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पद्मपराग
प.पू. आचार्य भगवंत श्री पद्मसागर सूरीश्वरजी महाराजसाहेब
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dahal
जैन उपनिय निपाणी (बेलगाम)
PIN 59/237.
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JAIN TEMPLE GURUWAR PETH
NIPANI PIN 591237
DIST. BELGAUM (KARNATAK)
- नूतन वर्ष की मंगल कामना:
नूतन वर्ष के मंगल प्रभात में अपने गनो मंदिर में से राग-द्वेष विषय-कपाय, ईर्ष्या असहिष्णुता आदि गंदगी को साफ करके पौगालिक राग, विषयतृष्णा, अहं-मगत्व आदि, अनादिगलीन पुराने जीर्ण वस्त्रों को उतारकर सत्य-शील क्षमा- संतोष गुणानुराग आदि नूतन बरनों से आत्माको सुसज्जित कर, वीतराग भगवंत महावीर प्रभु के अनंत उपकारों का स्मरण करें।
अनंत लब्धि संपन्न श्री गौतम स्वामिजी, बुद्धि निधान श्री अगय कुमारजी, ऋद्धिबाबू भी घन्ताजी - शालिभद्रजी आदि महान् पुण्यशाली आत्माओं के जीवन से प्रेरणाव मार्ग दर्शन प्राप्त का अपने जीवन निर्माण करने का शुभ संकल्प प्राप्त करें यही शुभ भूतन वर्ष आप राब के लिये सुख-शांति एवं धर्म लक्ष्मी प्रदान करने वाला बने यही मंगल भावना
का नव
कामना ।
शुभेच्छुक :
पद्मसागर:
Date
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पद्म पराग
प. पू. आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
के प्रवचनमें से अवतरण
प्रवचन अवतरणकार १ पंडितजी श्री लालचंद के. शाह २ श्री वर्धमान चंदुलाल शाह
-- प्रकाशक :शांतिलाल मोहनलाल शाह अमृतलाल हीरालाल शाह
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प्रकाशक:
शान्तिलाल शाह अमृतलाल शाह
वीरनिर्वाण संवत २५०६ कार्तिक शुद १ वि. सं. २०३६ २२ नवेम्बर १९७९
(सर्व हक्क प्रकाशकने स्वाधीन)
अमृतलाल हीरालाल शाह A/१/२ श्रावकनगर फ्लेट अलकापुरी सोसायटी, आश्रमरोड अहमदाबाद-३८००१४ फोन ४४७३१३
मुद्रक : जयंतिलाल मणीलाल शाह नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस, घीकांटा, अहमदावाद---१
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धर्म के संस्कार सींचन करनेवाले हमारे परम् पूज्य माता और पिताजी के चरणकमल में सादर समर्पण
शांतिलाल शाह अमृतलाल शाह
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निवेदन परम पूज्य प्रातःस्मरणीय, शांत मूर्ति आचार्य भगवन्त श्री कैलाससागरसूरीश्वरजीना शिष्य परम पूज्य आचार्य महाराज श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी महाराजश्रीना प्रखर व्याख्याता शिष्यरत्न आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेबना निपाणि (कर्णाटक) चातुर्मासमां नियमित अपाता प्रवचनोमांथी अवतरण करीने पंडितजी श्री लालचंदजी ओर श्री वर्धमानभाईए. संकलन करेल छे.
आ पुस्तक- सुंदर छापकाम बहु टुंक समयमां करी आपवा बदल अमो नवप्रभात प्रेसना संचालकोनो तेमज डिझाईन ब्लाक टुंक समयमा करी आपवा बदल ग्राफोक स्टुडिओना संचालकोनो अने टाईटल सुंदर रीते छापी आपवा बदल साधना प्रिन्टींग प्रेसना संचालकोनो आभार मानीओ छीए. ___ आ प्रकाशनमां कदाच काई स्खलना रही गयी होय तथा वीतराग परमात्मानी आज्ञा विरुद्ध कंई पण लखा येळू होय, ते बदल अमो “मिच्छामि दुक्कडं' आपी श्री संघनी तथा सुज्ञ वाचकोनी क्षमा याचीओ छीओ.
अहमदाबाद कार्तिक शुद १ २०३६ २२-१०-७९
संघ सेवको शान्तिलाल शाह अमृतलाल शाह
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-१
अनंत उपकारी अरिहंत परमात्माने मृत्यु के माध्यम से जीवन का परिचय दिया । जीवन नश्वर है, क्षणभंगूर है । अप्रमत्त अबस्थासे हमें जीवन को संपूर्णतया जागृत करना है। प्रवचन के माध्यम से सुशुप्त आत्मा के ऊपर प्रहार कर के उसे जागृत करना है।
कई जगह पर चौकीदार के तरीके से कुत्ता रखा जाता है। कुत्ता एक वफादार प्राणी है। मालिक की रोटी खाता है और हमेशा मालिक की रक्षा करता है । अगर कोई चोर आ जाय तो कुत्ता भौंकना शुरू करता है, और भौंकता ही रहता हैं, जब तक मालिक जागे नहीं । हम साधू भी समाज के चौकीकार है। समाज से हमारा पोषण होता है। जोवन एक मकान है। इस मकान के मालिक आत्माराम शेट है । विषय विकारादि चोर जीवन रुपी मकान को लुटने के लिए आये हैं । इन चोरों से रक्षण करने के लिए प्रवचन के द्वारा हमें आत्माराम शेठ को जगाना है । अगर एक बार आत्माराम शेठ जागृत हो जाय तो फिर प्रवचन की कोई जरूरत नहीं । जागृत आत्मा स्वयं ही अपना रस्ता निकाल लेती है।
भगवान महावीर समाजवाद के एक महान् पुरस्कर्ता थे । महावीर की नजरों में किसी प्रकार का भेद भाव नहीं था । पापी हो या पुण्यशाली हो उनकी नजरों में सब समान थे। महावीर के
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समाजवाद में उच्च कोटी के लोगों को नीचे लाने का प्रयास नहीं था लेकिन नीचले स्तर के लोगों को ऊपर उठाने की भावना थी । उच्च स्तर के लोगों को नीचे लाने में समस्या खडी होगी और इस समस्या से संघर्ष निर्माण होगी।
प्रेम-भाव से प्रवचन का श्रवण हो जाय तो अंतरात्मा में 'पवित्रता आती है, अगर एक बार मन में पवित्रता आ जाय, तो 'फिर पूर्णता आने में देर नहीं लगती। ज्वालामय यह संसार ज्योति बन जाओगा । आपका जीवन ऐसा होना चाहिजे कि उससे दूसरों को भी प्रेरणा मिले । ___साधू का जीवन सूपडा (सूप) जैसा होता है। सूपडे में एक विशेषता होती है। सूपडा अनाज़ में से कचरा बाहर फेंक देता है और अच्छे अनाज को अपने अंदर रखता है। साधु भी अपने जीवन से विकारों को बाहर फेंक देते हैं और आत्मा के गुणों को अपने अंदर रखते हैं और साधना के द्वारा उन गुणों का पोषण करते हैं। ___ अगर आप विचार करेंगे तो आपको मालुम पडेगा कि आपका जीवन चालनी जैसा बन गया है । गुणों को आप बहार फेंक रहे हो और दुर्गुणों का कचरा अन्दर भर रहे हो ।
भोजन से पेट भरता है लेकिन प्रोटीन से शक्ति प्राप्त होती है। दुर्विचार में जीवन की बरबादी है। दुर्विचार को छोड के
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स्वयं में स्व को खोजने का प्रयास करो, पुरुषार्थ करो। आप को जगाने के लिये प्रवचन दिया जाता है ।
कभी कभी ऐसा कहा जाता है कि प्रवचन में पैसादार को प्रथम स्थान दिया जाता है ?
