशालामें श्रावककी ११ प्रतिमा स्वीकार की। अन्तमें अणसण करके सुधर्म देवलोकमें अरुणध्वज विमानमें देवता हुआ। वहां चार पल्योपमकी आयु पूरी कर महाविदेह क्षेत्रमें अवतरकर मोक्षमें जायगा।
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अध्ययन ७ वा-सदालपुत्र.
उस काल उस समयमें पोलासपुर नाम नगर था। सहस्रांववन बाग था। जीतशत्रु राजा राज्य करता था। वहां सहालपुत्र कुम्हार रहता था, जो बडा धनवान था ।गोशाला उर्फ मंखलीपुत्रका उपासक था । वे गोशालाके मतमें प्रवीण था और उसमें उसकी हड्डीर रंगी हुई थी । वह अपने धर्मके सिवाय. अन्य सब धर्माको अनर्थ जानता था। एक कोटि सुवर्ण उसके जमीनमें गड़ा हुआ था । एक कोटि सुवर्णसे व्यापार करता था और एककोटिकी घरमें सजावट थी। और उसके एक गोकुल दस हजार गायोंका था । उसके अग्निमित्रा नामा ली थी । पोलासपुरके वहार उसकी ५०० दुकानें थी। उसके बहुतसे नौकर थे। वह नाना भांतिके घडे, मटकीयां, कुंजे, झारीयें और कुडले आदि बर्तन तैयार करता था और राजमार्गपर उसकी दुकान थी, वहां व्यापार करता था।
एक दिवस सहालपुत्र ( गोशालाका श्रावक ) अशोक वाडीमें गोशालाके धर्मकी प्रज्ञप्ति लेकर बैठा था । इतने में उसके पास एक देव प्रकट हुआ और आकाशमैं खडा रहकर धुंघर वजाता हुआ, वस्त्राभूषण पहने हुए, कहने लगा--"हे
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देवानुप्रिय श्रावक ! यहां पर कल प्रातःकालमें एक महापुरुष आवेंगे । वे ज्ञान और दर्शनके धरनेवाले, त्रिकालज्ञ, अरिहंत केवली, सर्वदर्शी, त्रिलोकवासी देव- मनुष्य - असुरादिकको पूजनीक और सर्ववन्ध हैं । तू उनकी त्रिकरण योगसे सेवा करना । उनको पाढीआर, पीढ, फलग, शैय्या, संथारा तथा वस्त्र और पात्र करके निमंत्रण करना" । इस प्रकार तीन बार कहके देवता जिस दिशा से आया था उस दिशा से वापस गया।
दूसरे दिन प्रातःकाल भ्रमण भगवान महावीर चरम तीर्थकर पधारे | उन्हें चन्दना करनेको बारह परिषद् गई । वन्दना पर्युपासना की । इस वातको सुनकर सहालपुत्रने मनमें सोचा कि, गोसालक तो आया नहीं है और ये तो श्रमण भगवान श्री महावीर विचर रहे हैं । इस लिये मैं अभी जाउं । देवने कहा था सो उन्हें जा कर वन्दना करूं, सेवा करूं । यों सोच, शुद्ध हो, सुंदर वस्त्र पहन, बहुत मनुष्य के समुदाय से निकला और पोलासपुर के बीचोंबीच होकर सहस्रांबवन बाग में जहां महावीर स्वामी विराजमान थे गया । उन्हें वन्दना कर पर्युपासना की । भगवान ने सद्दालपुत्र और दारह परिषद् के साम्हने धर्मकथा कही । फिर सहालपुत्र से कहाः " हे सवालपुत्र ! कल पिछले पहर में अशोक वाडीमें खडे रह कर एक देवने तुझसे कहा कि, 'कल एक महापुरुष आयगा उसकी सेवा भक्ति करना' यह बात सच है ?" सद्दालपुत्र बोला:- "हे स्वामिन् सच है । " फिर देवके कहने मुजब सहालपुत्रने महावीर स्वामीको वन्दना कर कहा “है भगवन् ! पोलासपुर नगरकी बाहर मेरी पांचसौ कुम्हारकी दुकानें हैं। वहां पर आप पाढीआर,
