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जिनभाषित
वैशाख, वि.सं. 2064
श्री सिद्धकूट चैत्यालय
सोनी जी की नशियाँ, अजमेर में विराजमान अतिप्राचीन भव्य जिनप्रतिमा
वीर निर्वाण सं. 2533
अप्रैल, 2007
wwelt@ry.org.
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आचार्यश्री विद्यासागरजी
कदोहे
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10 बिन तन बिन मन वचन बिन, बिना करण बिन वर्ण। दिखा रोशनी रोष ना, शत्रु मित्र बन जाय। गुणगण गुम्फन घन नमूं, शिवगण को बिन स्वर्ण॥ भावों का बस खेल है, शूल फूल बन जाय। 2
11 पाणि-पात्र के पाद में, पल-पल हो प्रणिपात। उच्च-कुलों में जनम ले, नदी निम्नगा होय। पाप खपा, पा, पार को, पावन पाऊँ प्रान्त॥ शान्ति, पतित को भी मिले, भाव बड़ों का होय॥
12 शत-शत सुर-नर पति करें, वंदन शत-शत बार। सूर्योदय से मात्र ना, ऊष्मा मिले प्रकाश। जिन बनने जिन-चरण रज, लूँ मैं शिर पर सार॥ सूर-दास तक को मिले, दिशा-बोध अविनाश॥
4 सुर-नर यति-पति पूजते, सुध-बुध सभी बिसार। मानव का कल-कल नहीं, कल-कल नदी निनाद। गुरु गौतम गणधर नD, उमंग से उर धार॥ पंछी का कलरव रुचे, मानव! तज उन्माद॥
14 नमूं भारती तारती, उतारती उस तीर। भू पर निगले नीर में, ना मेंढक को नाग। सुधी उतारें आरती, हरती खलती पीर॥ निज में रह बाहर गया, कर्म दबाते जाग॥
6 तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश। कब तक कितना पूछना, चलते चल अविराम। करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष॥ रुको रुको यूँ सफलता, आप कहे यह धाम॥
16 कौरव रव-रव में गये, पाण्डव क्यों शिव-धाम। जिनवर आँखें अध-खुलीं, जिनमें झलके लोक। स्वार्थ तथा परमार्थ का, और कौन परिणाम? आप दिखे सब, देख ना!, स्वस्थ रहे उपयोग। 8
17 पारस-मणि के परस से, लोह हेम बन जाय। ऊधम से तो दम मिटे, उद्यम से दम आय। पारस के तो दरस से, मोह क्षेम बन जाय॥ बनो दमी हो आदमी, कदम-कदम जम जाय॥
18 एक साथ लो! बैल दो, मिल कर खाते घास। दोषरहित आचरण से, चरण पूज्य बन जाय। लोकतन्त्र पा क्यों लड़ो? क्यों आपस में त्रास?॥ चरण धूल तक शिर चढ़े, मरण पूज्य बन जाय॥
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'पूर्णोदयशतक' से साभार
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रजि. नं. UPHIN/2006/16750
अप्रैल 2007
सम्पादक
प्रो. रतनचन्द्र जैन
कार्यालय
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मासिक
जिनभाषित
अन्तस्तत्त्व
• स्तवन
• आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे वस्तुतत्त्व समझने के लिए अध्यात्मयात्रा जरूरी
: उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी
: मुनि श्री योगसागर जी
• श्री नेमिनाथ स्तवन
• श्री पार्श्वनाथ स्तुति
• सम्पादकीय : 'ऐलक' नहीं, 'एलक' लिखें
• लेख
