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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस लिए महावीर अनार्य देश में चले गये, जहाँ कोई परिचित नहीं था । वहाँ जाते ही महावीर पर आक्रमण हुआ । गालियाँ सुननी पडी । असह्य मार भी खानी पडी। लोगों ने महावीर के प्रति असभ्य वर्तन किया, लेकिन महावीर अंतर में प्रसन्न थे । धैर्य की, सहनशीलता की कसोटी हो गयी । महावीर की विश्वास हो गया की यहाँ ही मेरी साधना पूरी होगी । अज्ञान, अविवेकी दशा में मैं ने जो भी कर्म बंध किया है उस कर्म का मुझे नाश करना है । इस के लिए दुःख, विषम परिस्थिति, उपसर्ग मेरे सहाय्यक बनेंगे । महावीर ने इन सब को अपना मित्र माना । अपमान का भी महावीर ने स्वागत किया । दुःख के प्रति समता भाव रखने से ही परमात्मपद की स्थापना होती है । दुःख का परमात्मा ने स्वीकार किया और रोज हम उस का तिरस्कार करते है । पोष्टमन तार ले के आता है ! आप दस्तरवत कर के तार लेते हैं । तार खोलकर पढते हो। अगर इस तार में भयंकर दुःखमय समाचार हो तो आप पोष्टमन को गाली देंगे ? नहीं । पोष्टमन तो सिर्फ निमित्त है। अशुभ कर्म का आप मौन पूर्वक स्वीकार करेंगे। महावीर परमात्मा ने कहा-"पोष्टमन के साथ आप जिस तरह से व्यवहार करते हो उसी तरह संसार के साथ करोंगे तो आप परमात्मा बन जाओगे । आप के साथ किसी ने बूरा वर्तन For Private And Personal Use Only
SR No.008727
Book TitlePadmaparag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherShantilal Mohanlal Shah
Publication Year1979
Total Pages39
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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