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पीह, फलग, शैय्या, संथारा, उपकरण और औषधि जो चाहिए सो लेते विचरना" । ऐसा कहनेसे श्रमण भगवान श्री महावीर सदालपुत्र के ५०० दुकानसे प्राशुक, एपणीक, पाढीभार-पीढ-फलग-शय्या-संथारा-उपकरण-औषधि आदि लेते हुए विचरने लगे। ___एक वक्त मिट्टी के कच्चे वर्तनको दुकान के बाहर धूपमें सूकते हुए देखकर सदालपुत्रसे महावीर स्वामीने पूछा कि" अहो सदालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन कैसे हुए ? " सहालपुत्रने कहा-" हे पूज्य ! यह पहेले मिट्टी थी। उसे पानीसे भिजोया। छोटी मोगरीसे एकत्र करके पिंड बनाया। फिर चाक पर चढाकर हाथसे जैसा चाहा घाट बनायां । " श्रमण भगवान वोले-" अहो 'सदालपुत्र ! ये कबी मिट्टीके वर्तन उत्थान, बल, वीर्य या किसी प्रकारके भी पुरुषार्थ या पराक्रमके बिना ही हो गये ?" सद्दालपुत्र बोला-“हे भगवन् ! उत्थान, बल, वीर्य, पराक्रम या पुरुषार्थ कुछ नहीं है । सब भाव नित्य है।
. इसके बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी सदाल पुत्रसे कहने लगे:" अहो सदालपुत्र श्रावक ! तेरे कच्चे,पक्के वर्तनोंको कोई तेरे सामने ही तोड-फोड दे, छीन ले और तेरी भार्या अग्निमित्राके साथ संसारके सुख भोगे तो तू उसे क्या दंड दे?"। सहालपुत्र बोला-" हे भगवन् । मैं उसे गाली दूं, बांध दूं। और मारूं"। भगवान बोले-'हे सहालपुत्र ! उत्थातादि क्रिया पराक्रम कुछ नहीं है और सब भाव नित्य है। यदि तू यह कहता है तो तेरा अपराध करने
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१३० वाले दंड कैसे देगा ? और इन सब बातेको मत्यक्ष देखना भी
झूठ है क्या ?। इससे सहालपुत्रको ज्ञान हुआ। वह "श्रमए पानकों नमस्कार कर वोला-"मैं कहता हूं कि
आप.स.जो धर्म सुना वोही उत्तम है"। ___ इस के बाद श्रमण भगवानने परिपके वीचमें वही .., भारी धर्मदेशना दी। उसे सुन हर्ष संतोप पा कर आनंद
श्रावककी नाति बारह व्रत अंगीकार कर, भगवानको वंदनानमस्कार कर पोलासपुर नगर के बीचोंबीच होकर घर आया। अपनी स्त्री अग्निमित्राको भी भगवानको वंदना करने जानेकी आज्ञा दी।
स्वामीकी आज्ञाको मान कर अग्निमित्रा स्नान कर मूल्यवान वस्त्राभूषण पहन कर अठारह देशकी दासीयोंको साथ ले कर रथमें बैठे भगवानको वन्दना करने गई । वहां पर न तो भगवानसे बहुत दूर खडी रही, न बहुत पास ही । फिर वन्दना कर धर्मकथा सुन हर्प संतोप पाई। श्रावकके बारह व्रत अंगीकार किये । रथपर बैठ कर जीधर हो कर आईथी उधरसे ही घर पहुंच गई । इसके बाद एक समय महावीर स्वामी सहस्रांच वनसे निकल कर जनपद, देश, नगर, और गामको विहार करने लगे। __ मंखलीपुत्र गोशालेने, सदालपुत्रके, महावीरके पास वारह व्रत अंगीकार करने की बात सुनी। सोचा कि मैं सदालपुत्र के पास जाउं और उसे पीछा मेरा धर्म अंगीकार कराउं।
यों विचार कर संब समुदायको लेकर पोलासपुर आया और 'अपने स्थानको उतरा। वहांपर वस्त्र तथा पात्रादि उपकरणों
को रखकर जहां सद्दालपुत्र था वहां आया। गोशालाको आता
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( १३१ ) .
