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| आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
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न मानना ), वध परीषद् ( किसी द्वारा सताये मारे जाने के दुःख सहन करना), निषधा परीषद् (कंचन कांच महल श्मशान में उपसर्ग में वयं धारण करना) तथा स्त्रीसंग परित्याग रूप स्त्री परीषद् । इन २२ परीषहों को मुनिराज धारण करते हैं ।"
आचार्य अमृतचन्द्र ने मुनियों के प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान तथा सकल कर्म सन्यास विधि का विस्तृत गम्भीर, स्पष्ट तथा प्रायोगिक वर्णन प्रस्तुत किया है।
मुनि के निषिद्ध कार्य :
ज्योतिष मन्त्र तन्त्रादि का निषेध :- आचार्य अमृतचन्द्र ने जहां तहां मुनि पद के अयोग्य कार्यों का संकेत तथा निषेध किया है । वे लिखते है कि परम निर्ग्रन्थता रूप प्रवृज्या की प्रतिज्ञा लेकर संयम तपादि के भार को वहन करने पर भी यदि मुनि मोह की बहुलता के कारण शुद्ध चैतन्य ग्रात्मा के व्यवहार को छोड़कर निरन्तर मनुष्य व्यवहार के चक्कर में पड़कर लौकिक कार्यों से निवृत्त नहीं होता तो वह लौकिक श्रमण है। मोक्षमार्गी श्रमण नहीं है । * श्रमण तो शुद्ध आत्मतत्व में परिणत होने तथा कषाय रहित होने से वर्तमानकाल में मनुष्यत्व होने पर भी स्वयं समस्त मनुष्य व्यवहार से रहित (बहिर्भुत) निस्पृह होता है ।" उसकी प्रवृत्ति प्रलौकिक होती है । प्राचार्य जयसेन ने लौकिक कार्यों में निश्चय व्यवहार रत्नत्रय के नाश करने वाले, अपनी प्रसिद्धि, बड़ाई व लाभ यादि के कारणभूत ज्योतिष मन्त्र-तन्त्र, वैद्यक तथा गृहस्थों के जीवन के उपाय रूप कार्यों को परिगणित किया है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवती ने तो स्पष्ट लिखा है कि जो जिनलिंग ( मुनिपना) धारणकर कष्ट करते हैं, ज्योतिष, मन्त्र तन्त्र वैद्यक यदि कार्य करते हैं, घन चाहते हैं, यश, सुख, ऋद्धि आदि चाहते हैं. ग्राहार,
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पु. सि २०७ २०८
आत्मख्याति गु. ५२३ से ५३५ तक
जै. सि. कोप भाग ४
पृ. ४०६
प्रवचनसार गाधा २६६ की दोका ।
मही गया २२६ की टोका सि.नं. १६
प्रवचनसार गा. २६६ (टीका जयसेन )