• किशनगढ़ के गौरव
• व्यवहार रत्नत्रय
• मिथ्यात्वनिवारक धर्ममूर्ति 'चारित्रचक्रवर्ती'
वर्ष 6,
: डॉ. राजेन्द्रकुमार वंसल
: मूलचन्द लुहाड़िया
: स्व. पं. लालबहादुर जी शास्त्री
• दिगम्बर- परम्परा को बनाये रखने का दायित्व
किस पर
: पं. वसन्तकुमार जैन शास्त्री
• कुण्डलपुर के बड़े बाबा पर उपसर्ग : ब्र. अमरचन्द्र जैन
पृष्ठ आ. पृ. 2
: पं. रतनलाल बैनाड़ा
अङ्क 4
आ. पृ. 3
आ. पृ. 4
लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है । 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा ।
• बालवार्ता : दान 'अहं' का : डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती'
• मुक्तक-मणियाँ : डॉ. विमला जैन 'विमल'
• आपके पत्र
● समाचार
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• कुण्डलपुर में दिगम्बर जैन साधु : मनैला अन्ने - मारिया पोप 14 • पाखण्ड को प्रणाम कब तक ? : स्वामी अग्निवेश
• जैन महिलाओं का चतुर्मुखी विकास : विमला जैन • अक्षयतृतीया पर्व : सुशीला पाटनी
• सीखो अध्यात्म की गिनती : सुगन्धी चौधरी • जिज्ञासा समाधान
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सम्पादकीय
'ऐलक' नहीं, 'एलक' लिखें
प्रायः देखा जाता है कि हम बोलते 'एलक' हैं, लेकिन लिखते 'ऐलक' (अइलक) हैं। यह ठीक नहीं है। शुद्ध शब्द 'एलक' ही है, जैसा कि उच्चरित किया जाता है।
___ स्व० पण्डित हीरालाल जी जैन सिद्धान्तशास्त्री ने 'ऐलक' शब्द को 'अचेलक' का प्राकृतरूप माना है। वे कहते हैं कि 'कगचजतदपयवां प्रायो लुक्' (हैम प्राकृतशब्दानुशासन ८/१/१७७) इस नियम के अनुसार 'अचेलक' के 'च' का लोप हो जाने पर 'अ' शेष रहा और 'अएलक' इस स्थिति में वृद्धिसन्धि (अ+ए-ऐ) होने पर 'ऐलक' पद बन गया। नसमास में 'अ' (नञ् ) से 'ईषद्' अर्थ लेने पर 'ऐलक' शब्द अल्पवस्त्रधारी (केवल एक कौपीनधारी) उत्कृष्ट (एकादशप्रतिमावलम्बी) श्रावक का अर्थ देता है। (वसुनन्दि-श्रावकाचार | भारतीय ज्ञानपीठ काशी/१९५२ ई./प्रस्तावना / पृ.६३) क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी ने भी 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' (भाग १/पृ. ४६८६९) में पण्डित जी के इस मत का उल्लेख कर इसे मान्यता प्रदान की है।
किन्तु, पण्डित जी का यह मत समीचीन नहीं है। उपर्युक्त नियम के अनुसार 'च' का लोप होने से अवशिष्ट 'ए' उद्वृत्त स्वर है। अतः 'स्वरस्योवृत्ते' (हैम प्राकृतशब्दानुशासन / ८/१/८) सूत्र के अनुसार पूर्ववर्ती 'अ' के साथ उसकी सन्धि नहीं हो सकती, जैसे निशाचरः > निसाअरो, रजनीचरः > रयणीअरो। अतः प्राकृत में 'ऐलक' शब्द नहीं बन सकता। यदि सन्धि मानी भी जाय, तो भी प्राकृत में 'ऐ', 'औ' स्वरों का अस्तित्व न होने से 'ऐलक' शब्द सिद्ध होना असंभव है। प्राकृत ग्रन्थों में संस्कृत 'अचेलक' का 'अएलक' या 'ऐलक' रूप मिलता भी नहीं है, सर्वत्र 'च' ज्यों का त्यों उपलब्ध होता है, यथा- 'अचेलमण्हाणं' (प्र.