Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 487
________________ ४५६ । | प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व होता है तथा अनेकांत के बिना सर्व ही कथन बिरुद्ध हो जाता है ।' यहां तक कि आत्म वस्तू ज्ञानमात्र वाही गई है तथापि वहां भी अनकांत प्रकाशित होता है। स्वयमेव अनेकांत प्रकाशित होने पर भी महन्त में उसके साधनरूप में अनेकांत का उपदेश क्यों दिया है। इसका समाधान यह है कि अज्ञानियों के ज्ञानमात्र वस्तु आत्मा) की प्रसिद्धि करने के लिए उपदेश दिया गया है ऐसा हम कहते हैं। वास्तव में अनेकांत के बिना ज्ञानमात्र अात्म बस्तु ही प्रसिद्ध नहीं हो सकती। इस प्रकार अनेकांत की महत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। अनेकांत तत्व का श्रद्धान करने वाला सम्यक दृष्टि होता है । अनेकांत की मंत्री से चित्त पवित्र होता है । अतः अनेकांत की महिमा स्पष्ट है। प्राचार्य अमृतचन्द्र में यत्र तत्र अनेकांन का स्वरूप भी प्रदर्शित किया है। अनेकांत का स्वरूप : "अनेकान्त' पद का शाब्दिक अर्थ है "अनेक अन्त या धर्मों वाला'। अर्थात प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है अतः अनेकान्त स्वरूप है। अनेक धर्मो में जात्यन्तरभाव पाया जाता है अर्थात् एक धर्म दूसरे धर्म मे भिन्न स्वरूप वाला होता है अतः ववलाकार ने जात्यंतर भाव को ही अनेकांत लिखा है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने तो अनेकान्त का म्वरूप पष्ट करते हर लिखा है कि जो तत है, यही अतत हैं, जो एक है वहीं अनेक है. जो सत् है वही यसत् है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व की उपजाने वाली परम्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है। अनेकांत स्वरूप वस्तु में जो विरुद्ध युगल १. नत्रवतोशकान्तो बलरानिह खल न सर्वथै काम्लः ।। सर्व स्यादविरुद्ध' तत्पूर्व सद्विना विरुद्ध स्यात् ।। --पंचाप्यागो-पूवार्ध पश्च २२७, तथा प्रवरसार गा. २७. टीका। २. आत्मख्याति टीका परिशिष्ट पृ. ५७३. 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा । मू. मा. ३११. ४ सा खल्बनेकान्तमैत्रीपविनितचित्सेषु... (प्रवचनसार गा. २५१ टीका) ५. धवाला, पु. १५, २५. । ___यदेव तल देवातन् प्रदेवक देवानेकं, यव सत्तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तु वस्त्वनिष्णानक परस्पर विरुद्धशतिद्वयश्काशनमनेकातः ।" -आस्मख्याति परिशिष्ट पृ. ५७२.

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