कोई क्वोलीफाइड डॉक्टर के यहाँ आप जाओंगे तो लाईन में खडा रहना पडता है। एक के बाद एक पेशंट की अक्झाम की जाती है । अगर उस वक्त कोई सीरीयस अत्यवस्थ मरीज़ आ जाय तो क्या उस को लाईन में खडा किया जाता है ? नहीं । उसे तुरंत अंदर लिया जाता है और तुरंत ईलाज शुरू कर दिया जाता है। ___ यह उपाश्रय भी एक होस्पिटल है । यहाँ रहनेवाले निग्रंथ, त्यागी साधु इस होस्पिटल के क्वोलीफाईड डॉक्टर्स होते हैं । प्रवचन को आनेवाले श्रोता पेशंट होते हैं । श्रीमंत व्यक्ति सीरीयस मरीज़ होते हैं उनको आगे बिठाया जाता है और उनके ऊपर सक्त ध्यान दिया जाता है।
जागृति में अगर आप श्रवण करेंगे तो श्रवण से समाधि प्राप्त होगी।
बहुत से व्यक्ति प्रवचन को आते हैं, लेकिन घर का कोटा यहाँ पूरा कर लेते हैं। घर में घरकी अशांति में नींद नहीं आती है तो यहाँ आराम से नींद लेते हैं ।
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एक बार साधु महाराज प्रवचन देते थे और आसोजी नाम के एक श्रावक आगे बैठ कर आराम से नींद लेते थे। यह बात युवान साधु को अच्छी नहीं लगी। नींद एक प्रकार का प्रमाद है । साधु प्रमाद के दुश्मन होते हैं । साधु को यह बात अच्छी नहीं लगी । साधु आसोजी से कहते है-“आसोजी, सोते हो या. जागते हो ?" आसोजी कहते हैं-, “नहीं महाराज, जागता हूँ, ध्यान से सुन रहा हू । थोडी देर के बाद आसोजीने फिर समाधि लगा दी। साधू फिर आसोजी को कहते-. "क्यों आसोजी जागते हो ?" आसोजीने फिर वही जवाब दिया । थोडी देर के बाद फिर समाधि में चढ गये। अब साधु सोचते है कि अब आसोजी को बराबर क्रोस में पकडना चाहिजे । साधु आसोजी को कहते-, "क्यों आसोजी जीते हो?" आसोजीने कहा, 'नहीं नहीं महाराज ।” साधु कहे, "प्रवचन मुडदों के लिए नहीं जीवित व्यक्ति के लिए होता है।
जीवन को एक बार जागृत करो और जागृति में साधना करो । जागृति में स्वयं की खोज करो ।
एक बार देवों की समा में परमात्माने कहा-,"मुझे ऐसी एकान्त जगह में ले चलो कि जहाँ मुझे आराम मिले । यहाँ इन्सानोंने तो मुझे हैरान कर रखा है । बार बार मेरे पास आकर भिकारी की तरह मांगते रहते हैं।
देवोने सोचा परमात्मा को चंद्रलोक में लिया जाय । परमा
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स्माने कहा-,"नहीं वहाँ मुझे शांति नहीं मिलेंगी क्यों कि आदमी अभी चंद्रलोक में भी जाने का प्रयास कर रहा है । देवोने सोचा परमात्मा को हिमालय के ऊपर लिया जाय । परमात्माने कहा-, "वहाँ भी तो तेनसिंग जैसे गिर्यारोहक आ जाओंगे।" देवोंने सोंचा परमात्मा को पाताल में लिया जाय।" परमात्माने कहा, " ड्रीलींग कर के आदमी वहाँ भी आजाओगा । देवोने विचार किया और कहा, आप मानव के अंतर हृदय में जावो । परमात्माने कहा-, "यह जगह तो वहुत सुरक्षित है।"
कहने का मतलब आदमी सुख को संसार में खोज रहा है लेकिन उस को अंतर मन को देखने के लिए फुरसत ही नहीं है।
आत्मा में परमात्मा है। परमात्मा बनने के लिए कौन सी प्रक्रिया हैं ?
