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। प्राचार्य अमन चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
गाथाओं में पंचास्तिकाय के अवबोध का कालीदुःग्लों में मर्वथा मुक्ति होना लिखा है। समस्त प्रवचन को काल सहित पंचास्तिकाय का प्रतिपादक बताया है, अतः उसे प्रवचन का मार रहा है। अंत में लिखा कि जो जीव पंपास्तिकाय शास्त्र के अर्थभूत शूद्धर्चतन्यवाले निज आत्मा को जानता है,
और उसी के अनुसरण का प्रयास करता है, वह दृष्टिमोह को क्षय करता हुमा सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगटाता है। उसके राग-द्वेष प्रशमित होते हैं । वह पूर्वापर बंध का नाश करता है और स्वस्वरूपस्थ होकर प्रतापवत वर्तता है।
अब पंचास्तिकाय ग्रंथ का द्वितीय श्रुतस्कंध महाधिकार प्रारम्भ होता है। इसमें मोक्षमार्ग का सविस्तार वर्णन है । इसके भी भूमिका सहित नव अंतराधिकार हैं, जो क्रमश: इसप्रकार विषय वस्तु के प्रतिपादक हैं। भूमिका तपा जीवएवार्थ व्याख्यान अधिकार :
प्रथम ही टीकाकार लिखते हैं कि इस शास्त्र के प्रथम श्रुतस्कंध में । बुद्धिमानजनों को व्यस्वरूप के प्रतिपादन द्वारा शुद्धात्मतत्व का उपदेश दिया गया है। अब इस द्वितीय श्रतस्कंध में पदार्थ भेद द्वारा उपोदधात पूर्वक उसके मार्ग का वर्णन किया जाता है । वहाँ प्राप्त की स्तुतिपूर्वक प्रतिमा की है तथा मोक्षमार्ग को सूचना की है । वह मोक्षमार्ग सम्यक्त्व व ज्ञान युक्त ही है, उनसे रहित नहीं है, चारित्र सहित ही होता है चारित्र रहित नहीं, राग-द्वेष रहित ही है, उस सहित नहीं है, मोक्ष का ही मार्ग है बंध का नहीं है, मार्ग है, अमार्ग नहीं है, भव्यों को ही है, अभव्यों को नहीं है, लब्धबुद्धियों को ही होता है, अलब्धबुद्धियों को नहीं तथा क्षीणकषायपने में ही होता है, कषाय सहितपने में नहीं। इसप्रकार इन ८ नियमों युक्त ही मोक्षमार्ग है । पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन, उनका ज्ञान सम्यग्ज्ञान और समभाव बह चारित्र है । मूलपदार्थ जीव तथा प्रजीव हैं, उनके ही भेद पुण्य-पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष हैं । इस प्रकार कुल पदार्थ हैं। इनमें जीव दो प्रकार के हैं - संसारी और सिद्ध । संसारी जीवों में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक ये एकेन्द्रिय जीव हैं । अंडे में वृद्धि पानेवाले एवं गर्भ में रहनेवाले प्राणियों और मूर्छा प्राप्त मनुष्यों की भांति, एकेन्द्रिय जीव
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ममयव्याख्या: गा. १०५ से १०८ तक।