Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 508
________________ दार्शनिक विचार { ४७७ से भी होती है। उन्होंने तो स्पष्ट घोपित किया है कि जीव के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप में परिणमित होते हैं तथा पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव भी परिणमन करता है। जीव, वार्म के गुणों को नहीं करता, उसी तरह कर्म, जीव के गुणों को नहीं क ता. परन्तु परम्पर निमित्त से दोनों के परिणाम जानना चाहिए। इसी कारण ग्रात्मा अपन ही भाव का करता है और पुद्गल-कर्मकृत सभी भावों का कर्ता नहीं है । निश्चय नय का ऐसा मत है कि ग्रात्मा अपने को ही करता है, तथा अपन को ही भोगता है - ऐसा जानना चाहिए । व्यवहार नय का यह कथन है कि आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल वार्मों को करता है तथा उन्हीं अनेक प्रकार के पुद्गल कमों को भोगता है। यहां ध्यान रहे कि व्यबहार नय का कथन अनादिरूढ़ जगत् व्यवहार है, वह कथन यथार्थ नहीं है । यदि व्यवहार नय के कथन को यथार्थ मानकर प्रात्मा को पृदंगल कर्म का कर्ता तथा भोका माना जावे तो आत्मा हिक्रिया में अभिन्न ठहरेगा, किन्तु ऐसा द्विक्रियापना जिनेन्द्र मत सम्मत नहीं है । निमित्त को उपादान की क्रिया का कर्ता मानने में द्विप्रिया वादी मिथ्याइष्टिपना प्रगट होता है। कार्य की सम्पन्नता में निमित्त को दूषण देने का फल : निमित्त को नियामक या कार्य का कर्ता मानने वाले ग्रात्मा में गगादि की उत्पत्ति का कारण कमोदय को मानते हैं अतः वे रागादि की उत्पति में कर्म को दोष देते हैं। परन्तु रागादि की उत्पत्ति में कर्मोदय रूप निमित्तों को दोष देना अज्ञानता है। प्राचार्य अमृतचन्द्र निमित्त को दोष देने का परिणाम घोषित करते हुए लिखते हैं कि जो प्रात्मा रागादि की उत्पत्ति में निमित्त प परद्रध्य !व.मोदय) को दोष लगाते हैं, वे शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान से रहित हैं। तथा ने मोहरूपी नदी को पार नहीं करते है। अर्थात वे मियात्व में ही पड़े रहते हैं 1 यहां यह भी स्पष्ट है कि जिस प्रकार विकारी भाबों की उत्पत्ति में निमित्तों को दूषण देना भल है, उसी प्रकार किसी अन्य कार्य की उत्पत्ति का श्रेय निमित्तों को देना भी भूल ही है, क्योंकि कायोत्पत्ति में बाह्य हा या निमित्त अंकिचित्कर है। इस सन्दर्भ मे पंचाध्यायीकार रपष्ट लिखा है कि भतिज्ञान के समय एक प्रात्मा ही उनका उपादान कारण है। देह, इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषय तो केवल बाह्य कारण हैं इसलिए वें अहत वा समान है १. समयमार गाथा E0 से ८६तका । २. समयसार कनश २२१ ३. पंवाध्यागी, अ. २, पच ३५१.

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