प्रवचन से जीवन का परिचय होता है। जीवन पवित्र बनता है । पवित्रता से जीवन की पूर्णता साकार बनती हैं। प्रवचन से विचार जागृत होंगे, और विचार आचार को जागृत करेंगे।
परमात्मा का मार्गदर्शन अपूर्व है । इस मार्गदर्शन से संतान भी संत बनता है । पापी परमेश्वर बनता है ।
जैन साधु हमेशा प्रसन्न होते है । संपूर्णतः त्यागमय भूमिका में जीवन की आराधना करते है । ओ तो सिर्फ स्नेह-प्रेम के भूखे होते हैं । आप के प्रेम ने हमें यहाँ खींच कर लाया है। आपका
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प्रेम चौदह कॅरेट का नहीं है चोवीस कॅरेट का है। कुछ विलंब हुआ है लेकिन गुरु कृपा से आज बडे उत्साह से प्रवेश हुआ है।
__ मेरी अंतर कामना है कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन मंदिर बने । वीतराग की विचार धारा से जीवन में जागृति आए । जागृति में की हुयी आराधना से सफलता मिलेगी।
वर्गहीनता, वादशून्यता यह जैन धर्म की विशिष्टता है । श्वेतांबर या दिगंबर इन शब्दों में परमात्मा नहीं है। कोई भी वाद या पक्ष या युक्ति प्रयुक्ति में मुक्ति नहीं है । काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, मत्सर, माया, मान आदि कषायों से मुक्त होना ही मुक्ति है । वही सिद्धि पद है।
धर्मग्रंथो से स्वयं का परिचय होत है। धर्म याने अंतःकरण की शुद्धता होती है। ____ महावीर की दृष्टि सापेक्ष है । विविध पर्याय से सत्यता जानने की सापेक्ष दृष्टि महावीर ने बतलाई । सापेक्ष दृष्टि से संघर्ष मिट जाता है-समन्वय हो जाता है । महावीर ने कहा-"पदार्थ एक है लेकिन परिचय अनेक हैं।"
धर्मबिंदू ग्रंथ की रचना महान् जैनाचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी ने की है। इस में व्यावहारिक और आध्यात्मिक दृष्टि से संसार का और 'स्व' का परिचय दिया है ।
आप को पेकिंग नहीं अंदर का माल देखना चाहिए । बड़े
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मुल्ला बैंक के चॉकीदार थे । एक दिन बैंक मैनेजर बाहर गाँव जा रहें थे । मैनेजर ने चौकीदार से कहा कि बँक के ताले का ध्यान रखना । कोई भी ताला न तोडे क्यों कि अंदर जोखम हैं । मुल्ला ने ताले का बराबर ध्यान रखा । चार दिन के बाद मैनेजर आये । ताला बराबर देख के खुश हो गये । अंदर गये । तिजोरी खोल कर देखा तो माल गायब था। पिछली बाजू से व्हेंटीलेशन में से चोर अंदर आया था और चोरी कर के चला गया था ।
अपने जीवन की बात तो ऐसे ही हो रही है । पॅकिंग अच्छा और माल गायब अंदर से आत्मा की नीतिमत्ता, प्रामाणिकता चली जा रही है । ऊपर से क्रिया दान तप-रूपि ताला कायम है ।
प्रेम से प्रवचन का श्रवण किया जाय तो श्रवण से पवित्रता आती है और ज्वालामय जीवन ज्योतिमय बन जाता है; और अंतिम, अनंत सुख का भोक्ता बन जाता है ।
जीवन में विचार के साथ आचरण होना चाहिये । आचरण से ही धर्म गतिमान बनता है । सिर्फ पढ़ने से या श्रवण करने से या जानने से धर्म नहीं आएगा । विचारों को आचरण में लाना पडेगा ।
एक बार जेसलमेर तरफ हमारा विहार था । विहार लंबा था । गरमी का मोसम था । रास्ता रेती का था । एक आदमी ने कहा- "मैं आपको शॉर्टकट से ले चलूँगा ।" हम को प्रसन्नता हुई । सडक कच्ची थी । रास्ते में कोई भी मील का पथ्थर नहीं था
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थोडी देर के बाद मैंने पूछा-"अभी कितने मील चलना है ?" आदमी ने कहा-"अभी २-३ कोस होगा" थोडी देर के वाद मैने फिर पूछा, "अभी कितना मील बाकी है ?" आदमी ने कहा“२-३ कोस होगा।" बार बार मैं पूछता और आदमी वही जबाब देता। मैंने आदमी से पूछा, "हम चल रहे है या खडे है ?"
__ आदमी तो बडा फीलासाफर निकला। उसने कहा-"महाराजजी, आप बार बार क्या पूछते हो ? एक बार पूछो या पचास बार पूछो-गाम तो चलने से ही आयेगा, पूछने से नहीं ।
अगर हमें मोक्ष तक पहुँचना है तो चलने का प्रयास करना चाहिये । विचारो को आचरण में लाना चाहिये । सिर्फ जानने से या सुनने से कुछ नहीं होगा ।
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अनंत उपकारी महावीर भगवंत ने स्व में स्व को किस प्रकार खोज लेना इसका एक अपूर्व परिचय अपने प्रवचन के माध्यम से दिया। उन्होंने अनंत कष्ट सहन कर के, बहुत परिश्रमसे, तप से, चिंतन से जो भी प्राप्त किया उसको सहज भाव से उपकार भावना से सभी जीवों के प्रति उनकी रही हुयी करुण भावना से, सर्व जगत् को दे दिया। उन के मन में एकही भावना थी कि मैंने जो भी प्राप्त किया है उसे सभी आत्माों प्राप्त करें, और उस अनंत सुखमय निरंजन, निराकार, परमानंद को प्राप्त करें।
महावीर ने कोई भी मोनोपली या गुप्तता नहीं रखी। परमात्मा के एक एक शब्द में अपूर्व वात्सल्य और करुणा छीपि हुयी है ।
महावीर को संप्रदाय स्थापन करना नहीं था। अनुयायी बनाने को भावना भी उन के मन में नहीं थी। महावीर के मन में एकही भावना थी किं जगत् की सभी आत्माएँ पूर्ण बने ।
आत्मा को परमात्मा बनाने के लिओ जीवन की साधना आवश्यक है । साधना आशीर्वाद के समान है ।
आत्मा स्वयं कर्ता है और भोक्ता है । सुख और दुःख मन
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की कल्पना है । अज्ञानता है । हम सुख चाहते है, पसंत नहीं है । दुःख के प्रति हमारा तिरस्कार है ।
दुःख हमें
लेकिन जगत् की महान् आत्माओं नें जैसें की - महावीर, राजा रामचंद्रजी ने दुःख का बड़े प्रेम से स्वागत किया । चित्त की एकाग्रता से अगर हम देखें तो दुःख का हमारे ऊपर महान् उपकार है ।
