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की कल्पना है । अज्ञानता है । हम सुख चाहते है, पसंत नहीं है । दुःख के प्रति हमारा तिरस्कार है ।
दुःख हमें
लेकिन जगत् की महान् आत्माओं नें जैसें की - महावीर, राजा रामचंद्रजी ने दुःख का बड़े प्रेम से स्वागत किया । चित्त की एकाग्रता से अगर हम देखें तो दुःख का हमारे ऊपर महान् उपकार है ।
अव्यवहार राशी से जीवन की शुरुवात होती है । उस वक्त हम Senseless थे। दिल और दिमाग नहीं था । बाद में हम एकेंद्रीय बने । इस अवस्था में एक श्वासोश्वास में कई बार जन्म मरण होता है । हमने अनंत कष्ट सहन किया । साधना सिद्ध हो गई। वहां से व्यवहार राशी में आये । बेन्द्रिय तेन्द्रिय, चौरेंद्रिय, पंचेंद्रिय - सब जगह हम अपार कष्ट सहन करते आयें । अकाम कर्म निर्जरा हो गयी । साधना सिद्ध हो गयी । उस वक्त मन नहीं था । विचार करने की या जानने की कोई स्थिति नहीं: थी । पंचेंद्रिय तक मनुष्य भव तक हमें पहुँचा देने का काम दुःख ने किया है ।
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महावीर ने दुःख को आपना मित्र बनाया । दुःख का प्रेम से स्वागत किया । महावीर ने सोचा अगर मैं मगध देश में, खुद को राजधानी में रहूं, विहार करुं, तो लोग मेरा सन्मान करेंगे, सत्कार करेंगे, सुख देंगे । इससे मेरी साधना खंडित होगी । परिचय और प्रसिद्धि पतन का एक साधन है ।