Book Title: 47 Shaktiya Aur 47 Nay
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 114
________________ ईश्वरनय और अनीश्वरनय १०९ ईश्वरनय को धाय की दुकान पर दूध पिलाये जाने वाले पथिक के बालक का उदाहरण देकर समझाया गया था और अब यहाँ हिरण को स्वच्छन्दतापूर्वक फाड़कर खा जानेवाले सिंह का उदाहरण देकर अनीश्वरनय को समझाया जा रहा है। जिसप्रकार जंगल का राजा शेर जंगल में हिरण को फाड़कर अत्यन्त स्वच्छन्दतापूर्वक उसे खा रहा हो तो उस शेर को कौन रोकनेवाला है ? उसीप्रकार यह चैतन्यराजा भगवान आत्मा अपने असंख्यप्रदेशी स्वराज्य में अपने आत्मोन्मुखी सम्यक् पुरुषार्थ से अन्तर्वरूप में एकाग्र होकर अत्यन्त स्वतन्त्रतापूर्वक अपने अतीन्द्रिय आनन्द का उपभोग करें तो उसे कौन रोकनेवाला है ? इसी तथ्य का उद्घाटन इस अनीश्वरनय द्वारा किया जाता है। अनीश्वर अर्थात् जिसका कोई अन्य ईश्वर न हो । जो स्वयं ही अपना ईश्वर हो, उसे ही यहाँ अनीश्वर कहा है। अनीश्वरनय से इस भगवान आत्मा का कोई अन्य ईश्वर नहीं है, यह स्वयं ही अपना ईश्वर है; इसीलिए यह अनीश्वर है । यह अपने अतीन्द्रिय आनन्द को भोगने में पूर्णत: समर्थ है, स्वाधीन है, ईश्वर है । ईश्वरनय से यह भगवान आत्मा पराधीनता को भोगनेवाला है और अनीश्वरनय से स्वाधीनता को भोगनेवाला है। इन दोनों नयों का ज्ञान भगवान आत्मा में एकसाथ विद्यमान रहता है। तात्पर्य यह है कि दोनों अपेक्षाएँ उसके प्रमाणज्ञान में समान रूप से प्रतिभासित होती रहती हैं। यद्यपि प्रतिपादन काल में मुख्य-गौण व्यवस्था होती है; तथापि भगवान आत्मा के प्रमाणज्ञान में तो सब कुछ स्पष्ट रहता ही है। Gw यहाँ, अनीश्वरनय से तो भगवान आत्मा की स्वाधीनता सिद्ध की ही है, पर ईश्वरनय से भी एकप्रकार से स्वाधीनता ही सिद्ध की है; क्योंकि पराधीनता भोगने का धर्म भी उसके स्वभाव में ही विद्यमान

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