देख सालपुत्र ने उसे मान नहीं दिया, नमस्कार नहीं किया, सामने देखा भी नहीं और बोला. श्री
गोशालाने आदरसत्कार न हुआ देख करे वाढ, ग, शय्या, संथारा और औषध मिलने की लालच से श्रमण भगवान महावीर के गुण गाता हुआ कहा :- " अहो सद्दालपुत्र श्रावक ! यहां पहले एक महात्मा आये थे ? " । सद्दालपुत्रने कहा - " महामाहण: ( किसी जीवको न मारो ऐसा उपदेश करनेवाले पुरुष ) श्रमण भगवान महावीर पधारे थे । उनको ' महामाहण' कहने का सवध क्या है ? ।” गोशाला बोला- “वे उपनेज्ञान, दर्शन, और चारित्र के धनी हैं। चोट इन्द्रों के पूजनिक हैं । और वन्दनीय हैं। महागोप, महा सार्थवाह, महा धर्मकथा के कहने वाले और महानिर्यामिक ऐसे श्रमण भगवान महावीर हैं । " सद्दालपुत्रने पूछा - " यह किस तरह ? " गोशाला ने कहा - " अहो देवानुप्रिय ! संसार रूप जंगलमें दुःख पाते हुए जीवांकी रक्षा करते हैं वास्ते महागोप हैं। हिंसक जीवेसि भय पाये हुए जीवांको इधर उधर भटकने देकर संसाररूपी वनमें मार्गभ्रष्ट नहीं होने देते, इस लिये महा सार्थवाह हैं । संसारमें चार गतिमें भ्रमण करनेवाले सव जीव सुन सके ऐसी धर्मकथा करते हैं, इस लिये महा धर्मकथा के कहनेवाले हैं । संसारमें बूते हुए जीवको धर्मरूपी नौकामें बिठा कर पार उतारने वाले ह, अतः एव महा नियमिक हैं। " सद्दालपुत्र यह सुन कर बोलने लगा - " मेरे धर्माचार्य ऐसे विज्ञानवंत और समर्थ ही हैं तो तुम उनके साथ वादविवाद मत करना" । गोशालाने कहा - "अहो
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१ पाटीया (Board, Tablet, ) * नियमक - नोका चलाने वाले.
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(१३२) सद्दालपुत्र ! वलवान् , कलावान और चढती वयका जवान पुरुप शूकर, मुरगा, तीतर आदि जानवरेको हाथ पैर, पूंछ, कान जहाँसे पकटेगा वहींसे वे जानवर जीच हो जायगा अर्थात् छूट नहीं सकेगा। वैसे ही महावीर स्वामी जो २ प्रश्न पूछेगे उनका उत्तर मैं नहीं दे सकता । अतः एव में विवाद भी नहीं कर सकता।" सहालपुत्र बोला-" हे देवानुप्रिय । तुमने मेरे धर्मगुरु महावीर स्वामीका गुण कीर्तन किया इस लिये ( धर्मके लिये नहीं )। मैं तुम्हें पाढीआर, पीढ, फलग, शैय्या, संथारा आदिसे निमंत्रण करता हूं। इस लिये मेरी कुम्हारकी दुकानसे उपरकी वस्तुएं लेते हुए विचरो और उपसंपदा लेकर वहां मुखसे विरानो।" ऐसा कहने से गोशाला सदालपुत्रकी दुकानसे उपरकी वस्तुएं लेता हुआ विचरने लगा। परन्तु सदालपुत्र गोशालाके विनीत वचनांसे चलायमान नहीं हुआ। क्षोभित भी नहीं हुआ और न कुछ भी शंकाको प्राप्त हुआ। इससे गोशाला हार कर पोलासपुरमसे निकल कर *जनपद देशमें विहार करने लगा। ____ सद्दालपुत्रको शीलादि व्रत पालते हुए चौदह वर्ष वीत गये । पंदराहवें वर्ष धर्मकी प्रज्ञासि लेकर पैौषधशालामें बैठा था। ऐसे समय मध्य रातमें एक देवता हाथमें कमलसी उजली और बीजलीसी चमकती हुई तलवार लेकर साम्हने आया और चूलणीपियाकी तरह वष्ट देने लगा। एक एक पुत्रके नो नो शूले किये । तीन पुत्रोंको मारा । लोही और मांस सदालपुत्रके उपर छींटा । तथापि सदालपुत्र धर्मसे नहीं
* जनपद-राज्य Kingdom, Country.
