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४७ शक्तियाँ और ४७ नय १७. अगुरुलघुत्वशक्ति षट्स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्तिः।
त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया है -
जो न तो कम है और न अधिक ही है - ऐसे सुनिश्चित स्वरूप में रहने रूप है स्वरूप जिसका, वह त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति है।
यह भगवान आत्मा स्वयं में परिपूर्ण तत्त्व है, इसमें न तो कोई कमी है और न कुछ अधिकता ही है। यदि कमी होती तो ग्रहण करना अनिवार्य हो जाता और अधिकता होती तो उसका त्याग करना भी अनिवार्य हो जाता। _ग्रहण और त्याग क्रमशः कमी और अधिकता के सूचक हैं। यदि हमें कुछ ग्रहण करने का भाव है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपने स्वभाव में कुछ न्यूनता का अनुभव करते हैं। इसीप्रकार त्यागने के भाव के साथ भी यह प्रतीति कार्य करती है कि हममें कुछ अधिकता है, जिसे छोड़ना आवश्यक है।
त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे त्यागा जाये और ऐसी कोई कमी भी नहीं है कि बाहर से उसकी पूर्ति करनी पड़े। भगवान आत्मा के इस परिपूर्ण स्वभाव का नाम ही त्यागोपादानशून्यत्व शक्ति है। __त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति का कथन निश्चयनयाश्रित होने से परमार्थ है, सत्यार्थ है और ग्रहण-त्याग की चर्चा व्यवहारनयाश्रित होने से असत्यार्थ है, अभूतार्थ है॥१६॥
त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति समझने के उपरान्त अब अगुरुलघुत्वशक्ति की चर्चा करते हैं - __ अगुरुलघुत्वशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया है -