अव्यवहार राशी से जीवन की शुरुवात होती है । उस वक्त हम Senseless थे। दिल और दिमाग नहीं था । बाद में हम एकेंद्रीय बने । इस अवस्था में एक श्वासोश्वास में कई बार जन्म मरण होता है । हमने अनंत कष्ट सहन किया । साधना सिद्ध हो गई। वहां से व्यवहार राशी में आये । बेन्द्रिय तेन्द्रिय, चौरेंद्रिय, पंचेंद्रिय - सब जगह हम अपार कष्ट सहन करते आयें । अकाम कर्म निर्जरा हो गयी । साधना सिद्ध हो गयी । उस वक्त मन नहीं था । विचार करने की या जानने की कोई स्थिति नहीं: थी । पंचेंद्रिय तक मनुष्य भव तक हमें पहुँचा देने का काम दुःख ने किया है ।
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महावीर ने दुःख को आपना मित्र बनाया । दुःख का प्रेम से स्वागत किया । महावीर ने सोचा अगर मैं मगध देश में, खुद को राजधानी में रहूं, विहार करुं, तो लोग मेरा सन्मान करेंगे, सत्कार करेंगे, सुख देंगे । इससे मेरी साधना खंडित होगी । परिचय और प्रसिद्धि पतन का एक साधन है ।
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इस लिए महावीर अनार्य देश में चले गये, जहाँ कोई परिचित नहीं था । वहाँ जाते ही महावीर पर आक्रमण हुआ । गालियाँ सुननी पडी । असह्य मार भी खानी पडी। लोगों ने महावीर के प्रति असभ्य वर्तन किया, लेकिन महावीर अंतर में प्रसन्न थे । धैर्य की, सहनशीलता की कसोटी हो गयी । महावीर की विश्वास हो गया की यहाँ ही मेरी साधना पूरी होगी । अज्ञान, अविवेकी दशा में मैं ने जो भी कर्म बंध किया है उस कर्म का मुझे नाश करना है । इस के लिए दुःख, विषम परिस्थिति, उपसर्ग मेरे सहाय्यक बनेंगे । महावीर ने इन सब को अपना मित्र माना । अपमान का भी महावीर ने स्वागत किया । दुःख के प्रति समता भाव रखने से ही परमात्मपद की स्थापना होती है । दुःख का परमात्मा ने स्वीकार किया और रोज हम उस का तिरस्कार करते है ।
पोष्टमन तार ले के आता है ! आप दस्तरवत कर के तार लेते हैं । तार खोलकर पढते हो। अगर इस तार में भयंकर दुःखमय समाचार हो तो आप पोष्टमन को गाली देंगे ? नहीं । पोष्टमन तो सिर्फ निमित्त है। अशुभ कर्म का आप मौन पूर्वक स्वीकार करेंगे।
महावीर परमात्मा ने कहा-"पोष्टमन के साथ आप जिस तरह से व्यवहार करते हो उसी तरह संसार के साथ करोंगे तो आप परमात्मा बन जाओगे । आप के साथ किसी ने बूरा वर्तन
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किया, आप को दुःख पहुँचाया, तो इस को आप कर्म राजा का पोष्टमन मान लो ।
पोष्टमन सरकार का प्रतिनिधि है, और दुःख कर्मराजा का प्रतिनिधि है ।
अज्ञानदशा में, भूतकाल में, हमने जो कर्म उपार्जन किया है उसका कारण हम स्वयं है । कर्म बंधन से मुक्त होने के लिए ही दुःख हमारे जीवन में आता है। अंत मे यही दुःख आशीर्वाद बनना है । प्रसन्नता पूर्वक दुःख का स्वागत करो ।
एक बार कबीर के पास एक दुःखी व्यक्ति आया । परिस्थिति से लाचार बन गया था । कबीर के प्रति उस व्यक्ति ने याचना की - " मैं तो अति दुःखी हूँ । आप की कृपा होगी तो मेरी समस्या हल हो जाओगी और मैं कुछ सुख का अनुभव करूं ।"
कबीर गृहस्थ हो कर भी अंतरात्मा में एक महान् संत थे । उन के अंतः करण में वात्स्यल्य और प्रेम भरा हुआ था | कबीर ने उस दुःखी व्यक्ति को आशीर्वाद दिया- “ और कहा" - तुम अति दुःखी बन जाओं । दुःखी व्यक्ति को बहुत आश्चर्य हुआ और उसने कबीर से पूछा - "कबीरजी ये आपने क्या किया !" कबीरने कहा " [" - मैं ने तो सच ही किया हैं मैंने जो आशीर्वाद दिया
।
है
है |
दंडा मारो उस सुख को जो प्रभु को भूलाय । बलीहारी उस दुःख का जो बार बार प्रभु समराय ॥
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मुख अगर परमात्मा को भूला देता है तो वह सुख किस काम का ? उस दुःख का मैं स्वागत करता हूँ कि जो बार बार मुझे प्रभु का स्मरण कराता है ।।
विचार में वीतराग का चिंतन चाहिये । परमात्मा ने कहा"तुम जगत् के बंधन से मुक्त बनो । जगत् राग और द्वेष के बंधन में है । वहाँ आत्मिक गुणों का बलीदान दिया जाता है । धर्म की हत्या होती है।
रवींद्रनाथ टागोर परमात्मा से प्रार्थना करते है और कहते है-'हे परमात्मन् भिखारी बन कर मैं तेरे द्वार नहीं आया हूँ। जगत् से कायर बन कर मैं नहीं आया हूँ । निष्काम भावना से मैं आप के पास आया हूँ। मेरे किये हुये कर्म से मेरे ऊपर कोई भी आफत आये, दुःख आये, कष्ट आये, मौत आओ, सब को सहन करने की शक्ति तू मुझे दे यही मेरी कामना है।"
अगर आप ऐसी विशुद्ध भावना लेकर मंदिर में जाओंगे तो आत्मिक सुप्त गुण जागृत बनेंगे । लेकिन आप तो हमेशां पर-. मात्मा के पास अपनी समस्यायें ले कर जाते हो । हमेशा डबल रोल से काम करते हैं।
हम प्रभु से प्रार्थना करते है और कहते है कि "शांतिनाथ प्रभु शाता करो। और मन में याचना करते-"गोळ, घी, कपास महेंगा करो।
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परमात्मा के दरबार में तो हमें समर्पण की भावना से जाना है । समर्पण की भावनासे साधना सुगंधमय बनती है ।
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" बहार लडे वह सैतान । अंदरथी लडे वह अरिहंत || "
जीवन मृत्यु के वर्तुळ पर उपस्थित है । मृत्यु को कोई भी रोक नहीं सकता । मृत्यु हर घडी नजदीक आ रही है । जागृत अवस्था मे जीवन की पूर्णता प्राप्त करो । प्रमाद मृत्यु का दूसरा नाम है ।
का बन्धन |
मोटार गाडी से सफर करते हो तो स्टेरींग घुमाने से मोटार की दिशा बदलती है । मन के स्टेरींगपर भी आप का नियंत्रण रखो । अंतरसे ही हमें परिवर्तन करना है ।
जीवन की सुंदर व्यवस्था के लिए ही यम, नियम, बंधन है । बंधन कहाँ नहीं है ?"
