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आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
सिद्धि होती है। इसलिए कोई विरोध नहीं है। जैसे देवदन के पिता, पुत्र, भाई तथा भानजे. इसी प्रकार और भी जन कल्व और जन्यत्व प्रादि के निमित्त से होने वाले सम्बन्ध विरोध को प्राप्त नहीं होते। जब जिस धर्म की प्रधानता होती है, उस समय उसमें वही धर्म माना जाता है। उदाहरण के लिए पुत्र की अपेक्षा वह पिता है प्रौर पिता की अपेक्षा बह पुत्र हैं; आदि। उसी प्रकार द्रव्य भी मामान्य की अपेक्षा नित्य है, और विशेष को अपेक्षा अनिरम है। इसलिए कोई पिराध नहीं है। उपरोक्त प्राचार्य परम्परा का अनुसरण आचार्य अमृतचन्द्र के विचारों में स्प-तः पाया जाता है। एक स्थल पर वे कहते हैं कि यद्यपि अस्ति पक्ष नास्ति पक्ष से बाधित है और नास्ति पक्ष अम्ति पक्ष से बाधित है पर वे दोनों अस्तिनानि पक्ष समता को प्राप्त कर परस्पर मिले हुए। प्रपोजन अथवा पदार्थ की सिद्धि के लिए यत्न करते हैं। सम्पूर्ण जगत् को यद्यपि एक 'सल" शब्द से कहा जा सकता है तथापि वह सत् वास्तव में समस्त वन्तुनों को प्रकट नहीं करता क्योंकि सत् स्वयं ही असत् स्वरूप की अपेक्षा रखता है। अस्ति रूप चैतन्य स्वरूप की प्रतीति - अनुभूति यात्मानुभूति) नास्तिपूर्वक ही होती है । तथा नास्ति रूप परानुभूति (स्वकी) अस्ति की अपेक्षा रखती है क्योंकि जगत् में स्व तथा पर का विभाग पाया जाता है अतः जब शब्दों द्वारा एक पक्ष या विधि पक्ष कहा जाता है तब दूसग पक्ष या निषेध पक्ष शब्दों में छुट जाता है। अम्ति की ध्वनि निषेध को साक्षात स्पर्शतो है तथा नाप्ति की ध्वनि अमित को अपेक्षा रखती है। इसलिए यदि सापेक्ष कथन न किया जाय तो विधि पक्ष द्वारा अपना स्वयं का विधेय प्रगट नहीं किया जा सकता; क्योंकि विधि अर्थ तो पर के निषेध के लिए अभिहित किया जाता है तभी वह स्वयं को प्रकट कर पाता है। इस प्रकार अमृतचन्द्र ने अनेकान्त का स्पष्ट स्वरूप
१. रावार्थसिद्धि अ. ५, मुत्र (ज्ञानपी: १९५५.ई। २. निधिरेष निषेधवा धित: प्रतिषेधी विधिना विरूक्षितः । ज'मयं समतामुपेत्य तयतने मंहितमर्थसिद्धये ।। ७ ]
-लघुतत्वस्फोट | अ १५. ३. लधुतत्वस्फोटः अ. १५ पहा नं. ७,८,९.
ल. न. स्फोट: अ. १७ पद्य १०, १४, १५, १६ सत्य मन स्वार दि भाजि विश्वे किन बाद् विधिनियमादया स शब्दः । प्रब याद्यदि विधिमेव नाति भेदः प्रत्र ते यदि नियम जगत् प्रमिष्टम् ॥१०॥