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(१३५) महाशतकके साथ मनुष्य संबंधी उदार भोग नहीं भोग सकती। इससे यदि बारह शोकको अग्निसे, शस्त्रसे या विपसे मार डालूं तो इनका वारह कोटि सुवर्ण और बारह गोकुल मिल 'जाय तथा मैं बडे चैनसे मनुष्य के भोग भोगूं । ऐसा सोच कर शोकका मारने का प्रस्ताव, छछिद्र, समय और एकान्त स्थल आदि ढूंढ़ने लगी । कुछ दिनोंके बाद एकान्त स्थल और मौका मिला। छ शोकको उसने शासे मारी और छको विपसे । उनकी दौलत और गायोंकी मालिक बन बैठी और संसारके भोग भोगने लगी। वहुन प्रकार मांसके शूलादि कर तेलमें तल मदिराके साथ खाती हुई विचरने लगी। इसके थोडे दिनों के बाद श्रेणिक राजाने राजग्रहीमें हिंढोरा पीया कि कोई जीवहिंसा न करे। इससे गाथापत्नी रेवती अपने पीहरसे मिले हुए गोकुलमेंसे रोज दो बछडे मंगवाती और उन्हें मार खाती हुई विचरने लगी। ___ अव महाशतक गाथापति १४ वर्ष पर्यन्त शीलादि व्रत पाल १५ वें वर्ष बडे पुत्रको सब कारभार सुपुर्द कर पौषधशालामें श्रावककी ग्यारह प्रतिमा अंगीकार कर विचरने लगे। एक समय मय मांस खानेवाली रेवती महामइसे उन्मत्त हो कर खुल्ले बाल रख, खुल्ले शिर बडे मोहक श्रृंगार कर पैौषधशालाम महाशतकके पास आई। तथा अंगोपांगसे हावभाव करती कहने लगी-"अहो महाशतक श्रावक ! आप पैौपधको ही धर्मका, पुण्यका, स्वर्गका काम समझकर :मेरे साथ
भोग नहीं भोगवते हो यह ठीक नहीं है ।" इस प्रकार , उसने तीन वार कहा परन्तु श्रावकने उसकी ओर देखा तक
नहीं । आदर सत्कार नहीं दिया। चुपचाप :धर्मध्यान रह