नवमास हम पेट में रहे वह पण बंधन |
जन्म के बाद पांच बरस माँ की नजर कैद में रहे वह भी बन्धन ।
पांच बरस से पचीस बरस तक पिता की कस्टडी में रहे - वह भी बन्धन |
पचीस बरस के बाद हवाला दिया जाता है - वहाँ भी पत्नी
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साष बरस के बाद पूत्र का बन्धन । सारा जीवन ही बंधन से भरा हुआ है।
हमें जब इस्पताल में दाखिल किया जाता है तब वहाँ भी बन्धन होता है । आरोग्य के लिए डॉक्टर जो भी कहते, बिना तक्रार हम मान लेते हैं। ____ आहार के परमाणु विचार को दूषित करते है। तीन इंच की जीभ लेकिन पांच फूट शरीर पर अपना नियंत्रण चलाती है । जोभ तो दलाल है । दलाल को तो दलाली से मतलब । शेठ दिवाली मनावे या दिवाला निकाले-दलाल के घर तो हमेशा दिवाली ही होती है।
शेठ आत्माराम की पेढी है । जीभ इस पेढ़ी का दलाल है। दलाल को तो कमिशन से मतलब । टेस्ट लिया माल अंदर गायब ।
आहार शुद्धि आत्म-साधना के लिए प्राण तत्त्व है ।
संसार के सब बन्धन आप स्वीकारते हो । दो रुपया पगार का सिपाई आप को हाथ करता हैं तो आप को उस बन्धन का स्वीकार करना पडता है। लेकिन परमात्मा की प्राप्ति के लिए आप को कोई भी बन्धन नहीं चाहिजे ।
परमात्मा के प्रति प्रेमभाव बन्धन से भार मुक्त बनाता है। यम, नियम से जीवन सुंदर बनाता है । आत्म-शिल्प को सुंदर बनाता है। हमारे शब्द में उदारता है, लेकिन आचार में उदारता
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नहीं । त्याग का स्वीकार नहीं करेंगे तब तक तत्त्व प्राप्ति होनेवाली नहीं ।
आप का मकान और गोडाऊन पूरा भरा हुआ हो । पाँव रखने के लिए भी जगह नहीं । दरवाजा खोला जाय तो सब माल बहार गिर जायेगा ऐंशी स्थिति है। इस वक्त आप का मित्र फॉरेन से कोई सुंदर वस्तू आप को भेट देने के लिए लेकर आया हे । और भेट स्वीकारने के लिए आप को कह रहा है। आप कहेंगे मेरे पास आप की भेट ग्रहण करने के लिए कोई भी जगह नहीं है । आपका तोहफा मैं स्वीकार नहीं कर सकता।
परमात्मा के प्रवचन से विचार वैभव आप को प्रदान किया जाता है । लेकिन मन रुपि आप का गोडाऊन विषय और विकारों से भरा हुआ है।
रुदन में हमेशा आकर्षण होता है । परमात्मा के पास आप हृदय वेदना प्रगट नहीं करोगे तो परमात्मा कैसे प्राप्त होगा ?
परमात्मा के पास बालक के जैसा हठ लेकर जाओ और कहो-'हे परमात्मन् । संसार के मोह को और ममत्व को मैं नहीं छोड सका । अब तुम हो मुझसे छुडा देना । धर्मस्थान पर अपराधी बन कर आना पडता है। गुन्हेगार बन कर जाओगे तो साहूकार बन के आओंगे । परमात्मा के पास शून्य बन कर जाओगे तो भर कर आओगें ।
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हम हमेशा हिंसा करते है । असत्य बोलते है । चोरी करते है । अयोग्य परिग्रह करते है । हम तो महान् फौजदारी गुन्हेगार है । अगर हम इस पाप का, किये हुये गुन्हाओं का, पश्चात्ताप पूर्वक, अंतर हृदय से इकरार करेंगे, तो जीवन में पवित्रता का झरना प्रगट होगा ।
आत्मा को राग से मुक्त बनाए तो वीतरागता नजदीक है । "अरिहंते शरणं प्रवज्जामि । "
अरिहंत की शरण जाओ । अरिहंत के आदर्शों को प्रेम से स्वीकार करो । स्वीकार के बाद अर्पण भावना जागृत होगी । स्व-अर्पण के बाद सिद्धि निश्चित आएगी । जागृति के बाद पैसाजो जहर है - वह अमृत बनेगा |
बडे मुल्ला ने एक दफे कोई गुन्हा किया । जज्ज के सामने उस को खड़ा कर दिया । जज्ज ने उससे पूछा, "ए मुल्ला ! तुम तो बुजूर्ग हो। इतनी बडी उमर में आपने ऐसा बूरा काम क्यों किया ?"
मुल्ला कहता है, "साहब, आप के लिए । "
जज्ञ्ज तो विचार में पड गये और मुल्ला से कहने लगे, 'कैसी बात करते हो ? गुन्हा कर लिया और कहते हो कि मेरे लिए ।
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मुल्ला कहता है-“साहब ! अगर मैं गुन्हा न करता तो वकील, कोर्ट का सब स्टाफ-आप, पुलीस-सब बेकार हो जाते । पहले ही भारत में कितने करोड बेकार है।
___ आज कल हमारी बुद्धि तो मुल्ला जैसी हो गयी है। हम पाप करते तो है, और ऊपर दलील करते है। बुद्धि से पाप का बचाव करते है।
जीवन प्रामाणिक और नीतियुक्त बनाओ। सहज में मिले, उस में संतोष मानकर अपना पाप पेट तक सीमित रखो ।
जो सहन करता है, वही साधना में प्रवेश कर सकता है । संसार में हम सब सहन करते है, लेकिन धर्म के लिए सहन करने को हस तयार नहीं।
मनमोहन मालवीयजी बनारस हिंदू युनिव्हर्सिटी के लिए चंदा इकठा करते हुओ घुमते थे। रांपूर एक मुस्लिम स्टेट था । उस स्टेट के नवाब के पास मालवीयजी चंदा के लिए गजे। नवाब तो संप्रदायिक वृत्ति का था। कुछ डोस लिया हुआ था । नवाब साहब को मालूम कर दिया गया कि मालवियजी आये है । अंदर बुलाया गया।
मालवीयजी ने कहा, "मैं ब्राह्मण हूँ । दक्षिणा लेने के लिए आप के पास आया हूँ।"
नवाब ने पूछा, "किस के लिए ?"
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है, दीजिये ।
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मालवीयजी ने कहा - "काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए ।"
नवाब ने पूछा, "क्या चाहिओ ?"
