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४७ शक्तियाँ और ४७ नय ___ लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य स्थित, संधानदशा में रहे हुए, लक्ष्योन्मुख तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य नहीं स्थित, संधानदशा में नहीं रहे हुए, अलक्ष्योन्मुख एव लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य नहीं स्थित, संधानदशा में रहे हुए तथा संधानदशा में न रहे हुए, लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख उसी बाण की भाँति आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्यनय से स्वद्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला-नास्तित्ववाला अवक्तव्य है।॥९॥"
अनन्तधर्मात्मक भगवान आत्मा में एक अस्तित्व-अवक्तव्य नामक धर्म है, एक नास्तित्व-अवक्तव्य नामक धर्म है तथा एक अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्य नामक धर्म भी है। उन्हें विषय बनानेवाले सम्यक्श्रुतज्ञान के अंशरूप क्रमशः अस्तित्व-अवक्तव्यनय, नास्तित्वअवक्तव्यनय एवं अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्यनय हैं। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि एक अस्तित्वधर्म और एक अवक्तव्यधर्म तो पहले ही कहे जा चुके हैं, फिर यह तीसरा अस्तित्व-अवक्तव्यधर्म कहने का क्या प्रयोजन है ? क्या यह धर्म अस्तित्व और अवक्तव्य दोनों को मिलाकर है? इसीप्रकार का प्रश्न नास्तित्व-अवक्तव्य एवं अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्य धर्म के संबंध में भी संभव है।
अरे भाई! अस्तित्व और अवक्तव्य - इन दोनों धर्मों को मिलाकर वह अस्तित्व-अवक्तव्य धर्म कहा हो - ऐसा नहीं है, परन्तु अस्तित्व और अवक्तव्य - इन दोनों धर्मों से भिन्न अस्तित्व-अवक्तव्य नामक एकस्वतन्त्र धर्म है। जिसप्रकार श्रुतज्ञान के अनन्तनयों में अस्तित्वनय आदि सात नय भिन्न-भिन्न हैं; उसीप्रकार उन सात नयों के विषयभूत आत्मवस्तु में सात धर्म भी भिन्न-भिन्न हैं। .
ये अस्तित्व, नास्तित्व आदि सात प्रकार के धर्म वस्तु के स्वभाव में ही हैं। अस्तित्व और नास्तित्व - ये दोनों ही धर्म वस्तु में हैं, अन्य पाँच धर्म नहीं हैं - ऐसा नहीं है।