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जीवन परिचय ]
[ ५१ इस प्रकार आचार्य प्रमतचन्द्र ने लौकिक रिसर से भिन अलौकिक परिवार का परिचय कराया है। इस अलौकिक परिवार में आत्मा ही सब कुछ है, वहीं पिता है, माता है, पत्नी है, पुत्र तथा बन्धुवर्ग आदि भी बहीं है । भेदज्ञानज्योति सम्पन्न आत्मा सदाकाल अपने लिए परद्रव्यों से भिन्न अकेला ही अनुभव करता है। अमृतचन्द्र ने भी इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि आत्म तत्व का समस्त द्रव्यों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।" आत्मा भूतकाल तथा बर्तमानकाल में सर्वथा अकेला था एवं प्रोला है। भूतकाल में पौद्गलिक कर्मबन्धन रूप उपाधि की सन्निधि से मलिनभाव रूप से मेरा परिणमन होना था। जिस प्रकार स्फटिकमणि जपाकुसुम की सन्निधि में मलिन परिणमन करता है, उसा प्रकार अज्ञानदशा में मेरा आत्मा मलिन होता है, मलिन था, उस समय भी श्रात्मा अकेला था। अकेला कर्ता था, क्योंकि अकेला ही उपरक्त (मलिन) चैतन्यस्वभाव रूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण मात्मा से प्राप्य था । अकेला ही सुख-विपरीत लक्षण बाला दुःखरूाकर्मफल था। वह भी मलिन चैतन्य स्वभाव से ही उत्पन्न किया जाता था। अब वर्तमान में कमोपाधि की निकटता का नाश होने से मुविशुद्ध सहज स्वपरणति प्रगट हुई ... "अभी भी आत्मा का कोई भी नहीं है। आत्मा अकेला ही कर्ता, कर्म, करण आदि है। इस तरह बन्धमार्ग तथा मोक्षमार्ग में प्रात्मा अकेला ही है। इस तरह स्व में निजत्व तथा पर से भिन्नत्व निश्चित करते हुए आचार्य अमृत चन्द्र "शरीर-मन तथा वाणी
१. "नास्ति सोऽपि सम्बन्धाः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः" रामयसार करनश २००. प. १७१ २. यदा नामानादि प्रसिद्ध पौद्गलिंक कर्मबन्धनोपानि निश्त्रि प्रधावितोपरांगरं
जितात्मबत्तिजपापुष्ण मंनिधिप्रधावतोपराम रंजितात्मयत्तिः स्फटिकमाणरिव परारोपित विकारोऽहमागम । मंसारी नदापि न नाम मम वोग्यासीत । तदाप्प हमेक एबोपरक चिरस्वभावेन स्वतन्य काहि । अहमेक एवोपरक्त विस्वभाबेन गाधकतमः कारगणमासम। ग्रहमक एकोपरक्त चितारिशमन स्वभावेनात्मना प्रायः कर्मामम् । अहह्मक एव चोपरक्त चित्रगमन स्त्रमावस्य निष्पाद्य सौख्यं विपर्यस्तलक्षण दुखाख्यं क्रम पलमासम् ।
प्रवचनगार गाथा १२६ रोका, पृष्ठ २०५-२०६ ३. इदानीमपि न नाम मय कोप्यस्ति, इदानीमप्य हमेव एवं सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तास्मि " कारगास्मि""कर्मास्मि ।
प्रवचनसार गाथा १२६ टीका, पृष्ट २०६