सा./गा.३/८), 'आचेलकमण्हाणं' (मूलाचार/ गा.३), 'आचेलक्कुद्देसिय' (भगवती-आराधना/गा.४२३), 'अचेलगो य जो धम्मो' (श्वेताम्बर उत्तराध्ययनसूत्र / २३/२९)। अतः 'ऐलक' शब्द न तो प्राकृतभाषा का शब्द है, न ही संस्कृत का। संस्कृ उपलब्ध होता है, किन्तु उसका अर्थ एडक (मेढ़ा) है (आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी-कोश)। ____ इसके अतिरिक्त अल्पचेलक-अर्थ में 'अचेलक' शब्द का प्रयोग तो श्वेताम्बर-आगमों में भी नहीं हुआ है. दिगम्बर-आगमों में होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उत्तरवर्ती श्वेताम्बर वत्तिकारों ने अवश्य मनियों की सचेलता को आगमोक्त सिद्ध करने के लिए 'अचेलक' शब्द को अल्पचेलक-अर्थ में प्रयुक्त बतलाने की चेष्टा की है, किन्तु वह असमीचीन है। यदि दिगम्बरमत में भी 'अचेलक' शब्द को 'अल्पचेलक' अर्थ का प्रतिपादक माना जाय, तो मुनि के लिए विहित 'आचेलक्य' मूलगुण से 'अल्पचेलत्व' मूलगुण अर्थ प्रतिपादित होने से कोई तर्क नहीं रोक सकता, जिससे दिगम्बरजैन-मत में भी सवस्त्रमुक्ति की मान्यता का सिद्ध होना अनिवार्य है। अतः 'अचेलक' शब्द को अल्पचेलक अर्थ का प्रतिपादक किसी भी तरह नहीं माना जा सकता।
प्राचीन ग्रन्थों में ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक-ऐलक ये दो भेद भी नहीं मिलते। आचार्य कुन्दकुन्द ने उत्कृष्ट श्रावकों के लिंग को उत्कृष्ट लिंग कहा है, किन्तु क्षुल्लक-ऐलक शब्दों का प्रयोग नहीं किया (सुत्तपाहुड/गा.२१)। स्वामी समन्तभद्र ने भी क्षुल्लक-ऐलक भेद किये बिना ग्यारहवीं-प्रतिमाधारी श्रावक को 'चेलखण्डधरः' कहा है और टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसका अर्थ कौपीन (लँगोटी) मात्र धारण करनेवाला किया है तथा उसे 'आर्य' शब्द से अभिहित किया है- "चेलखण्डधरः कौपीनमात्रवस्त्रखण्डधारकः आर्यलिङ्गधारीत्यर्थः।" (रत्नकरण्डश्रावकाचार / कारिका १४७)। पं० आशाधर जी ने भी उसे 'आर्य' कहा है। (सागारधर्मामृत /७/४८)।
सर्वप्रथम ७वीं शती ई० के रविषेणकृत पद्मपुराण (१०० / ३२-४१) में कौपीन-अंशुकधारी उत्कृष्ट श्रावक के लिए 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग किया गया है। तत्पश्चात् १०वीं शती ई० के हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोश' में भी 'क्षुल्लक' शब्द व्यवहृत हुआ है। (७३. यशोधर-चन्द्रमती कथानक / श्लोक २३७-२३८)। किन्तु १२वीं शती ई० के आचार्य वसुनन्दी ने अपने श्रावकाचार (गाथा ३०१-३१०) में क्षुल्लक-ऐलक शब्दों का प्रयोग न
