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४७ शक्तियाँ और ४७ नय
हैं, यदि ज्ञात होने को ही आना कहें तो ज्ञान ज्ञेयों से अशून्य है, भरा हुआ है । ज्ञेयों से शून्य कहने से कोई यह न मान ले कि वह ज्ञेयों को जानता ही नहीं; अत: यह कहा गया कि आत्मा ज्ञेयों से अशून्य है, भरा हुआ है। इसीप्रकार अशून्य अर्थात् भरा हुआ कहने से कोई यह न जान ले कि ज्ञेय ज्ञान में प्रविष्ट हो गये हैं, ज्ञान और ज्ञेय एकमेक हो गये हैं; इसलिए यह कहा गया कि आत्मा ज्ञेयों से शून्य है, खाली है।
सर्वगत, असर्वगत, शून्य एवं अशून्य नयों के माध्यम से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह भगवान आत्मा ज्ञेयों को जानता तो है; पर उनमें जाता नहीं, उनमें प्रवेश नहीं करता । इसीप्रकार ज्ञेय ज्ञान द्वारा जाने तो जाते हैं, पर वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते । ज्ञान ज्ञान में रहता है और ज्ञेय ज्ञेय में रहते हैं; दोनों के अपने में सीमित रहने पर भी ज्ञान द्वारा ज्ञेय जाने जाते हैं।
इसी वस्तुस्थिति को ये नय इसप्रकार व्यक्त करते हैं कि सब ज्ञेयों को जानने के कारण आत्मा सर्वगत है और ज्ञेयों में न जाने के कारण असर्वगत है तथा ज्ञान में ज्ञेयों के अप्रवेश के कारण आत्मा ज्ञेयों से शून्य है, खाली है और ज्ञेयों को जानने के कारण ज्ञेयों से अशून्य है, भरा हुआ है।
इतना जान लेने पर भी यह जिज्ञासा शेष रह जाती है कि ज्ञान में ज्ञात होते हुए ज्ञेय ज्ञान से भिन्न हैं या अभिन्न हैं; वे ज्ञेय ज्ञान से अद्वैत हैं, एकमेक हैं या द्वैत हैं, अनेक हैं ?
इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए यहाँ कहा जा रहा है कि ज्ञानज्ञेयअद्वैत से ज्ञान में झलकते हुए ज्ञेयपदार्थ ज्ञान से अभिन्न हैं, अद्वैत हैं, एक हैं और ज्ञानज्ञेयद्वैतनय से ज्ञान में झलकते हुए ज्ञेयपदार्थ ज्ञान से भिन्न हैं, द्वैत हैं, अनेक हैं।
जिसप्रकार अनेक प्रकार के ईंधन को जलाती हुई अग्नि उस ईंधन से अभिन्न ही है, एक ही है, अद्वैत ही है; उसीप्रकार अनेक प्रकार के ज्ञेयों को जानता हुआ आत्मा उनसे अभिन्न ही है, एक ही है, अद्वैत ही