मालवीयजी ने कहा,
"
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आप को प्रेम से जो भी देना
नवाब ने पाँव का जोड़ा निकाला और मालवीयजी की तरक फेंक दीया | इतना अपमान हुआ लेकिन मालवीयजी शांत रहे । मालवीयजी ने नवाब को धन्यवाद दिया और जूता ले के चले गये ।
शाम को विराट जनसभा हुआ । मालवीयजो उस सभा में गये । सभा में मालवीयजी ने कहा - " मैं रांपूर के नवाब को धन्यवाद देता हूँ । मुझे कहने में बहुत दुःख होता है कि नवाब साहब के पास चंदा देने के लिए कुछ भी नहीं रहा था । फिरभी आनंद की एक बात है कि नवाबसाहेब ने मुझे दक्षिणा में एक जूता दिया है। मेरे जीवन की यह एक ऐतिहासिक बात है ! इस जूते को मैं हिफाजत से म्युझियम में रखूंगा और इस जूते का अब नीलाम किया जायेगा ।
नवाब का निजि सचीव सभा में था । उस ने यह बात सुनी और दौडते नवा के पास गया और कहा - "साहब आप के जूते का नीलाम चल रहा हैं। सच पूछो तो यह नीलाम जूते का नहीं, अपनी इज्जत का नीलाम चल रहा है। किसी भी हालत में
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२०
उसे रोकना चाहिए । नवाब साहब का नशा एकदम उतर गया। ५१ हजार रूपिया डोनेशन दे के जूता वापिस लाया गया ।
जिधर सहनशीलता है वहां सिद्धि सिद्ध होती है ।
" नमो अरिहंताणम् | नमस्कार से हम अरिहंत को स्वीकार करते है।
मेरा विहार चल रहा था। रास्ते में एक जगह लोहे की फेक्टरी में ठहरने का प्रसंग आया। जिज्ञासा से मैं ने फेक्टरी को देखा । फेक्टरी में एक जगह बहुत ही हाथोडे पडे हुड़े थे। मैं ने मेनेजर से पूछा, "फेक्टरी में हाथोडे बनाओ जाते है क्या ?" मेनेजरने कहा “ नहीं महाराज से तो खराब हुऐ हाथोडे है। लोहा जब गरम किया जाता है तब उस को ऐरण के ऊपर रखा जाता है और ऊपर से हाथोडी से पीटा जाता है। हाथोडी खराब होती है, उसे फेंक दिया जाता है। जादा उपयोग करने में खतरा होता है। मैं ने पूछा "हाथोडे इतनी संख्या में खराब हुओ तो फिर ऐरण कितने खराब हुओ ? मेनेजरने कहा-"महाराज, ऐरण तो कई साल से एक ही है।"
आपने इस का आध्यात्मिक दृष्टिसे विचार किया ? पीटने वाला एक ना एक दिन फेंका जाता है लेकिन सहन करनेवाला ऐसे ही रहता हैं। प्रहार करनेवाला तूटता है। सहन करनेवाला सिद्ध बनता है।
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किसी के प्रति दुर्भाव मत रखो । “आत्मवत् सर्व भूतेषु ऐसी भावना मन में रखनेवाला महान पंडीत बनता है। आत्मा से मात्मा का परिचय होता है ।
बम्बई में एक परिवार था । परिवार का प्रमुख, वृद्ध हो गया था । व्यापार की चोपडी वृद्ध हमेशा अपने पास रखता था । बच्चों को कुछ भी मालूम नहीं था । लेन देन कितनी है ? भांडवल कितना है ! इस की कोई भी जानकारी बच्चों को नहीं थी। वृद्ध एक किसी प्रसंग के निमित्त से अपने गांव गया। वहां वृद्ध को हार्ट अटेक आया । वाचा बंद हो गयो। शरीर को लकवा हो गया। बच्चो को खबर पडी। सब बच्चे दौडके अपने गांव आये । वृद्ध पिता की चिंता उनको नहीं थी। उस के साथ संपत्ति चली न जाय इस की चिंता थी।
वृद्ध दरवाजे के पास पलंग पर पड़ा था। एक दिन दरवाजे की तरफ इशारा कर रहा था, लेकिन कुछ नहीं बोल सकता था। बच्चे सोचते है कि पिताजी कुछ बोलना चाहते है। चोपडा और संपत्ति की जगह बताना चाहते है। किसी भी हालत में कुछ दवा दे के कुछ मिनिट उन को बोलते करना चाहिजे । एक वैद्य के पास गये । वैद्य के पास संजिवनी औषधि मूली थी। वैद्य ने पांच सौ रूपिया फीस बतलाई । बच्चे सोचते है कुछ बात नहीं । नफे के हिसाब से कुछ भी घाटे का सौदा नहीं है। वैद्य ने पैसा लेकर औषधि बना लिया। उसने कहा “ औषध वृद्ध के जीभ को
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चटा देना । थोडी देर के बाद गरमी आ जाओगी और वृद्ध दो मिनिट तक बोल सकेगा । औषध का डोस दिया गया । शरीर में गरमी आग | बच्चे पिताजी से कहते है- “पिताजी सब कुछ बताओ । बही चोपडा कहां रखा है - सब बता दो ।
बच्चो का व्यवहार में सहयोग नहीं था । इसलिए पिता का बच्चों पर विश्वास नहीं था । हमेशा कहते थे कि तुम तो दीवाला निकालोगे। कितने साल से पिता के मन में वहीं संस्कार थे । पिताजी बेटे से कहते है - "उधर देखो वह बकरी अंदर घुस कर झाड़ू खा रही थी । इतनी देर से मैं इशारा कर रहा हूँ आप कुछ समझते भी नहीं । इतने में दवा का असर खतम हो गया ।
बच्चे सोचते है-“ ५०० रूपये फोकट में गए। पांच रूपये खर्च कर के दो आने का झाडू मिल गया ।
जीवन को सुधरना है, तो पहले जीवन को संस्कारित करना चाहिये । अच्छे संस्कार जीवन के अन्तिम समय आनंद देंगे | जीवन में समाधि देंगे । स्वस्थता और शांति देंगे ।
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अनंत उपकारी जिनेश्वर भगवंत ने स्व को स्वयं में किस प्रकार खोज लेना, इसका अपूर्व परिचय प्रवचन के माध्यम से दिया ।
परमात्मा ने कहा, "जगत् अनित्य है और मृत्यू निश्चित है । इस दो बातों को अगर अच्छी तरह सोच लेना, तो उस का ध्यान सच्चा होगा |
जगत् नश्वर है | दुनिया की कोई भी चीज हमेशा रहनेवाली नहीं है । शरीर नश्वर है । प्रति क्षण हम मृत्यु की ओर जा रहे है । एक ना एक दिन यहाँ से जाना है, तो परभव की पूँजी यहाँ से प्राप्त करके जाना है । अपूर्व वात्सल्य से और करुणाभाव से परमात्मा ने इन बातों का मानव को परिचय दिया ।
संसार का संग्रह संघर्ष निर्माण करता है ।
योग-दर्शन का समर्थ विद्वान पातंजल ऋषि ने सही बतलाया है कि- विष्ट चित्त वृत्ति निरोध योग है ।
सम्राट अकबर एक वक्त जंगल में बंदगी ( नमाज ) पढ रहा था । उसी जंगल में एक माता अपने बालक के साथ लकडी तोडने के लिए आयी थी । वृक्ष की लकडी तोड कर, लड्ढे इकट्ठे कर ओ चली गयी । लडका वहाँ ही रह गया । बिचारा 'माँ माँ" करके रोने लगा । एक आदमी ने बच्चे की पूछताछ की। उसने कहा - " तुम्हारी माँ इस रास्ते से गयी है । तुम इसी सस्ते से
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चल जाओ। "बालक के जाने के रास्ते पर ही सम्राट की बंदगी चल रही थी । सुदर गालीचा लगाया हुआ था । बालक 'माँ' 'माँ' कर के माँ की खोज में दौड रहा था । उस गालीचा के ऊपर से बालक दौडता चला गया । उसे मालुम नहीं पड़ा कि अकबर नमाज पढ़ रहा रहा है। बालक माँ तक जा पहूँचा । लेकिन इधर सम्राट को बहुत गुस्सा आया । बालक को बुलाया गया । सम्राट ने पूछा “क्यों लडके इस गालीचा को गंदा करके मेरे सामने से तू चला गया, तुमने देखा नहीं कि मैं नमाज पढ रहा था ?" लडके ने जवाब दिया, "सम्राट मुझे माफ करना मैं, माँ से बिछड गया था । और माँ की खोज में मैं दौडता था । मुझे सिर्फ माँ के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया । मैं तो सब भूल गया था। मैं माँ की खोज में जब निकला तब मैं सब कुछ भूल गया था । मुझे मेरी माँ मिल गयी। आप अल्ला की खोज में निकले हो लेकिन आप तो सब कुछ जानते हो ।”
चित्त जब एकाग्र नहीं बनेगा, तब तक खोज अपूर्ण रहेगी। जब जगत् को भूल जाओगे, तब जात को पाओगे । जहाँ स्थिरता है, वहां मग्नता है, वहाँ गंभीरता है।
आत्मा को ध्यान से स्थिर बना दिया जाय तो वह मंगल बनेगी । योग मोक्ष का साधन है ।
एक उर्दू शायरने कहा, "अ दिल तूं क्या हर्ष करता है ?
