Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 469
________________ ४३८ । । प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व बात प्रसिद्ध एवं रूह है कि कुम्भार घड़े का कर्ता है।' व्यवहार नय को हेय निरूपित करने तथा मानने से समस्त प्रकार के लोक व्यवहार का लोप हो जायेगा। आगम में ष्ट घोषणा है कि यदि लोक व्यवहार का लोप होता है तो होने दो, इस में हमारी क्या हानि है, क्योंकि लोक व्यवहार तो वास्तव में नय नहीं है, नयाभास है। उक्त लोकव्यवहार तो मिथ्याही है साथ ही ग्रात्मा के अनर्थ का कारण है यथा - मैं परजीवों को दुस्त्री करता हूँ. सुखी करता हूँ, बंधाता हूँ. छड़ाता हूँ इत्यादि सभी अध्यवसान रूप व्यवहार, परभाव का, पर में व्यापार न होने के कारण अपनी अर्थ क्रिया करने वाला नहीं है। अतः ''मैं प्राकाश कुसुम को तोड़ता हूं" मानने की भांति उक्त अध्यवसान मिथ्या है. मान अप ग्रात्मा के। अनर्थ के लिए ही है। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र सापट शब्दों में निश्चय व्यवहार के निरूपण का सार प्रस्तुत करते हैं कि यहां यही तात्पर्य है कि शद्धनय (निश्चयनय) त्यागने पोग्य नहीं है, क्योंकि उसके अन्याग से बन्ध नहीं होता है तथा त्याग से बंध होता है। साथ ही व्यवहार नय को त्याज्य बताने का कारण यह है कि वह स्वयं ही मिथ्या उपदेश अर्थात् जैसा वस्तुस्वरूप नहीं है वैसा कथन करता है इसलिए वह निषेध करने या त्यागने योग्य है, परन्तु जो प्रात्मा व्यवहार नय के विषय पर दृष्टि रखता है, वह मिथ्याडष्टि माना गया है। अतः न्यायवल स बह बात सिद्ध १. कुनालः कश करोगनुभनन नि नोमानामानात निसाबरयया । समयमार न. ४ की का. २. अथ घटना यो पटका: जनपदोनिलेशोऽमग ! दोरो भवन नया का नो हानिम्रता नामानः ।। पंचाध्यायी, प्रथम अध्याय, पद्य ५७६. ३. पराग जीया पयामि मुखयामीन्यादि बंधयामि मोयामीत्यादि वा यदेल पयसानं नमकमपि प मालम्य परस्मिन्नव्या प्रियमा गारवेग स्वार्थविनाकरित्याभावान् कुसम लुनामीत्यवमान बनिया कवनमात्मना. ऽनर्धायैव । समयसार मा. २६६ की टोका) इए पंधनात्र तात्पर्य हेय: अनमो न हि । नास्ति बंधातदत्यागार तलागाय एहि ।। (समयसार कला, १२) व्यवहारः किल मिश्या म्पयमपि मिथ्योपदेशकश्च यतः । प्रतिषच्यस्तस्मादिह मियादृष्टिस्ते दर्थस्टिश्च ।। ६२८ पंचाध्यायो, प्रथम अध्याय ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559