Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 514
________________ दार्शनिक विचार ] 1 ४८३ करने में पाकुलित रहत वाली अन्य मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की दृष्टि, निज को छोड़कर पर पदार्थों पर जा पड़ो है परन्तु आपकी दृष्टि बलपूर्वक निज महिमा में ही चाला होता है। अन्य सिद्धान्त कर्ता-कर्म और द्रव्य-गुण-पर्याय : ____ जो परिणमन करे सो कर्ता, जो कर्ता का परिणाम तो कर्म, तथा जो कर्ता की परिणलि सो ही क्रिया है । ये तीनों वस्त स्वरूप से भिन्न नहीं हैं 12 प्राचार्य अमृतचन्द ने उपरोक्त परिभाषामों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि कार्य रूप में परिणमन करने वाला द्रव्य वयं ही अपनी उस कार्य रूप पर्याय का कर्ता है। अन्य जमके परिणमन काल में अनुकूल रहने वाले द्रव्य उस पर्याय के निमित्त हो सकते हैं, कर्ती नहीं। कर्ता-कर्म तो व्याप्य. व्यापक के नियम के सदभाव में ही घटित होते हैं। जो पर्याय प्रगटतो है उसे व्याप्य कहते हैं तथा उस पर्याय में जो द्रव्य फलता है, परिणमित होता है वह द्रव्य व्यापक कहलाता है। उदाहरण के लिए मिट्टी रूप कलश पर्याय व्याप्य है तथा उस पर्याय में मिट्टी ही व्यापक है म्हार नहीं, अत: कलश पर्याय कर्म तथा मिट्टी द्रव्य उसका कर्ता है, कुम्हार उसका कर्ता नहीं है। कुम्हार तो कलश रूप कार्य का निमित्त मात्र है। निमिन को भी का कहना जगज्जनों का अनादिरूढ़ व्यवहार है। वास्तव में निमित्त किसी भी कार्य का परमार्थतः कर्ता नहीं होता। इस पर में यह भी फलित होता है कि एक द्रव्य दुमरे द्रव्य का परमार्थतः कर्ता नहीं होता। एक द्रव्य को दूसरे का कर्ता कहना वह व्यवहार कथन मात्र है परन्तु एक द्रव्य को दूसरे का बर्ता मानना वह अज्ञानी व्यवहारी जनों का प्रज्ञान या मोह भाव है। जिस प्रकार एक द्रव्य दूसरे का का नहीं है, उसी प्रकार एक ही द्रव्य में रहने वाले अनेक गुण भी परप्पर में एक-दूसरे के काय पर्याय) के कर्ता नहीं हैं । प्रत्येक गुण प्रपना अपना कार्य करता है. कोई चूण किसी अन्य गुण का कार्य नहीं करता, जमे, ज्ञान गुण १. ल त. स्फोट, अ. १४, पद्य १२. समयसार कलश, ५१ ३. सन यसार मा. १०० तथा १०८ की आ. ख्या, टीका । ४. पही, गा ८४ को दीका । ५. समयार वनश ६२

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