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अवक्तव्यनय
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अगोचर है, अनुभवगम्य है। यह सब कथन भगवान आत्मा के अवक्तव्य धर्म का ही है, अवक्तव्यस्वभाव का ही है। भगवान आत्मा का ऐसा सूक्ष्म स्वभाव है कि वह वाणी की पकड़ में युगपत् सम्पूर्णत: नहीं आता।
यद्यपि यह बात सत्य है कि भगवान आत्मा में अवक्तव्य नामक धर्म होने से उसका स्वभाव अवक्तव्य है; तथापि अवक्तव्यधर्म के समान उसमें एक वक्तव्य नामक धर्म भी है; अत: वह कथंचित् वक्तव्य भी है। इसप्रकार वह न सर्वथा वक्तव्य ही है और न सर्वथा अवक्तव्य ही; वह कथंचित् वक्तव्य और कथंचित् अवक्तव्य है। आत्मवस्तु का ऐसा ही अनेकान्तात्मक स्वरूप है। ___ यदि हम किसी भी वस्तु को सर्वथा अवाच्य' ('अवक्तव्य') कहें तो यह कथन स्ववचनबाधित ही होगा, क्योंकि हम स्वयं उसे अवाच्य (अवक्तव्य) शब्द से वाच्य बना रहे हैं। यह वचन तो उसीप्रकार का होगा, जिसप्रकार कोई व्यक्ति दूसरे से कहे कि मेरा आज मौनव्रत है। 'मेरा आज मौनव्रत है' - ऐसा कहकर स्वयं ही उसने अपने मौनव्रत को भंग किया है। इसीप्रकार ‘आत्मा अवक्तव्य है' - ऐसा कहकर हम स्वयं आत्मा को अवक्तव्य' शब्द से वाच्य बना रहे हैं।
वस्तुतः बात तो ऐसी है कि किसी भी वस्तु के सम्पूर्ण पक्षों को, गुण-धर्मों को एक साथ कहना संभव न होने से सभी वस्तुएँ कथंचित् अवाच्य हैं और वस्तु के विभिन्न धर्मों का क्रमश: प्रतिपादन शक्य होने से सभी वस्तुएँ कथंचित् वाच्य भी हैं।
यद्यपि जिससमय स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से भगवान आत्मा में अस्तित्वधर्म है, उसीसमय परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से नास्तित्वधर्म भी है; तथापि जिससमय अस्तित्वधर्म का प्रतिपादन किया जा रहा हो, उसीसमय नास्तित्वधर्म का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है; पर क्रम से उनका प्रतिपादन संभव है।
भगवान आत्मा के अनन्तधर्मों का या परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनन्तधर्मयुगलों का युगपद् प्रतिपादन असंभव होना अवक्तव्य