Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 510
________________ दार्शनिक विचार ] [ ४७६ करना श्रेयस्कर है। यहां श्रेयस्कर उपादान कारण पर भी विचार किया जाता है । उपादान - कारण का स्वरूप : जो कारण स्वयं कार्य रूप परिणमे उसे उपादान - कारण कहते हैं । जैसे घट की उत्पत्ति में मिट्टी उपादन कारण है क्योंकि वह घटरूप स्वयं परिणमती है । ' उपादान - कारण को निजशक्ति भी कहते हैं । उपादान - कारण के पर्यायवाची नाम : आगम में उपादान कारण को समर्थ कारण मूल हेतु", अंतरंग साधन, मुख्य हेतु कर्ता" इत्यादि नामों से अभिहित किया गया है । उपादान - कारण के भेद : : · उपादान कारण के मुख्य दो भेद हैं शाश्वत (त्रिकाली) उपादान तथा क्षणिक उपादान | द्रव्य तथा गुण स्वभाव को त्रिकाली उपादान तथा विस्वव को कहते हैं । त्रिकाली उपादान यह बताता है कि कार्य की उत्पत्ति द्रव्य के स्वाश्रय से होती पर से नहीं । पृथक् सत्ताकद्रव्य तो निमित्त मात्र हो सकता है। क्षणिक उपादान के भी दो प्रकार हैं: प्रथम तो अनंतर पूर्वक्षणवर्ती पर्याय रूप उपादान तथा द्वितीय, तत्समय की योग्यता युक्त पर्याय रूप क्षणिक उपादान | इनमें प्रथम प्रकार इस नियम की घोषणा करता है कि अनंतरपूर्वेक्षणवर्ती पर्याय ( अर्थात् कार्यं प्रकट होने से एक समय पूर्व वाली पर्याय का व्यय ही उत्तरक्षणवर्ती पर्याय रूप कार्योत्पत्ति का उपादान कारण है। द्वितीय प्रकार १. ''.. ६. 'S 5. c. जै. सि. प्र. ४० प्रश्नोत्तर - उपादान निजशक्ति है जि को यहीं स्वभाव" (निमित्त उपादान संवाद पद्य नं ३) घरला - १२/४ - जै. सि. को भाग २. २४. वृ. स्वयंभुस्तोत्र - पद्म ६० प्रवचनसार गा. टीका ६५. पंचास्तिकाय गा. टी. मह यः परिणमति सः कर्ता" (स. सा. क., ५१ ) असही-५८ में पद्य की टीका । वागम स्तोष पद्य ५ तथा मष्टसहस्त्रो पृ. ११ - नियतपूर्वक्षणतत्व कारणलक्षणम् । नियतोच रक्षगुवतित्वं कार्यं लक्षणम् ।" (जै. नि. को, भाग २ पु. ५४ . )

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