Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 522
________________ धार्मिक विचार ] [ ४६१ -- - की दीक्षा विधि का उल्लेख भी सविस्तार किया गया है। जो व्यक्ति श्रमण होना चाहता है, वह सर्वप्रथम विदाई लेता है। १. विधाई क्रिया :-वह बंधुवर्ग से विदा मांगता है तथा गुरुजनों अर्थात् बड़ों से (माता-पिता स्त्री पुत्रादि से) अपने को छुड़ाता है और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरियाचार, तपाचार तथा बीर्याचार इन पंचाचारों को स्वीकार करता है। वह समस्त वाह्य सम्बन्धों को भिन्न जानकर अपने आत्मा को माता-पिता-पुत्र आदि रूप में देखता है ।" २. पंचाचारों का स्वरूप : ज्ञानाचार :- मुनि स्वाध्याय काल बिचारते हैं, अनेक प्रकार विनय आदि करते हैं, शास्त्र भक्ति हेतु दुर्धर उपधान तथा बहुमान करते हैं, उपकार को नहीं भूलते. अर्थ व्यंजन तथा दोनों की शुद्धता में सावधान रहते हैं. यह सभी पाचरण ज्ञानाचार है । वर्शनाचार :- वे प्रनाम, संवेग, अनुकम्पा तथा आस्तिक्य भावनाओं का पालन करते हैं तथा शंका, कांक्षा आदि दोषों को टालते हैं उपगृहन, स्थितिकरण ग्रादि अंगों को पालन करते हैं, इसे ही दर्शनाचार कहते हैं। चारित्राचार :-द पंच महाव्रतों, तीन गुप्तियों का प्रवलम्बन करते हैं तथा ५ समितियों की सावधानी रखते हैं, इसे चारित्राचार कहते हैं । तपाचार :- बारह प्रकार सपों का पालन तपाचार है। वीर्यात्तार :- शुभ क्रिया काण्ड में पूर्ण शक्ति के साथ वर्तन करना वीर्याचार है। इस प्रकार वे पंचाचारों को अंगीकार तो करते हैं परन्तु वे यह जानते हैं कि निश्चय से ये समस्त प्राचार आत्मा के नहीं हैं, पराधित हैं, तथापि शुद्धात्मा की प्राप्ति से पूर्व तक इसे धारण करते हैं । ३. प्रणत तथा अनुगृहीत होने की विधि :-- तत्पश्चात् श्रमण पद का इच्छुक प्रणत तथा अनुगृहीत होता है। वह श्रमण, गुणाढ्य, कूलविशिष्ट, रूप बिशिष्ट, बय विशिष्ट तथा श्रमणों को इष्ट गणी आचार्य) के समीप जाकर शुद्धात्म तत्त्व की उपलब्धि रूप सिद्धि के लिए नाचार्य से प्रार्थना करता है और उनके समक्ष प्रणाम करता है इसे प्रणत विधि १. "यो हि नाम श्रमणों भवितुमिच्छति स पूर्वमेय बन्धुवर्गमापृच्छत, गुरु वालापुत्रेभ्प पात्मानं निमोच यति, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोबी यांचारमासीदति । तथाहि ।" -प्रवचनसार, गायः २०२ की टीका ।

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