Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana Publisher: Padma PrakashanPage 15
________________ प्रागृवक्तव्य श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अपने केवलज्ञान रूपी महासागर में से बहुत से बहुमूल्य रत्न हमें विरासत में दिये हैं, उनमें से सबसे विशाल और अतुलनीय रत्न है'श्री भगवती सूत्र'। मूलत: भगवान द्वारा प्ररूपित बारह अंगों में दृष्टिवाद सबसे विशालतम और गहनतम अंग है पर समय के साथ इसका सम्पूर्ण विच्छेद हो गया। शेष ग्यारह अंगों में से वर्तमान में भगवती सूत्र की सामग्री अधिकाधिक उपलब्ध है। भगवती सूत्र में चर्चित विषय बहुत गहन एवं गम्भीर हैं। इनको समझने के लिए नय, निक्षेप व प्रमाण आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। जैन दर्शन को विशेष रूप से तथा तात्विक दृष्टि से समझने के लिए भगवती सूत्र का अध्ययन-अनुशीलन महत्वपूर्ण है। यह सूत्र जितना विशाल है, उतना ही दुरूह भी है। यह आगम श्रुत ज्ञान का विशाल महासागर है। इसमें द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग-इन चारों अनुयोगों का अद्भुत समन्वय द्रष्टव्य है। वस्तुत: यह जिनवाणी के रहस्यों को समझने और समझाने की कुंजी है। इस सूत्र से सम्बन्धित विषय-सामग्री प्रथम भाग की प्रस्तावना में सविस्तार वर्णित है। अतः यहाँ उसका पुनरावर्तन अपेक्षित नहीं है। प्रथम भाग में इस सूत्र के शतक 1 से 4 तक तथा द्वितीय भाग में शतक 5 से 7 व 8वें शतक के प्रथम उद्देशक तक का वर्णन पूर्व प्रकाशित है। अब तीसरा भाग जिसमें 8वें शतक के दूसरे उद्देशक से 9वें शतक के 34 उद्देशक (9वाँ शतक सम्पूर्ण) व्यवहृत हैं, आप सबके समक्ष प्रस्तुत है। 8वें शतक के प्रारम्भ में दाढ में होने वाले विष अर्थात् आशिविष लब्धि किन-किन जीवों में कितनी क्षमता वाली होती है, इसका विशद वर्णन है। तत्पश्चात् पाँच ज्ञान और जीवों की ज्ञानलब्धि सविस्तार वर्णित है। संख्यात, असंख्यात, अनन्त जीव वाले वृक्ष के भेद तथा कायिकी आदि पाँच क्रिया जीव को कैसे लगती हैं, इसका कथन भी सुन्दर ढंग से विवेचित है। पाँचवें उद्देशक में श्रावक के 12 व्रतों के 49 और 735 भंगों का विस्तृत वर्णन परिलक्षित है। छठे उद्देशक में श्रमणों को आहार दान का फल बताया गया है। सप्तम उद्देशक में 山听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 (7) 5555555555555555555558 9 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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