________________
( १०३ )
असा परिसह - दुःख हुआ परन्तु उसे उसने शुद्ध परिणाम व समभाव से सहन किया और मनके अध्यवसायको तिलमात्र भी न डिगने दिया ।
अपना प्रयोग यों खाली गया देखकर उस देवने पिशांच रुपको छोड़कर हाथीका रूप धरा । वे ऐसा था:
चारों पैर, सुंठ, पूंछ और गृहस्थान ये सातों उरके अंग जमीनको स्पर्श करते थे । आगेसे वे उंचा था, और पीछे से शूकरकी समान नीचा था । वकरीके समान लंबी कूख थी । गणपति कासा लंबा पेट था । मालतीके फूल केसे सफेद दांत थे और उसपर सोने की खोली चढी हुईथी । धनुप्यकी तरह संदके अग्रभागको का कर रखा था । कछुवे केसे उसके नख और पैर थे ।
ऐसा भयंकर मदोन्मत्त हाथीका रुप धारण कर मेघ समान गर्जना करता हुआ गम व पवन के वेग से पौषधशालामें कामदेव के पास आया और बोला:" रे कामदेव | यदि तू व्रतको न तोडेगा तो तुझे सुंढसे पकडकर बाहर ले जाउंगा और आकाश उंचा उछल ढुंगा । तथा दांतद्वारा खूब पीडा पहुंचाउँगा । भूमिपर पटक कर तीन चार पैसे दलूंगामलूंगा । इससे तुझे वडी पीडा होगी और तू आर्तध्यान और रौद्रध्यान ध्याता हुआ अकाल मृत्यु पायगा "। परन्तु कामदेव
शरीरके टुकडे २ हो गये; तो भी उन्होंने आर्तध्यान रौद्रध्यान न satarऔर नहीं धर्म पलटा । मिलके वाइलर में गाडा भर कोयले भरने पर भी बॉइलर पर 'ॲस्प्रेस्टोस' नामके पदार्थका टुकडा टाल देते हैं तो उस जाज्वल्यमान आगपर हो कर कोई भी जा सकता है । वैसे ही 'धर्मध्यान' 'एस्बेस्टोस ' है । उसे स्थूल वस्तु और घटना रूपी आगपर रखनेसे मनुष्यको भाधि-व्याधि-उपाधि रुपी जलन नहीं सताती । यह लाभ हा भारी लाभ है ।
4