Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 13
________________ *******************************5 प्रकाशकीय आध्यात्मिक जगत में जैनागम का वैशिष्ट्य सर्वविदित है। जैनागम सर्वजन हिताय है। यह प्राणीमात्र को सत्पथ पर ले जाते हुए सात्विक व आध्यात्मिक जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है। यह परम प्रसन्नता का प्रसंग है कि जैनागम के ग्यारह अंगों में पाँचवें अंगसूत्र' भगवई' (वियाहपण्णत्ति) (व्याख्या प्रज्ञप्ति) का तीसरा खण्ड सचित्र अंग्रेजी - हिन्दी भाषान्तर के साथ आपके हाथों में है । सत्रह वर्ष पूर्व हमने सचित्र हिन्दी एवं अंग्रेजी भावानुवाद के साथ आगमों के प्रकाशन का जो भागीरथी कार्य प्रारम्भ किया था, वह अब अपने लक्ष्य के निकट पहुँचता हुआ दिखाई दे रहा है। यह सचित्र आगममाला का तेईसवाँ पुष्प है। अब तक इसके अन्तर्गत चौबीस सचित्र आगम व कल्पसूत्र प्रकाशित हो चुके हैं। सन् 2005 में भगवती सूत्र का प्रथम भाग ( शतक 1 से 4 तक) और सन् 2006 में द्वितीय भाग (शतक 5 से 7 व 8वें शतक के प्रथम उद्देशक तक) प्रकाशित हुआ था। अब इस तृतीय भाग में शतक 8 के द्वितीय उद्देशक से सम्पूर्ण नवें शतक तक की सामग्री गुम्फित है। अगले तीन भागों में इस विशाल आगम को सचित्र प्रस्तुत कर इसे सम्पूर्ण करने का सार्थक प्रयास रहेगा । परम पूज्य गुरुदेव राष्ट्रसंत भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. सा. के आशीर्वाद और प्रबल प्रेरणा से आगमों के मर्मज्ञ साहित्य सम्राट प्रवर्त्तक श्री अमर मुनि जी म. सा. श्रुत सेवा के इस महान कार्य में अपने सम्पूर्ण मनोयोग से समर्पित हैं। उनके जीवन का लक्ष्य है कि वीर प्रभु की यह पावन वाणी जन-जन तक पहुँचे, इसलिए उन्होंने आगमों के अंग्रेजी अनुवाद और चित्रण का यह अभिनव एवं ऐतिहासिक कार्य सम्यक् श्रम के साथ सुसम्पन्न किया है। अब सर्वत्र इस महत् कार्य की प्रशंसा होने लगी है। जैन साहित्य के इतिहास में सचित्र आगम प्रकाशन का यह प्रथम प्रयास है। सचित्र आगम प्रकाशन के इस कार्य में गुरुदेव के अंतेवासी शिष्य युवा मनीषी आगम रसिक श्री वरुण मुनि जी म. भी समभागी बने हुए हैं। सह-सम्पादक में साहित्यकार श्री संजय सुराना और अंग्रेजी अनुवाद में श्री सुरेन्द्र कुमार जी बोथरा भी अनवरत श्रम कर रहे हैं। चित्रकार श्री त्रिलोक शर्मा का सहयोग भी स्मरणीय है। अनेक उदारमना गुरुभक्तों ने सदा की भाँति ही अपने परिश्रम से अर्जित अर्थ का बहुत ही श्रद्धापूर्वक समर्पण कर जिनवाणी के प्रति अनुराग और गुरुभक्ति का जो प्रदर्शन किया है, वह वस्तुतः श्लाघनीय व अनुकरणीय है। हम ऐसे जिनवाणी भक्तों के प्रति सद्भावना व्यक्त करते हैं। Jain Education International (5) 555555555 - महेन्द्रकुमार जैन अध्यक्ष : पद्म प्रकाशन, दिल्ली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 664