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कर एकादशप्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकों के प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट, ये दो भेद किए हैं। सर्वप्रथम १६वीं शती ई० में पं० राजमल्ल जी ने अपनी 'लाटीसंहिता' (६/५५) में द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक के लिए 'एलक' शब्द का प्रयोग किया है- "उत्कृष्टः श्रावको द्वेधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा । ' " इससे यह निर्णय युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि 'चेलखण्डधरः' के साथ लोक में 'खण्डचेलक : ' शब्द भी प्रचलित हुआ और प्राकृत के नियमानुसार स्वरमध्यग 'च्' का लोप होने पर 'खण्डएलक' शब्द का विकास हुआ। पश्चात् प्रयत्नलाघव की प्रवृत्तिवश केवल 'एलक' शब्द का प्रयोग होने लगा। संस्कृत में शिव और परशुराम के अर्थ में 'खण्डपरशुः' शब्द उपलब्ध होता है । (आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी कोश) । 'खण्डचेलक : ' ऐसा ही शब्द है । अथवा 'आर्य' शब्द आर्यक > आरक > एरक > एलक इस तरह 'एलक' रूप में विकसित हुआ है। 'एलक' शब्द का 'ऐलक' रूप में प्रचलन सन्धिविच्छेद करनेवालों की कृपा से हुआ है । 'लाटीसंहिता' में 'एलक' शब्द का प्रयोग केवल तीन स्थानों में सन्धिपूर्वक हुआ है, यथा- 'क्षुल्लकश्चैलकः' (६/५५) 'तत्रैलकः' (६/५६), 'चैलकस्य' (६/५८) । यहाँ तीनों जगह 'च -एलकः ' 'तत्र+एलकः', 'च + एलकस्य' इस प्रकार सन्धिविग्रह किया जाना चाहिए, किन्तु 'च + ऐलक:', 'तत्र + ऐलक:' ऐसा विच्छेद कर लिया गया, जो समीचीन नहीं है। उच्चारण भी 'एलक' ही किया जाता है, 'ऐलक' (अइलक) नहीं।
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निर्ग्रन्थ
आचार्य महाराज अपने संघ सहित द्रोणगिरि में विराजे थे। बड़ी मनोरम जगह है। सिद्ध क्षेत्र है । पर्वत पर प्राचीन जिनालय हैं। नीचे तलहटी में व्रती आश्रम व चौबीसी मंदिर हैं। वर्णीजी ने कभी इसे 'छोटा सम्मेद शिखर' कहा था । आचार्य महाराज सहित सारा संघ पर्वत पर ही आत्म-साधना में लीन रहता था । आहार चर्या के लिए नीचे आना और चर्या के उपरान्त वापिस पर्वत पर लौट जाना, रोज का क्रम था । आचार्य महाराज ने यहाँ रहकर प्रतिदिन तपती दुपहरी में तीन-तीन घंटे शिलातल पर सूर्य की प्रखर किरणों के नीचे बैठकर ध्यान किया और सारे संघ को साधना के साथसाथ अध्यात्म की शिक्षा भी दी।
रतनचन्द्र जैन
उन दिनों संघ में आचार्य महाराज के साथ हम सभी एलक- क्षुल्लक ही थे। अभी मुनि दीक्षा किसी को नहीं मिली थी। एक दिन सुबह अचानक मालूम पड़ा कि एलक श्री समयसागर जी केशलुंचन कर रहे हैं। हम सब सोच में पड़ गए कि बात क्या है? अभी बाल बहुत छोटे हैं, दो माह भी पूरे नहीं हुए। पर अगले ही क्षण हम निश्चिन्त होकर अपने ध्यान- अध्ययन में लग गए और सोचा कि जो भी होगा सामने आएगा। असल में, आचार्य महाराज के साथ यही तो मजा है कि भविष्य में क्या होगा, इस चिन्ता से मुक्त रहकर वर्तमान में जीने की शिक्षा मिलती है। तब जो भी होता है, सुखद होता है।