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डिगा । इससे वह चौथी वार कहने लगा- “यदि तू इस व्रतको नहीं छोटेगा तो अभी तेरी स्त्री अग्निमित्राको भी मारुंगा और मूले कर उसके रक्तमांस से तेरे शरीरको छींदूंगा । जीससे तू आर्तध्यान, रौद्रध्यान से मरेगा । " यां तीन बार कहा | अतः एव सद्दालपुत्रको चूलणीपियाकी तरह संकल्प उठा । इससे देवको पकड़नेको गया तो देव आकाश मार्गसे रफु चकर हुआ और सद्दालपुत्र थंभे से लिपट गया । यहांसे आगे सारा अधिकार चुलणीपियाकी तरह जानना | इतना विशेष कि मरकर अरुणव्यय नाम विमानमें देवता हुआ । वहां से महाविदेह क्षेत्र में उपज कर मोक्ष जावेगा ।
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अध्ययन ८ वा-महाशतक.
. उस काल उस समयमें राजग्रही नाम नगरी थी। वहां . गुणशील नाम चैत्य था । वहां श्रेणिक राजा राज्य करता था । महाशतक नामका गाथापति था । आठ कोटि सुवर्ण जमीनमें गडाथा । आठ कोटिसे व्यापार होता था और आठ कोटिकी सजावट थी। ८ गोकुलका धनी था। जिसमें ८०००० गायें थी। उसके रेवती आदि लेकर तेरह स्त्रियां थी। उसमें रेवतीके पिहरसे आठ कोटि सुवर्ण और आठ गोकुळ आये थे। और वारह स्त्रियोंके पीहरसे भी एक एक गोकुल और एक एक कोटि सुवर्ण आया था। ___उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर पधारे । उन्हें वन्दना करनेको परिषद् गई। जैसे आनंद श्रावक बन्दना करनेको गये थे वैसे ही महाशतक भी गया। वहां भगवानको वन्दना नमस्कार कर आनंदकी तरह श्रावक धर्म अंगीकार किया। इसमें इतना विशेष कि आठ हिरण्य कोटि भाजन और आठ व्रज गोकुल और रेवती आदि तेरह स्त्रियों के सिवाय मैथुनका त्याग किया।
एक समय गाथापत्नि रेवतीको आधी रातमें ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि मेरे बारह शोके (सहपत्नी) हैं अतएव में
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(१३५) महाशतकके साथ मनुष्य संबंधी उदार भोग नहीं भोग सकती। इससे यदि बारह शोकको अग्निसे, शस्त्रसे या विपसे मार डालूं तो इनका वारह कोटि सुवर्ण और बारह गोकुल मिल 'जाय तथा मैं बडे चैनसे मनुष्य के भोग भोगूं । ऐसा सोच कर शोकका मारने का प्रस्ताव, छछिद्र, समय और एकान्त स्थल आदि ढूंढ़ने लगी । कुछ दिनोंके बाद एकान्त स्थल और मौका मिला। छ शोकको उसने शासे मारी और छको विपसे । उनकी दौलत और गायोंकी मालिक बन बैठी और संसारके भोग भोगने लगी। वहुन प्रकार मांसके शूलादि कर तेलमें तल मदिराके साथ खाती हुई विचरने लगी। इसके थोडे