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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १२१ सगमलम तथा लघुत्तम वाक्यावलि के प्रयोग द्वारा सूग्राह्य, सुबोध तथा सुन्दरगध का श्रेष्ठ नमूना एक स्थल पर उपलब्ध होता है जहां वे ज्ञानी के धर्म (पुण्य ) का परिग्रह नहीं होता "इस बात की सिद्धि करते हुए लिखते हैं:
__ "इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति, यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो ज्ञानमय एवं भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावाद्धर्म नेच्छति । तेन झानिनो धर्म परिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यकस्य ज्ञायक भावस्थ भाबादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।''१ ग्रह है अमृतवन्द्र की तुगमव्याख्या .. शैली एवं शृखलाबद्ध कथन का नमूना।
प्रश्नोत्तर शैली- इस शैली में अभूनचन्द्र के गद्य का मनोहारि रूप देखने को मिलता है, साथ उनके गम्भीर दार्शनिक सैद्धांतिक ज्ञन तथा अनोखी तर्क शक्ति का भी परिचय प्राप्त होता है । कतुं त्वगुण के व्याख्यान में जीव के परभावों के कर्तृत्व का निषेध तथा स्वभाव के कर्तृत्व का समर्थन करते हए वे लिखते है:-- जीवा हि निश्चयेन परभावानामकरणास्वभावानां कर्तारी भविष्यन्ति । तांश्च कुर्वाणा: किमनादिनिधनाः, कि सादिस निधना:, कि साद्यनिधनाः, त्रिं तदाकारणेन परिणताः, किमयरिणताः भविष्यतीत्याशक्येदमुक्त । जोवा हि सहज चैतन्य लक्षण पारिणामिक भावेनानादिनिधनः । त एवौदयिक क्षायोपश मिकौपश मिकभावः सादिसनिधनाः । त एव क्षायिक भावेन साद्यनिधनाः। न च सादित्वात्सनिघनत्वं क्षाधिक भावस्याशंक्यम् स खलपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव जीवस्या सदभावेन चानन्ता एव जीवाः प्रतिज्ञायते । न च तेषामनादिनिधनसहज चैतन्य लक्षणेक भावानां सादिसनिधनानि साद्यनिधनानि भावांतराणि नोपपद्यंत इति वक्तव्यम्,
१. समयसार गाथा २१० सी टीका- (अर्थ-'इच्छा परिग्रह है। उसो परिग्रह
नहीं है जिसके इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और प्रज्ञाननय भाव ज्ञानी के नहीं होता, ज्ञानी जानमय ही भाव होता है, इसलिए अज्ञानमय भाव-इच्छा के अनाव होने से ज्ञानी धर्म (पुण्य) को नहीं चाहता, इसलिए शानी के धर्म का परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव के सद्भाव के कारण यह (ज्ञानी) धर्म का केवल ज्ञायक ही है।