Book Title: 47 Shaktiya Aur 47 Nay
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ ७६ ४७ शक्तियाँ और ४७ नय अस्तित्वनास्तित्वधर्म के कारण ही परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले उक्त अस्तित्व एवं नास्तित्वधर्म वस्तु में एकसाथ रहते हैं। भले ही उनका एक साथ कहना संभव न हो, पर वे रहते तो वस्तु में एक साथ ही हैं। कहने में क्रम और रहने में अक्रम (युगपद्) - यही स्वभाव है अस्तित्वनास्तित्वधर्म का। अस्तित्वनय स्व में स्वचतुष्टय की अस्ति, नास्तित्वनय स्व में परचतुष्टय की नास्ति एवं अस्तित्वनास्तित्वनय कथन में क्रम पड़ने पर भी स्व में अस्ति और नास्ति - इन दोनों धर्मों की युगपत् अस्ति बताता है। तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा में एक ऐसा भी धर्म है, जिसके कारण ये परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अस्तित्व-नास्तित्वधर्म उसमें एक साथ रहते हैं। अस्तित्व एवं नास्तित्वधर्म के एक साथ रहनेरूप स्वभाव का नाम ही अस्ति-नास्तिधर्म है और इस धर्म को विषय बतानेवाला नय ही अस्तित्वनास्तित्वनय है। नास्तित्वधर्म में भले पर की अपेक्षा लगती हो, पर वह पररूप नहीं है, वह आत्मवस्तुका स्वरूपही है। इसीप्रकार उसका नाम भले ही नास्तित्व है, पर उसकी वस्तु में नास्ति नहीं, अस्ति है। तात्पर्य यह है कि अस्तित्वधर्म तो अस्तिरूप है ही, नास्तित्वधर्म भी अस्तिरूप है और अस्तित्वनास्तित्वधर्म भी अस्तिरूप ही है। भगवान आत्मा में रहनेवाले सभी धर्म अस्तिरूप ही हैं, कोई भी धर्म नास्तिरूप नहीं है। भगवान आत्मा में अस्तित्व एवं नास्तित्व - इन दोनों के एक साथ रहने पर भी उनका कथन एक साथ संभव नहीं है। ऐसा ही स्वभाव है आत्मवस्तु का। आत्मवस्तु के इस स्वभाव का नाम ही अवक्तव्यधर्म है। इस अवक्तव्यधर्म को जाननेवाले ज्ञानांश का नाम ही अवक्तव्यनय है। ‘आत्मा है या नहीं ?' - इस प्रश्न का उत्तर एक साथ नहीं दिया जा सकता। यह एक शब्द में नहीं बताया जा सकता। न तो है' ही कहा जा सकता है और न नहीं है' ही कहा जा सकता है। यही कहना होगा कि स्वचतुष्टय की अपेक्षा है और परचतुष्टय की अपेक्षा नहीं है;

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130