लगभग नौ बजे अत्यन्त सादगी से बिना किसी आडम्बर व प्रदर्शन के, आचार्य श्री के द्वारा प्रथम मुनिदीक्षा सम्पन्न हुई। हम सभी ने आचार्य महाराज द्वारा दीक्षित प्रथम निर्ग्रन्थ श्रमण मुनि समयसागर जी की चरण वंदना की और अत्यन्त आत्म-विभोर होकर परस्पर चर्चा में लग गए। इतने में आचार्य महाराज स्वयं आकर हमारे बीच खड़े हो गए और बोले, "क्या बात है ? सभी बहुत खुश हो" हमने कहा कि " आज बहुत अच्छा लग रहा है। निर्ग्रन्थ होना अत्यन्त आनन्द की बात है ।" वे मुस्करा कर बोले, "आत्म-विकास के लिए यही उत्साह कल्याणकारी है।" हम सभी उनकी इस आश्वस्ति और प्रसाद से आप्लावित हुए ।
आज जब कभी वह सब याद आता है, तो सोचता हूँ कि दूसरे जीवों के हित का मुख्यरूप से प्रतिपादन करने वाले, आर्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय प्रधान निर्ग्रन्थ आचार्य ऐसे ही होते होंगे। वर्षों पूर्व पूज्यपाद स्वामी के मन में ऐसे ही आचार्य की छवि बनी होगी, तभी तो उन्होंने लिखा होगा
"परहित प्रतिपादनैक-कार्यमार्य-निषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यम् ।"
द्रोणगिरि ( मार्च, 1980 )
मुनि श्री क्षमासागरकृत 'आत्मान्वेषी' से साभार
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किशनगढ़ के गौरव
मूलचन्द लुहाड़िया
किशनगढ़ प्रवास के गत अर्द्धशताधिक वर्षों में मुझे । का स्वरूप बन गया। गृहस्थ अवस्था में भी वे साधु सदृश स्थानीय एक व्यक्ति के आदर्श व्यक्तित्व ने सर्वाधिक जीवन जीते थे। दो समय सात्त्विक भोजन । एक सब्जी प्रभावित किया और आज उनको किशनगढ़ का गौरव के साथ रोटी और कभी-कभी तो केवल छाछ और रोटी । घोषित करने में, मैं अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता दो जोड़ी सादा सूती कपड़े। संभवतः जीवन भर में एक हूँ। वे व्यक्ति हैं माननीय पं. महेन्द्र कुमार जी पाटनी शास्त्री सूती कोट बनवाया और उसी को सँभालकर रखते हुए काव्यतीर्थ । वे व्यक्ति नहीं थे, अपितु जैनागम के प्रतिरूप पहना। ऊन एवं चमड़े के प्रयोग का उन्हें त्याग था पंडित थे। उन्होंने आगम को केवल पढ़ा या पढ़ाया ही नहीं, बल्कि जी वर्तमान परिस्थिति के अनुरूप एवं भावी आकांक्षाओं आगम को जिया था और ऐसा जिया था कि उनका जीवन का निरोधकर आदर्श परिग्रह-परिमाण व्रत का पालन करते स्वयं में आगम बन गया था। गृहस्थ अवस्था में वे एक थे । अपनी सीमित आय के अनुरूप सीमित व्यय संयोजितकर आगमानुकूल चर्यावाले सद्गृहस्थ रहे और यथासमय संन्यास परिवार का निर्वाह करते थे । पाप के सदृश ऋण से भी अवस्था धारणकर आगमानुकूल चर्यावाले मुनि रहे । दूरी बनाए रखते थे।