दिनों के बाद श्रेणिक राजाने राजग्रहीमें हिंढोरा पीया कि कोई जीवहिंसा न करे। इससे गाथापत्नी रेवती अपने पीहरसे मिले हुए गोकुलमेंसे रोज दो बछडे मंगवाती और उन्हें मार खाती हुई विचरने लगी। ___ अव महाशतक गाथापति १४ वर्ष पर्यन्त शीलादि व्रत पाल १५ वें वर्ष बडे पुत्रको सब कारभार सुपुर्द कर पौषधशालामें श्रावककी ग्यारह प्रतिमा अंगीकार कर विचरने लगे। एक समय मय मांस खानेवाली रेवती महामइसे उन्मत्त हो कर खुल्ले बाल रख, खुल्ले शिर बडे मोहक श्रृंगार कर पैौषधशालाम महाशतकके पास आई। तथा अंगोपांगसे हावभाव करती कहने लगी-"अहो महाशतक श्रावक ! आप पैौपधको ही धर्मका, पुण्यका, स्वर्गका काम समझकर :मेरे साथ
भोग नहीं भोगवते हो यह ठीक नहीं है ।" इस प्रकार , उसने तीन वार कहा परन्तु श्रावकने उसकी ओर देखा तक
नहीं । आदर सत्कार नहीं दिया। चुपचाप :धर्मध्यान रह
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( १३६.)
विचरने लगा । इससे रेवती हारी और उदास होकर जीधर से आईथी उधरही होकर चल दी और अपने घर गई।
महाशतक श्रावक सूत्रकी विधिसे ११ प्रतिमा पालते विचरने लगे । इससे उसका शरीर लुहारकी बिना पवन भरी धौंकन कासा निर्मात पोला हो गया। एक समय रातमें धर्म जागरिका जागते हुए उन्हें ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि जैसे आनंद श्रावकने सब परिग्रह और चार प्रकार के आहार छोड संधारा किया वैसे मैं भी कल प्रातःकालमें करूं। ऐसा विचार करें उसी के अनुकूल धर्मध्यानमें विचरते हुए, शुभ परिणाम से कर्म क्षय होकर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। इससे पूर्व और दक्षिण दिशामें लवण समुद्र तक हजार योजनका क्षेत्र दिखने लगा | पश्चिम और उत्तर दिशा में चूल हिमवंत और वर्षधर पर्वत तक तथा नीचे रत्नप्रभा नामकी पहली नरकका लोलुचुय नामका पाथst दिखाई देने लगा ।
एक समय रेवती गाथापत्नी उपरकी तरह पौधशालामें जा कर महाशतक श्रावकसे बार २ मोहक वचन कह कर भोगकी वांछा करने लगी । इससे महाशतकको क्रोध आ गया और उसने कहा कि " अरे अमार्थित मरण चाहनेवाली रेवती ! तू अवश्य सात दिन रातके भीतर भीतर अलस रोग से मरेगी और आर्तध्यान द्रिध्यान करती हुई असमाधि मरण पावेगी । रत्नप्रभा नरक में लोलचुप पाथडमें पड चौरासी : हजार वर्ष दुःख भोगेगी । " ऐसे वचन सुन कर रेवती डरी और भाग कर घरको आ गई । इसके बाद सात अहोरातमें वह अलस रोग से आर्तध्यान कर मरी और ८४००० वर्षकी आयु से - रत्नभा नरकके लोलुचिय नाम पाथडमें जा उपनी 1.
