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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
धारण करता है। साथ ही परमार्थस्वरूप को प्रगटकर, सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणति अपनी आत्मा की सीमा में प्रवृत्त होती है । इस आत्मा की सीमा में प्रवृत्त होना ही अध्यात्म का रस है, जिसके रसिक आचार्य अमृतचन्द्र हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र ने अध्यात्म की गंगा प्रवाहित की है। उनकी आध्यात्मिक टीकाएं एवं मौलिक कृतियां परवर्ती लेखकों, विद्वानों तथा मुमुक्षुओं कों अध्यात्म की ओर आकृष्ट करने में सफल हुई हैं। यदि आचार्य कुन्दकुन्द के आध्यात्मिक वाङमय पर आचार्य अमृतचन्द्र ने परम आध्यात्मिक, गम्भीर तथा प्रौढ़ टीकाए न रची होतो, तो अध्यात्म गंगा का प्रवाह अब तक अवरुद्ध अथवा लुप्तप्रायः हो गया होता, परन्तु आज एक हजार वर्ष के बाद भी अमृतरस भरी अमरकृतियाँ अध्यात्मसरिता के अजस्र स्रोत के रूप में विद्यमान हैं तथा अगणित भव्यात्माओं को कल्याण पथ पर अग्रसर करती हैं। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित एवं अनुप्राणित लेखकों की तालिका देखने पर ज्ञात होता है कि आचार्य अमृतचन्द्र की अध्यात्म रसिकता अध्यात्मजगत् को दिनकर सदृश प्रकाशदायिनी, चन्द्रमा की चांदनी सदृश शांतिदायिनी, तथा कषाय संतप्त जगत् को सुरसरिवत् शीतलता प्रदायनी है।
उनकी अध्यात्म रसिकता का एक सबसे बड़ा प्रमाण यह भी है कि जिन-जिन कृतियों तथा भाष्यों की रचना उनके द्वारा हई, उन सभी के अन्त में अमतचन्द्र ने अपने कर्तापने का निषेध किया तथा कर्तव के समस्त मोहजन्य विकल्पों से परे निर्विकल्प समाधिरूप निजस्वरूप में लीनता के प्रानन्द को ही अभिव्यक्त किया। उन्होंने स्वयं को ग्रन्थकर्ता या व्याख्याता अमृतचन्द्र न लिखकर "स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र" लिखा है जो उनकी अध्यात्म रस की मस्ती को प्रगट करता है। तीन लोक तीन काल में जगत् के समस्त पदार्थों में निजशुद्धात्मा से श्रेष्ठ अन्य कोई पदार्थ नहीं है न खलु समयसारादत्तरं किंचिदस्ति" ऐसा उनका वचन था । वे यहाँ तक लिखते हैं कि अधिक बात करने (विकल्पों) से अब बस होओ अर्थात् अधिक चर्चा बन्द करो, नाना प्रकार के विकल्पों को भी
१. समयसार कलश, ३१ २. प्रारम ख्याति कलश टीका, तत्त्वप्रदीपिका टीका तथा समयच्याख्या टीका के
अंतिम पद्य-- "स्वरूप गुप्तस्य न हि किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।"