मेरे किशनगढ़ - प्रवास के प्रथम दिन ही चन्द्रप्रभु जिनालय के प्रांगण में सायंकाल पंडित जी के दर्शन हुए। प्रतिदिन सायं पंडित जी नियमित शास्त्र पढ़ते थे। मैं भी शास्त्रसभा में आने लगा। दो तीन दिन स्वाध्याय के समय चर्चा में मैंने कुछ भाग लिया, तो पंडित जी ने कहा कि कुछ समय मैं भी शास्त्र वाचन करूँ। मैंने कहा मैं अल्पज्ञ हूँ, आपके समक्ष मेरा शास्त्रवाचन न उपयुक्त है, न आवश्यक। किंतु पंडित जी नहीं माने और आधा घंटा स्वयं वाचनकर शेष आधा घंटे के लिए मुझे वाचन के लिए बैठा देते थे। यह व्यवहार उनकी महानता, सरलता, निरभिमानता और वात्सल्य का दिग्दर्शन करता I
विद्यालय में संस्कृत, अंग्रेजी और धर्म का अध्यापन कराते थे । विद्यार्थियों को इन्दौर परीक्षालय की विभिन्न धार्मिक परीक्षाएँ दिलाते थे । सम्पूर्ण दिनचर्या नियमित और समय-प्रबद्ध रहती थी । प्रत्येक कार्य ठीक समय पर करना उनकी आदत बन गया था। वे जीवन का थोड़ा भी समय व्यर्थ नहीं खोते थे। उनके द्वारा शिक्षण प्राप्त उनके शिष्य आज भी उनके अध्यापन, अनुशासन एवं समयनिष्ठता की भारी प्रशंसा करते हैं। उनके द्वारा प्रदत्त धार्मिक संस्कार वे अपने जीवन की बहुमूल्य सम्पत्ति मानते हैं ।
|
के
अपने माता-पिता की सेवा के साथ-साथ दोनों पुत्रों शिक्षण, जीवननिर्माण एवं सत्-संस्कारारोपण पर पूरा ध्यान देते थे। परिणामस्वरूप दोनों ही पुत्र आदर्श श्रावक बन गए। अपने ज्येष्ठ पुत्र डॉ. चेतनप्रकाश के रूप में उन्होंने समाज को एक अध्येता साहित्यसेवी विद्वान् प्रदान किया । वस्तुत: डॉ. चेतनप्रकाश पंडित जी की एक सदृश प्रतिकृति है। पंडित जी के जीवन के उद्देश्यों, सादा संयमी जीवन, साहित्य सेवा, धर्मशिक्षण एवं धर्मप्रभावना को डॉ. चेतन प्रकाश ने गुणवृद्धि कर अपने जीवन में अपनाया है। गुणी पिता एवं उनके गुणी पुत्र दोनों किशनगढ़ के गौरव हैं।
पंडित जी ने तत्कालीन पत्रिका 'खंडेलवाल जैन हितेच्छु' का सफल संपादन किया। जिनवाणी की सेवा के रूप में उन्होंने अष्टपाहुड, पार्श्वनाथचरित्र एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा का हिंदी-भाषांतर लिखा । समय-समय पर किशनगढ़ में आगत अथवा वर्षायोगरत आचार्य ज्ञानसागर जी मुनि विद्यासागर जी मुनि श्री श्रेयांससागर जी आदि के मुनिसंघों
किशनगढ़ के निकट ग्राम उंटड़ा में सन् 1916 में जन्मे पं. महेन्द्र कुमार जी ने अजमेर में रहते हुए काव्यतीर्थ तथा शास्त्री की शिक्षा प्राप्त की और कुछ दिनों पश्चात् किशनगढ़ में के. डी. जैन विद्यालय में अध्यापक नियुक्त हुए। अजमेर में ही उनका प्रथम विवाह हुआ था, किंतु पत्नी अधिक दिन साथ नहीं रहीं। उनकी दूसरी विवाहित पत्नी ने दो पुत्र श्री चेतनप्रकाश एवं पदमचंद एवं एक पुत्री को जन्म दिया। पुत्री के जन्म के समय ही द्वितीय पत्नी का भी लगभग सन् 1949 में निधन हो गया। उस समय पंडित जी की उम्र मात्र 33 वर्ष थी, जो युवावस्था ही मानी जाती है। पंडित जी चाहते तो एक और विवाह कर सकते थे, किंतु उन्होंने उस घटना के पश्चात् जीवन की धारा संयम की ओर मोड़ दी । सादा एवं सात्त्विक भोजन, सादे वस्त्र, सादा रहन-सहन तथा उच्च विचार, यही उनके जीवन
