Book Title: Abhidharmadipa with Vibhasaprabha Vrutti
Author(s): P S Jaini
Publisher: Kashi Prasad Jayaswal Research Institute
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________________ 533.] सप्तमोऽध्यायः। 403 जितायां त्व'भिज्ञायां निर्मातुरिच्छया बहूनप्येकचित्तेन निरूपादानमपि च निर्मिनो (णो)ति / तत्पुतरेतन्निर्माणचित्तं द्विविधं भावनामयमुपपत्तिप्रातिलम्भिकञ्च। तत्र अव्याकृतमभिज्ञोत्थं उपपत्त्य त्वयं त्रिधा // ' यत्खलु भावनाफलं निर्माणचित्तं तदव्याकृतं भवति / उपपत्तिप्रातिलम्भिकं तु कुशलादि[ना] त्रिप्रकारम् / [तदुपपत्तिफलं] दशातिशययुक्तम् / [532] अर्हतां दशधा त्वेतदैश्वर्यमुपपद्यते। सर्वास्रवक्षयज्ञानविमुक्तिद्वययोगतः / / यदेततदणिमादिशैक्षान्तं३ दशविधमैश्वर्यसुखं तदतिशययुक्तमहतामेवोपपद्यते // यदि तहि त्रयाणामहंतामेतदैश्वर्यं समानमस्ति कस्तहि विशेषः शास्तृशिष्ययोः ? तत्रेदमुपदिश्यते[533] ऐश्वर्य[पि स] *मानेस्मिन्यथोक्त शास्तृशिष्ययोः / अन्तरं . सुमहच्छास्तुर्यत्तत्पूर्वमुदाहृतम् // दशवलाद्यावेणिकबुद्धगुणचिन्तायां चतुष्प्रत्ययता नद्युत्तरणे गन्धहस्त्य श्वशशकदृष्टान्तश्च विशेषान्तरं बोद्धव्यमिति / / अभिधर्मप्रदीपे विभाषाप्रभायां वृत्ती सप्तमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः // * समाप्तश्च ज्ञानविभागो नाम सप्तमोऽध्यायः // 1 Cf. अव्याकृतं भावनाजं त्रिविधं तूपपत्तिजम् / AK. VII. 53 ab. 2 The eight aiswaryas, (V. supra, p. 399, n. 2) the asravakshayajnana and vimukti-jnana. 3 v. supra, p. 339 n. 2. * The Kosakara does not discuss this point, but instead devotes three karikas (Akb. VII. 53cd to 56) dealing with the following :-(1) पञ्चविधा ऋद्धिः / (2) दिव्यश्रोत्रं दिव्यचक्षुश्च / (3) किमृद्धि रेवोपपत्तिलाभिका भवत्यथान्यदपि ? (4) चेतोज्ञानम् / 5V. supra, p. 347, n, 1.
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