Book Title: Abhidharmadipa with Vibhasaprabha Vrutti
Author(s): P S Jaini
Publisher: Kashi Prasad Jayaswal Research Institute

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Page 569
________________ अष्टमाध्याये द्वितीयपादः।' [547] [VIII. B, 5. Fol. 146 a. ] शमथस्य च / ध्यानसामन्तकारूप्येष्वङ्गानामव्यवस्थितिः // ध्यानसामन्तकेषु खलु विदर्श [नोदक्ता] शमथो न्यूनः। आरूप्येषु सर्वत्र शमथोऽधिकवतिविपश्यना न्यूनतरा / विपश्य पश्यतो संज्ञायामिति वचनादङ्गिन्यपि पश्चादुद्देशो भवति / तत: सिद्धं विपश्यनाः / / / ___यदा खलु चत्वार्यपि ध्यानानि विपाकं प्रति नेजन्ते कस्माच्च तुर्थमेवानेज्यमुच्यते ? तत्रापदिश्यते[548] वितर्कचारविध्वंसात्प्रश्वासाश्वाससंक्षयात् / [उपे]क्षावेदिताभावादन्त्यमानेज्यमुच्यते // 3 त्रीणि खल्वपि ध्यानानि सेञ्जितान्युक्तानि भगवता वितर्काद्यपक्षालयोगात् / वितर्कविचाराश्वासप्रश्वासौ सुखदुःखसौमनस्यदौर्मण (न)स्यानीत्यष्टापक्षालाः / तैश्चतुर्थं ध्यानमकम्प्यमित्युक्तमभिधर्म। वितर्कविचारप्रीतिसुखैरकम्पनीयत्वादानेज्यं चतुर्थमुवतं" सूत्रे / आभिप्रायिकः सूत्रनिर्देशो लाक्षणिकस्त्वभिधर्मे। तथाहि "सुखदुःखयोः प्रहाणात्सौमनस्यदौर्मण (न) स्ययोश्चास्तङ्गमाच्चतुर्थं ध्यानमुपसम्पद्य विहरति" इत्युक्तम् / अभिधर्मे वितर्कविचारप्रीतिसुखान्येवेञ्जितम् / / ? The beginning portion of this pada is lost in the lost folio. V. supra, p. 409, n.6. 2 V. supra, p. 45, n. 4, p. 137, notes. - 3 Cf: अष्टापक्षालमुक्तस्वादानिञ्ज तु चतुर्थकम् / वितर्कचारौ श्वासौ च सुखादिव चतुष्टयम् // AR. VIII. 11. 4V. supra, p. 115, n. 4. 5 V. supra, p. 138, n. 5. See M. sattas 66. 106. 6 यथा पूर्वकाणि त्रीणि ध्यानानि वितर्कादिभिः कम्प्यन्ते "नैवं एभिश्चतुर्थः कम्प्यते / 'यथा निवाते दीपो न कम्प्यते वायुना' तद्वदित्युक्तं सूत्र इत्यपर प्राहुः / Saks. p. 677. cf. सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बे'व सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धि चतुत्थज्झानं उपसम्पज्ज विहरति / M. sutta 51:

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