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(१०८)
सार
कामदेव श्रावकका चरित्र लिखने में शाखकारने 'धर्मध्यान' की खूबी समझाने का आशय रक्खा जान पडता है । मनुष्य किसी समय चिंतामें होता है तब कहा जाता है कि वह आर्त्तध्यानमें है । किसी समय गुस्से में होता है और अन्यकी बुराइ चाहता है, उस समय वह रौद्रध्यानमें कहा जाता है । किसी समय आत्माके विचारमें मग्न होता है— जड और चेतनका विचार करता है, उस समय वह ' धर्म ध्यान ? अथवा ' शुक्ल ध्यान ' में माना जाता है ।
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आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यानमें जब मनुष्य होता है तब ऐसा एक तार हो जाता है कि उसे इस बातकी खबर भी: नहीं रहती कि उसके आसपासमें क्या हो रहा है । रौद्र ध्यान - में चढा हुआ मनुष्य अपनी पत्नीको या बर्डे को तरवार से मारने को तैयार हो जाता है, उस समय में हानि लाभका कुछ भी विचार नहीं रहता । आर्तध्यानमें लगे हुए मनुष्यको भूख प्यासका भी विचार नहीं रहता, इतनाही नहीं परन्तु विष खाते दुःख न मानकर प्रसन्नतापूर्वक आत्मघात करता | इस प्रकार दुयनमें लगे हुए मनुष्यको ध्यानके सिवाय कुछ भी नहीं दिखता । तथापि 'धर्मध्यान' करने वाले मनुष्यों में वहुतही कम ऐसे होते हैं, जिनकी लगन इस तरह लगती हो । दस मिनट काउसग्ग रहेगा तो मेरे पैर दुःखने लगेंगे, पाँच मिनटमें मेरा श्वासोश्वास रुक जायगा और मैं मर जाउंगा, - ऐसे ऐसे भय से धर्मध्यानमें निश्चलं नहीं हो सकता । जब निश्चलता होती है तभी आनंद मिलता है । तभी दुःख स्पर्श
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