Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 540
________________ उपसंहार | | ५०६ प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार में द्रव्य स्वरूप का विश्लेषण करते हुए आचार्य प्रमृतचन्द्र ने जो तिर्यय और उर्ध्वप्रचय का निरूपण किया है | वह उनकी एक ऐसी देन है जो उनसे पूर्व के साहित्य में नहीं पाई जाती । साथ ही उन्होंने कालद्रव्य को अनुरूप सिद्ध करने में जो उपपत्ति दी है, वह उनके जैन तत्त्वज्ञानविषयक अपूर्व पाण्डित्य की परिचायक है तथा अध्यात्मवाद के लिए अमूल्य योगदान भी है । ३. वर्तमान युग के लिए उनकी देन : अध्यात्म का लोक में ग्रध्यात्म के नाम पर अनेक विचारधारायें प्रचलित हैं । इनमें किसी का ध्यान ब्रह्माद्वैत की प्ररूपणा करने वाले साहित्य की ओर जाता है और बहुतों का ध्यान उपनिषदों की ओर मुड़ता है, परन्तु वे वहां भी अध्यात्म के रहस्य को रहस्यमयी ही पाते हैं । मर्म स्पष्ट अनुभव न होने से उसके सम्पक् परिज्ञान, श्रद्धान तथा श्राचरण से वंचित ही रहना पड़ता है उसका अनुसरण ग्रात्मकल्याण में साधक नहीं बन पाता है । इन सभी समस्याओं का हल न हो पाना साहित्यिक क्षेत्र की एक बहुत बड़ी कमी थी। उक्त कमी को प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत गाथाबद्ध साहित्य रचकर दूर करने की सफल कोशिश की किन्तु 1 कालान्तर में कुन्दकुन्द द्वारा निरूपति अध्यात्मधारा का वृद्धिगत अर्थहीन क्रियाकाण्ड के घटाटोप में, लोप मा हो गया था। उसे पुनर्प्रवाहित करने, कुन्दकुन्द के सूत्रों का मर्मोद्घाटन करने और जगत् को सच्ची शांति व विनाशी सुख का मार्गप्रदर्शन करने में बाचार्य अमुतचन्द्र की कृतियां + पूर्णतः सफल हुई हैं। उनके द्वारा प्रवाहित अध्यात्मगंगा चिरकाल तक श्रात्महितंबीजनों को प्रेरणा एवं शांतिदायिनी बनी रहेगी । यही उनकी वर्तमान युग को अनुपम देन है । उन्होंने भारतीय वार्मिक संस्कृत वाङ्मय को न केवल अपनी अमूल्य कृतियों की भेंट ही प्रदान की है श्रपितु उसे भलीभांति प्रौढ़ता और प्रगति भी प्रदान की है। साथ ही उसे विकसित एवं सुसमृद्ध भी किया है । वर्तमान में समग्र भारत एवं विदेशों में प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की परम आध्यात्मिक कृतियों का समादर हुआ है। उनकी कृतियाँ ताड़पत्रों, कागजों तथा कपड़ों पर सैकड़ों वर्षों मे सुरक्षित हैं। अध्याय चतुर्थ में प्रदत्त सूचियाँ इस बात की प्रबल प्रमाण हैं कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के बाद १ जैसा का इतिहास ४ ११४४ पृ. ३३२

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