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नामनय, निक्षेपसंबंधीनय, स्थापनानय, द्रव्यनय और भावनय जिसके कारण आत्मा स्थापना द्वारा भी जाना जा सकता है। आत्मा की स्थापना किसी न किसी पुद्गल में की जाती है; अतः यहाँ कहा गया है कि आत्मद्रव्य स्थापनानय से मूर्तिपने की भाँति सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करनेवाला है।
जिसप्रकार मूर्ति में भगवान की स्थापना की जाती है, उसीप्रकार किसी भी पुद्गलपिण्ड में आत्मा की भी स्थापना की जा सकती है। जिस वस्तु में जिस व्यक्ति की स्थापना की जाती है, उस वस्तु के देखने पर वह व्यक्ति खयाल में आता है - इसप्रकार वह वस्तु स्थापना के द्वारा उस व्यक्ति का ज्ञान करानेवाली हुई।
यह स्थापना तदाकार भी हो सकती है और अतदाकार भी। तदाकार स्थापना में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि जिस व्यक्ति की स्थापना जिन पुद्गलपिण्डों में की जा रही है, वे पुद्गलपिण्ड उसी व्यक्ति के आकार में होने चाहिए। जैसे कि गाँधीजी की स्थापना गाँधी के चित्र में या गाँधीजी की तदाकार प्रतिमा में करना। अतदाकार स्थापना में इसकी आवश्यकता नहीं होती, हम किसी भी आकार की वस्तु में किसी की भी स्थापना कर सकते हैं। जैसे कि बिना हाथी-घोड़े के आकार की शतरंज की गोटों में हाथी-घोड़ों की कल्पना करना।
नाम और स्थापना के समान आत्मा में एक द्रव्य नामक धर्म भी है, जिसके कारण आत्मा अपनी भूतकालीन एवं भविष्यकालीन पर्यायोंरूप दिखाई देता है। जिसप्रकार सेठ का बालक भविष्य का सेठ ही है;
अत: उसे वर्तमान में भी सेठजी कह दिया जाता है अथवा जो राजा मुनि हो गया है, उसे मुनि-अवस्था में भी राजा कहा जाता है। - ये सब द्रव्यनय के ही कथन हैं।
इसप्रकार के कथन लोक में ही नहीं, जिनागम में भी सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। क्या आगम में यह लिखा नहीं मिलता है कि भरत चक्रवर्ती मोक्ष गये ? वस्तुत: बात तो यह है कि कोई भी व्यक्ति चक्रवर्ती पद पर