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(१३७)
उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर पधारे। उन्हें वन्दना करनेको परिपद् गई । धर्मोपदेश सुन सब पीछे आये । इसके बाद श्रमग भगान महावीरने गौतमसे कहा" हे गोत्तम । इस राजहीमें मेरा अंतेवामी (शिप्य) महाशतक श्रावक है। उसने पापधशालामें अखिरी मरण समयकी संलेखना कर धर्मध्यानमें विचरते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अपनी स्त्री रेवतीक मोहक वचनेसि ऋद्ध होकर उससे कहा कि-'हे रेवती गाथापत्नी ! तू सात अहोरातमें . अलस रोग उत्पन्न होकर मरेगी और रत्नप्रभा नरकमें नायगी।' हे गौत्तम ! श्रमणोपासक श्रावकको अखिरी संलेखनामें सदविद्यमान सच्ची बात होनेपर भी अमनोज्ञ और कठोर वचन कहना योग्य नहीं है । * तुम महाशतकको जा कर कहो कि तुम यहीं आलोचना करो, निन्दो और भायश्चित लो।" इस तरह कहनेसे श्री गौत्तम स्वामी राज
* यहां पर हमें 'नो सलु कप्पइ गोयमा ! समणोपासहस्स अगिही अर्कतहीं अपीएही अमणुनेही वागरणेही “ आदि पटते २ 'मनुस्मृति'का श्लोक याद आता है. पाठक मिला कि अप्पोएहीं से क्या समानता है:
सत्यं यात्प्रियं कुर्यान्न बृयात् सत्यमप्रिय प्रियं च नानत यादेप धर्मः सतातनः ॥
मनुस्मृति अ. ४ श्लोक १३८ सव बोलो और प्रिय बोलो । उस स वको मत कहो जो प्रिय नहीं है । उस प्रियको भी न बोलो जो सच नहीं है। यही सनातन धर्म है। पाठकगण ! शास्त्रका के व वन कैसे एक दूसरे मिलते है यह इस संमलसे कुछ २ ध्यान में आ सकता है । इंढने घालेको ऐसी बहुतसी बातें मिल सकती हैं।
(हिन्दी अनुवादक)
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(१३८)
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गृहीमें होकर महाशतकके पास गये और उपरकी बात कही। महाशतंकने गौतम स्वामीके वचनंको तहत् कर आलोचना की, प्रतिक्रमण किया और प्रायश्चित लिया। पिछे गौत्तमस्वामी भगवान महावीरके पास आये । वन्दना नमस्कार किया, १७ भेदसे संयम व १२ भेदमे तप करते विचरने लगे। इसके बाद भगवान महावीर जनपद देशमै विहार कर विचरने लगे। ... महाशतकने २०. वर्ष तक श्रावक धर्म पाला। ११ पडिमा
को स्पर्श किया । एक मासकी संलेखना कर अपनी आत्माको शोपा ।साठ भन्त आहारका अणसण किया। पापेकी आलोचना की। समाधिवंत हो, कालके वक्त पर काल कर सुधर्म देवलोकमें अरुणावतंसक विमानमें चार पल्योपमकी स्थितिसे देव हुआ। वहाँसे महाविदेह क्षेत्रमें उपज मोक्ष पावेगा।
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अध्ययन १वा-नंदिनीपिय..
उस काल उस समयमं सारथी नाम नगरी थी। वहां पर कोटक नाम बन था । वहाँका राजा था जीतशत्रु और नंदिनीपिय गाधापति था। ४ कोटि नुवर्ण उसके भूमिम गडाया । चार कोटिसे व्यापार चलताथा और चार कोटिका सामान था। ४ गोकुल (४०००० ) गायांका धनी था। उसकी स्त्रीका नाम था:अम्बिनी। .
उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर पंधारे।। उन्हें वन्दना करनेको परिपद गई । नंदिनीपिय गाथापति भी गया | भगवानका उपदेश सुन आनंदकी तरह श्रावकके बारह व्रत अंगीकार कर पीछा लौटा । परिपद् भी पीछी लौटी। इसके बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी जनपद देशमें विहार करते हुए विचरने लगे।
नंदिनीपीय श्रावक धर्म स्वीकार कर जीवदया पालता हुआ विचरने लगा। चौदह वर्ष तक बहुत शीलादि पालें । १५ चे वर्ष बडे पुत्रको घरका काम दिया। धर्मकी उपसंपदा ले २० वर्षकी पर्याय पाली । शुभ ध्यानसे अरुणंग विमानमें देवता होकर उपजा। वहांसे महाविदेह क्षेत्रमें उपज मोक्ष पायेगा।
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अध्ययन १० वा - सालिही पिय.
