Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 526
________________ - - - - -- - - - - - - धार्मिक विचार ] [ ४६५ भय, मथुन, परिग्रह आदि से संयुक्त होते हैं, गृहस्थों की विवाह विधि आदि मिलाते हैं वे मुनि कुभोगभूमि में कुमानुष बनते हैं । अतः प्राचार्य मल्लिपेण न तो स्पष्ट लिखा है कि है मुनि । क्या इन वस्त्रों के त्यागने मात्र से मुनि हो जाता है ? क्या कांचली छोड़ने मात्र से सर्प निविष हो जाता है ? अर्थात् कदापि नहीं होता । तप का मूल तो उत्तम क्षमा, इन्द्रियों पर विजय पाना, सत्यवचन बोलना तथा शुद्ध आचरण पालना है। यदि हृदय में रागादि को ही बढ़ाया अर्थात धन-धान्य, सबारी, चेले, महल, वस्त्राभूषशादि परिग्रह की चाह न मिटी तो मुनिमुद्रा नग्नता) भेष मात्र ठहरी, ग्रतः मुनि को सर्वप्रथम अंतरंग मिथ्यात्वादि परिग्रह का त्यागी होना योग्य है ।' पशून्य, हास्य, ईर्ष्या, माया आदि की बहुलता युक्त श्रमणपने (नग्नपने) से क्या साध्य है । वह तो एकमात्र अपयश का पात्र है। अन्य निषिद्ध कार्य : मुनि को स्वच्छन्द तथा एकल बिहारी होना इस काल में वजित है। उसे दुर्जन, लौकिकजन, तरुणजन, स्त्री, पुश्चली, नपुसक, पशु प्रादि की संगति वर्जित है। मुनि को प्रायिका से ७ हाथ दूर रहना चाहिए। पार्श्वस्थ आदि नष्ट मुनियों की संगति नहीं करना चाहिए। जिनलिंग धारण कर नाचना, गाना, बाजा बजाना, अभिमान करना, कलह विवाद करना, महिला वर्ग में राग करना, दूसरे के दोष निकालना, गृहस्थों तथा शिष्यों पर सतह करना, स्त्रियों में विश्वास करके उन्हें दर्शन, झान, चारित्र प्रदान करना ये सभी पार्श्वस्थ आदि भ्रष्ट मुनि के कार्य हैं । इनसे मनि तियंग्योनि तथा नरकगति का पात्र होता है। जो पांच प्रकार के पावस्थ, कुशील, संसक्त, अपगतसंज्ञ, तथा मृगचारी मुनि कहे हैं. वे बन्दना प्रशंसा, सगति करने के योग्य नहीं है। इनको शास्त्रादिक विद्या - - - १. त्रिलोकसार गाया ६२६ २. सजनविल्ल भ पद्य नं. ३. पृ. ६. ३. ष्टपाहुड़ (भावपाहड़) गाथा मान । ४. जे मि, कोश, ४:४० ६. ५. वहीं, ४ ४०६. ४०७ ६. वही, पृ ४.४०६

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