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भगवान के नियमको तो देखिये कि उस दादाने मुख्य शिष्य गौतमको भी फरमाया कि "तू जा, अभी जा और आनन्द श्रावकसे क्षमा मांग"। एक श्रावकसे बडाभारी महात्मा क्षमा मांगे ! कैसा निष्पक्षपाती न्याय है ! वर्तमान समयके मेरे श्रावक भाई अपने गुरुकी हठ व आचारभ्रष्टता देखतेही गौत्तमजीका दृष्टांत देकर क्षमा मांगनेकी फरज पाढे तो कैसी भली वात हो! ___ देखिये ! कैसे आश्चर्यकी बात है कि भगवानके मुख्य साधुको जो ज्ञान वांकी दीक्षा होने पर भी ( उस समयतक) नहीं उत्पन्न हुआ वही अवधिज्ञान गृहस्थ आनन्दजीको उत्पन्न हुआ! आजके साधु'चाहे जैसे उत्तमश्रावक याने भावसाधुसें हम उत्तम हैं । इस प्रकारका दावा करते हैं, वे इस रहस्यको अपने हृदयमें विचारें तो उनका खूब भला-कल्याण होगा।
श्री आनन्दजीका चरित्र एक सत्यपर और प्रकाश डालता है। उन्होंने नियम लिया था कि, " साधुपनेको नहीं निभाते ऐसे अरिहंतके साधुको भी मैं नमन नहीं करूंगा। उनकी सेवा भक्ति न करूंगा ! साधु जानकर अन्न-जल- वस्त्र नहीं दूंगा" इन नियमको धारण करनेवाला सख्स भगवानका पक्का श्रावक है। उनके हालको लिखनेवाले शास्त्रकार वास्तवमें माननीय महात्मा हैं। इस प्रकार जिनकी श्रद्धा हो उन सब जैनी भाइयेसे वीतराग प्रथुके नामपर मैं पूछता हूं कि, जीन २ साधुओंको आप वन्दना करते हैं उन सबकी योग्यताका-गुणका आपने कभी विचार किया है ? क्या सब सच्चे साधु हैं ? . यदि शास्त्रकारकी इस बात पर ध्यान दिया जावेतो जैनधर्मके निर्मल झरेमें कचरा भी आ मिला है वे अपने आपदूरहोजावे।