- उस काल उस समय में सावथ्वी नगीं थी । कोष्टक वन था और जीतशत्रु राजा था । सालिदीपिय था गाथापति | ४ कोटी सुवर्ण उसके भूमिमें गडाथा | चार कोटिसे व्यापार होताथा और चार कोटिकी सजावट । ४०००० गायके चार गोकुलका धनी था । उसकी खीका नाम फाल्गुनी था ।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर पधारे। उनके
पास सालिहीपिय (सालिनी मिय) ने आनंदकी तरह गृहस्थ धर्म
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अंगीकार किया। कामदेवकी तरह वडे पुत्रको घरबारका काम कर उपसंपदा लेकर पापधशालामें महावीर स्वामी चरम तीर्थकरकी धर्म प्रतिज्ञा ले कर बैठा और धर्मध्यानमें विचरने लगा । इतना विशेष कि उपसर्ग रहित श्रावककी ग्यारह प्रतिमा भली भांति परिवहन की । शेष सब कामदेवकी तरह जानना । सुधर्म देवलोक में अरुणकील विमानमें देवता हो कर ४ पल्योपमकी स्थिति से उत्पन्न हुआ। वहां से महाविदेह क्षेत्रमें हो मोक्ष पावेगा ।
दस श्रावकको १५ वर्ष धर्म करनेकी चिंता हुई और Hirani २० वर्ष तक श्रावकका पर्याय पाला। ॐ शान्तिः
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जैन धर्म संबंधी कीताबें- . वाजवी दामसे,
मिलने का पता :- जैनचुकसेलर पोपटलाल मोतीलाल शाह. ठि० सारंगपुर - तळी आकी पोल झुा. अहमदाबाद (गुजरात).
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थोडे दाम से ज्यादा लाभ !
थोडे खर्च ज्ञानदान करनेका विचार हो, तो, 'जैन समाचार' ऑफिस - अहमदाबाद इस पते से सलाह पूछो. उपदेशी कीताच या सूत्रका भाषांतर थोडे खर्चमें बना देगा, जो आपके नामसे जगह जगह विना मूल्य बांटने से आपको बडा ही धर्मलाभ होगा, और (साथ ही साथ) कीर्त्ति भी होगी.
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कोई भी किताब, कुमकुमपत्रिका वगेरा शुद्ध छपाना हो तो
" जैन समाचार' ऑफिस - अहमदाबादको चिठ्ठी लिखो. उनका खुदका छापाखाना चलता है,
जहां हरएक काम शुद्धे, सुंदर व वाजवी 'दामसे होता है.
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Nirvws
"जैनसमाचार
साप्ताहिक - स्वतंत्र अखबार. हर साल १२-१२ अमूल्य किताब बक्षीस देनेवाला
दशवैकालीक, उत्तराध्ययन जैसे सूत्रों मुफतमें १ देनेवाला,जैन धर्म संबंधी देशदेशके खबरें प्रगट
करनेवाला, चतुर्विध संघको स्वतंत्र हित सलाह देनेवाला, निष्पक्षपात और निडरतासे
अभिप्राय देनेवाला एक मात्र जैनसमाचार' अखबार है.
वार्षिक मूल्य रु. ३-०.०
बक्षीसकी कितावेका पोष्ट खर्च रु. १) - वर्षके हरकोई भागमें ग्राहक बन सकते हैं. वार्षिक मूल्य अव्वलसे मनीआर्डरसे भेजनेवालोको ही अखबार भेजा जाता है.
पत्र व्यवहारः वाडीलाल मोतीलाल शाह:
- सम्पादक, नैनसमाचार-अहमदाबाद,
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