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हजारो यहाँ आये और गये, जिनका आज नाम निशान और अस्तित्व भी नहीं हैं ।
सिकंदर के जैसा जगत् योद्धा इस दुनिया से चला गया । सिकंदर के कबरस्थान पर सिकंदर की माता आयी और पूकार ने लगी कि मेरा सिकंदर कहाँ हैं ? वहाँ एक फकीर बैठा हुआ था । उसने माता से कहा—-, " हे पगली ! तूं क्या खोजती है ? कई सिकंदर इस भूमि में गाडे गये । अब तू तेरे सिकंदर को कहाँ खोज पाओगी । अगर तूं ऐसे ही ढूंढती रहोगी तो तुझे ही यहाँ आना पडेगा ।
पूण्य बल से सत्ता, संपत्ति मिल गयी लेकिन अगर इस की प्राप्ति में समभाव नहीं आया तो जीवन का पतन होगा और वह दुर्गतीका कारण बनेगा ।
इसीलिए एक कविने कहा है
उछल लो कूद लो जब तक है जोर गलियों में ।
याद रखना, इस तन की उहेगी खाख गलियों में || द्रोणाचार्य जब चल बसे तब उन्होंने मरने से पहले पांडवो को अपनी अंतिम इच्छा कह दी । " मेरा अग्निसंस्कार वहाँ करो कि जहाँ पहले कोई भी अग्निसंस्कार नहीं हुआ हो । पांडव तो जगह की खोज में निकले । जहां जहाँ उन्होंने अग्निसंस्कार के लिए जगह निश्चित की वहाँ आकाशवाणी हो गयी कि यहां पहले
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अग्निसंस्कार हो गया है । दुनिया में ऐसी एक भी जगह नहीं कि जहाँ अग्निसंस्कार नहीं हुआ हो।
यह तो एक अजब बात है कि कबरस्थान के ऊपर बैठ के हम जिंदगी की बातें करते है। इसी लिए भगवान महावीर ने कहा-,"जिंदगी क्षणभंगूर है । जीवन में तुम स्वयं की स्थिरता प्राप्त करो।
उपयोग शून्यता से आत्मा दुःख का अनुभव करती है और उपयोग की जागृति में आत्मा सुख का अनुभव लेती है।
आज हमारे जीवन में स्थिरता का अभाव है । इसी कारण हमें निष्फलता प्राप्त होती है । हम जीवन की गर्जना करते है । यह आध्यात्मिक भाषा में एक पागलपन है।
राग औ द्वेष स्थिरता में बड़ी बाधा है। तेरा शत्रू तेरे अंदर में विद्यमान है, तूं बहार कहाँ ढूंढता है । संकल्प करों कार्य आज नहीं कल जरुर होगा। ___अंतिम समय पथारी पर सोया हुआ सिकंदर चिल्ला चिल्ला कर कहता था--, "मेरी अब्जो की संपत्ति है, लेकिन यह संपत्ति मुझे बचा नहीं सकी । मेरा सेनेपति जिन्होंने हजारों लोगों का कतलेआम किया वही आज मुझे मौत से बचाने में असमर्थ बन गया । अब इन द्यो के पास भी ऐसी कोई भी दवा नहीं है कि जो मुझे मौत से बचा सके ।
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गौतम बुद्ध रथ में बैठकर रास्ते से जा रहे थे। रास्तें में
न वृद्ध को देखा और सारथि से कहा - "यह क्या है ? " सारथि ने जवाब दिया यह वृद्ध है- हर आदमी वृद्ध बनता हैं, और बादमें इस संसार से चला जाता है । मौत का शिकार बन जाता है
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आगे गये। वहां एक दृश्य देखा और सारथी से पूछा “यह क्या है ?" सारथी ने कहा -: " महाराज यह मुडदा है । हर इन्सान अन्त में मुडदा बनता है ।
इस निमित्त से बुद्ध के
मन में वैराग्य भाव आया और संसार छोडकर सन्यास ग्रहण किया । बुद्ध के जीवन का यह Turninp-Point है ।
परमात्मा के वचन का जब सुषुप्त आत्मा पर प्रहार होता है तब वह जागृत बनती है ।
I
भगवान के सामने हमारी पुकार यह होनी चाहिये कि - हे भगवन् । मुझे संसार नहीं चाहिए । मैं तेरे द्वार संसार की आशा लेकर नहीं आया हूँ | जन्म, जरा, मृत्यु से मुक्त होने की भावना से मैं तेरे पास आया हूँ। मेरी साधना में मुझे शक्ति दे ।
परमात्मा के द्वार पर जो भीकारी बनके जाता है वह कभी भी सम्राट बन के नहीं आता । अगर समर्पण की भावना से जाओगे, तो सम्राट बन के आओगे ।
इराण का बादशहा एक दिन मसजोद में नमाज पढ रहा
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था। वहां बैठा हुवा एक फकीर मन में सोचता है-इस सम्राट के पास आज कुछ मांग लू । कुछ लेना हें तो बादशाह के पास ही लूंगा, भिकारी के पास से नहीं फकीर वही है जो भय रहीत होता है और खुदा के ऊपर पूरा विश्वास रखता है ।
फकीर फीकर का फाका करे, बोले वचन गंभीर । जिस ने दिया तन को वही देगा कफन को । बादशाह बन्दगी कर रहा था । अन्त में वह प्रार्थना करता है - " हे खुदा तेरी कृपा से मुझे अच्छी औलाद मिले, और एक किल्ला मैं जित छ, तो मेरे भंडार में कुछ भी कमी नहीं रहेगी ।
फकीर ने बादशाह की प्रार्थना सुनी।
बादशाह बाहर आया । खैरात बांट दी गयी सोना मोहर बाँट दी। फकीर को भी बाँटा गया । लेकिन फकीर ने मोहर फेंक दी। इस बात से बादशाह को बडी तोहीन हुई । उस फकीर को महल में बुलाया गया, और माहर फेंक देने की वजह पूछ गयी ।
फकीर ने कहा- मैंने मन में निश्चय किया था कुछ लूँगातो बादशाह से लूंगा - भिकारी से नहीं । तुम खुदा के पास औलाद, किल्ला माँग रहे थे। मैंने सोचा तुम भी भीकारी हो । तुम होलसेल में माँगते हो मैं रीटेल में माँगता हूँ ।
परमात्मा से कुछ माँगना यह परमात्मा के ऊपर अविश्वास करना है । परमात्मा की कृपासे सब कुछ मिलता है । हमारे मन में विश्वास होना चाहिए ।
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परमात्मा का दर्शन अलौकिक होता है । उस से दारिद्रय
चला जाता हैं ।
संसार के पापसे पीछे हटने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। आपने कभी सोचा है कि मैं कौन हुँ । तुम खुद में खुद के शत्रू हो । संसार में आप कर्म करते हो । इस कर्म Reverse जाना इस का अर्थ - प्रतिक्रमण - याने पाप से पीछे हटना ।
खुदा शब्द का अर्थ क्या है ? आपने कभी अर्थ जानने की कोशिश की है ?
