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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इसी तरह की चम्पूर्शली का प्रयोग सम्पूर्ण टीका में पाते हैं । सम्पूर्ण कृति में गद्य के साथ पद्यों का प्रयोग अचुरमात्र में हुआ है। पों। की संख्या २७८ है जिससे चम्पूकाव्यशैलीगत गद्य के साथ समुक्ति अनुपात में पद्यों का मिश्रण सहज बन पड़ा है। तथा प्राचार्य अमृतचन्ह की धम्पुशैली में रचना करने की सफल क्षमता का परिचय भो हुआ है। प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय की उभय टीकाएं यद्यपि प्रमुखतः प्रोड़तम एवं क्लिष्ट गद्यकाव्यशैली में हैं तथापि उनमें भी बीच बीच में कुछ पद आ पड़े हैं जिससे आचार्य अमृतचन्द्र का चम्पूकाव्य शैली का स्नेह प्रदर्शित होता है। डॉ. पद्मनाभ जैनी, (प्रोफेसर, केलीफोनिया विश्वविद्यालय) ने भी अमृतचन्द्र की शैली को उत्तरमध्यकालीन अनुप्रासात्मक चम्यूशैली के रूप में स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि में अमृतचन्द्र को तत्कालीन चम्पूर्शनी से पूर्वस्नेह था।' अमृतचन्द्र को हम चम्पूकाव्यशैली का प्रमुख उन्नायक मानते हैं कारण कि चम्पूशैली के साहित्य की उपलब्धि दसवीं शताब्दी से पूर्व नहीं होती । प्राचार्य अमृतचन्द्र दसवीं शताब्दी ईस्वी में प्रारम्भ के हैं। उनका समय हमने विभिन्न प्राधारों पर. ईस्वी १० निश्चित किया है । मध्यकालीन चम्पूकाव्यकारों में नलचम्पू तथा मदालसाचम्पू के लेखक त्रिविक्रम भट्ट (ईस्वी ६१५)3 यशस्तिलकचम्पूकार सोमदेव (ईस्वी ६५६), जीवन्धर चम्पूरचयिता महाकवि हरिचन्द (११. १२ वीं सदी) पुरुदेव चम्पूकार अर्हद्दास (तेरहवीं सदी) के नाम उल्लेख्य । हैं । इन सभी चम्पूकाव्यकारों में आचार्य अमृतचन्द्र वयवरिष्ठ तो हैं ही साथ ही चम्पूयुग के आद्य उन्नायको में भी श्रेष्ठ हैं 1 जहां त्रिविक्रम श्लेषप्रधान रचनाकार हैं वहां अमृतचन्द्र अनुप्रास कवीन्द्र हैं उनकी अनुप्रास शैली चमत्कारोत्पादक, रसाभिव्यंजक तथा अनुभव रस से परिपूर्ण होती है । उदाहरण के लिए रागी जीव ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) क्यों नहीं होता इसके स्पष्टीकरण में अमृतचन्द्र लिखते हैं:---
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१. Amrtacandra, on the other hand, displays a predilection for thealitera
tive Champu style of the lato mediacval period....................Iatroduction
Page 3 of 'Lagbu tattve Sphota' by AAmrtacandrasuri २. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ. बलदेव प्रसाद उपाध्याय, पृष्ठ ४१४ ३. वही, पृष्ठ ४१६
४. वही, पृष्ठ ४२१ ५. जनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ४, पृष्ठ ५३२ ६. महाकवि हरिचन्द, एक अनुशीलन, स्तम्भ १, पृष्ठ ६