Book Title: 47 Shaktiya Aur 47 Nay
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 72
________________ अस्तित्व, नास्तित्व और अस्तित्व - नास्तित्व काल-भाव की अपेक्षा अस्तित्वमय होने पर भी परद्रव्य-क्षेत्र - कालभाव की अपेक्षा नास्तित्वमय है। ६७ इस संदर्भ में आप्तमीमांसा में समागत आचार्य समन्तभद्र का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है " सदैव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ स्वरूपादिचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्य क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से वस्तु के अस्तित्व को कौन बुद्धिमान स्वीकार नहीं करेगा ? - इसीप्रकार पररूपादिचतुष्टय अर्थात् परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा वस्तु के नास्तित्व को भी कौन बुद्धिमान स्वीकार नहीं करेगा? यदि कोई व्यक्ति इसप्रकार अस्तित्व और नास्तित्वधर्मों को स्वीकार नहीं करता है तो उसके मतानुसार वस्तु की व्यवस्था ही सिद्ध नहीं होगी। " अस्तित्वधर्म को भावधर्म और नास्तित्वधर्म को अभावधर्म भी कहते हैं | भाव (सद्भाव) के समान अभाव भी वस्तु का एक धर्म है, पर वह अभावधर्म भी अभावरूप न होकर भावान्तररूप है । तात्पर्य यह है कि नास्तित्वधर्म (अभावधर्म) की सत्ता भी वस्तु में अस्तित्वधर्म (भावधर्म) के समान ही है, नास्तित्वधर्म की भी भगवान आत्मा में अस्ति है। वह अभावधर्म भावान्तरस्वभावरूप है, गधे के सींग के समान अभावरूप नहीं है। अभाव तो उसका नाम है, क्योंकि उसका कार्य अपने आत्मा में परपदार्थों के अप्रवेशरूप है, अभावरूप है। वह नास्तिधर्म स्वयं अभावरूप नहीं है, उसका स्वरूप अपने में पर के अभावरूप है। इस संदर्भ में 'युक्त्यनुशासन' की निम्नांकित कारिका ध्यान देने योग्य है : 66 " भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो, भावांतरं भाववदर्हतस्ते । हे अरहंत भगवान ! तुम्हारे मत में भाव के समान भावान्तरस्वभावरूप अभाव भी वस्तु का एक धर्म होता है । "

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