खुदा याने
खुद
में आ जा । जगत् को छोड के स्वयं मे आजा | पहले स्वयं का परिचय करलो
हम जगत् को जानने का प्रयास करते हैं, लेकिन खुद को भूल जाते हैं । जगत् के लिए हमारे पास वक्त है लेकिन स्वयं के लिए फुरसत नहीं है ।
आत्मा स्वयं कर्म करती है और कर्म के परिणाम स्वयं को ही भोगने पड़ते है ।
जब तक अज्ञान रूपी अंधःकार में भटकते रहोंगे । इस अवस्था में कर्म तुम को नचावेगा । नर्तकी जैसे तुम नाचोगे और इस की दोरी कर्म के हाथ में होगी । नर्तकी शब्द को उंधा करो । 'कीर्तन' बन जाता है । जब से तुम्हारे जीवन में कीर्तन आयेगा, तब तुम कर्म को नचाओगे ।
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अकबर बादशाद के पास एक मुल्ला आया और अकबर बादशाद को कहा-" मैं एक अजीब खेल आप के सामने पेश करना चाहता हूँ । इस खेल के वास्ते मैं ने चार मास खूब प्रयास किया है । बादशाह ने इजाजत दे दी । खेल शुरू हुआ । मुल्ला ने बिल्ली का डान्स सुरु किया । डुगडुगी बजती रही और बिल्ली नाचने लगी । दों पांव के ऊपर खडे रहके नाचती रही । दीपक सीर के ऊपर रख कर एकाग्रता से नाचने लगी। बादशाह खुश हुआ। बादशाह ने बिरबल से कहा कि इस मुल्ला को अच्छा इनाम दिया जाय । बिरबल होशियार था । उसने अंदर जा कर एक चूहा मँगाया और बिल्ली की तरफ छोड दिया । नाचती हुई बिल्ली ने जब चूहा देख लिया तो डान्स छोडकर चूहे के तरफ भाग पडी। चार महीने का सब ट्रेनींग खतम हो गया । - अपनी स्थिति और बिल्ली की स्थिति में कोई अंतर नहीं है। साधू महाराज आते है चातुर्मास में अखंड आपको धर्मशिक्षा दी जाती है । आप बडी एकाग्रता से सुनते हो । उपाश्रय में तो आप की समाधि लगती है। साधू महाराज तो सोचते है-ट्रेनींग तो अच्छा हुआ। हमारा चातुर्मास सफल हो गया । लेकिन आप इधर से घर जाते हो जब लोभ रुपो चूहा आपके सामने आता तब सब भूल जाते हो और उस लोभ रुपी चूहे की तरफ दौडते हो !
लोभ का साम्राज्य सारे जगत् पर छाया हुआ है। हमारा
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स्वभाव, सदियों से चलते आये हुए हमारे बुरे संस्कार; पुरुषार्थ के बिना नहीं छूटेंगे।
जगत् और जात का वजन ले के हम ऊपर नहीं जा सकते। ऊपर जाना हैं तो हमें भार मुक्त बनना चाहिए।
आप अरोप्लेन से सफर करते हो । अरोप्लेन के सफर में कितना किलो लगेज साथ में लेना इसका प्रमाण होता है । दस या पंदर किलो से जादा लगेज आप नहीं ले सकते । सफर अच्छी तरह, दुर्घटना रहीत, सुरक्षित हो जाय इसके लिए यह बंधन रखा है । दो तीन हजार फूट ऊँचाइ से जाने के लिए हमें लगेज का बंधन स्वीकारना पडता है। हमें तो मोक्ष को जाना है। कितनी ऊँचाइ पर जाना है सोचलो । तो फिर हमें भार मुक्त होना पडेगा।
परमोत्मा कहते है, "आप सोचो कि मैं कौन हूँ । स्वयं के चिंतन में स्वयं को एकाग्र करो।
नाम, मकान सब उधार है।
कोई व्यक्ति बंधन को चाहता नहीं । सब कहते मुझे आजादी चाहिए । व्रत, और नियम का बन्धन हमें नहीं चाहिए ।
आप को जॅचे या न ऊंचे आप को कई बार बन्धन स्वीकारना पडता है। जीवन एक लाचारी है । कर्म के कैदी बन कर
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इस जगत् में आये हो । कोई आजाद नहीं है। पेट के लिए जगत की गुलाणी करनी पड़ती हैं ।
भरा हुआ पेट नशा उत्पन्न करता है। कर्म आत्मा का शत्रु है। आप के घर में बैठा हुआ है । एक दिन उपवास करोगे, चार आहोर का त्याग करोगे तो दूसरे दिन कर्म आप का कान पकडेगा और कल के व्याज सहित आप से वसूल करेगा । रबडी, हलवा, दूध, सब चीजे पारणा में वसूल करेगा । कर्म भयंकर डाकू है। शरीर आत्मा का बन्धन है । शरीर रोज आत्मा का पूण्य लूटता है । आप कुछ भी नही कर सकते हो। संसार उबलता हुवा तपेला है।
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