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के सान्निध्य में स्वाध्याय एवं पठन-पाठन में अपना समय देते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी को विशेषत: हिंदी व संस्कृत का अध्ययन पंडित जी ने कराया था ।
समय बीतने के साथ ही पंडित जी के हृदय में वैराग्य की वृद्धि होती गई और तीर्थक्षेत्रों की वंदना कर लेने के बाद एक दिन वाहन का त्याग कर दिया, जो उनके राग भाव के शिथिल होने का सूचक था। उक्त नियम के फलस्वरूप पंडित जी अपने दोनों पुत्रों के विवाह के अवसर पर बारात में कुचामन सिटी व नीमच नहीं गए। स्वयं के पुत्रों के विवाह में, बारात में नहीं जाना पंडित जी के मोह व राग के कम होने का एक अनुपम उदाहरण है पंडित जी के हृदय में उत्पन्न वैराग्य के अंकुर धीरेधीरे पुष्ट होते गए । स्वामी समंतभद्र के शब्दों में वे घर में रहते हुए भी 'संसार शरीर भोग निर्विण्ण' थे। उनकी जीवनचर्या पर पं. दौलतराम जी का कथन 'गेहीपै गृह में न रचे ज्यों, जल तैं भिन्न कमल है' पूरी तरह चरितार्थ होता था ।
I
पंडित जी 31 जुलाई 1974 को 58 वर्ष की आयु में के. डी. जैन विद्यालय की सेवा से निवृत्त हो गए। अपने कार्यकाल में पंडित जी एक उत्कृष्ट आदर्श अध्यापक रहे। सह-अध्यापकों एवं छात्रों से उनका अत्यंत सौहार्दपूर्ण एवं वात्सल्यपूर्ण व्यवहार रहा ।
उनकी सेवानिवृत्ति के समय मैं विद्यालय का मंत्री था। मैंने पंडित जी से निवेदन किया कि अध्यापकीय पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे विद्यालय के छात्रावास के अधीक्षक का पद सँभाल लेवें, जिसके लिए हम उन्हें समुचित वेतन प्रदान करेंगे। मेरे निवेदन का जो पंडित जी ने उत्तर दिया उसको सुनकर मैं एक ओर आश्चर्यचकित हुआ और दूसरी ओर उनकी उत्कृष्ट निःस्पृहवृत्ति के प्रति मेरा हृदय श्रद्धा से भर गया । वे बोले - "लुहाड़िया जी आप समझदार होकर भी मुझे सेवानिवृत्ति के बाद भी वेतन के लोभ में घर में ही फँसाये रखना चाहते हो। मैंने संकल्प किया हुआ है कि विद्यालय से सेवानिवृत्ति के पश्चात् मैं जीवन का शेष समय गृहत्यागकर संयम की साधना में व्यतीत करूँगा। प्रायः सेवानिवृत्ति के पश्चात् व्यक्ति कमाई के साधन की खोज में रहता है । किन्तु दृढ़ संकल्प के धनी ज्ञान और वैराग्य की ज्योति हृदय में जगाए पंडित जी ने स्वयं सामने आए कमाई के साधन को ठुकरा दिया और सेवानिवृत्ति के तुरंत पश्चात् कुछ समय में ही सभी गार्हस्थिक संकल्प-विकल्पों से मुक्त होकर सदा के लिए
घर-परिवार छोड़कर आचार्यकल्प श्रुतसागर जी महाराज के संघ में प्रवेश कर लिया। संघ में कुछ दिनों तक ब्रह्मचारी भेष में साधना का अभ्यास कर दिनांक 8 दिसम्बर 1974 को उस नर रत्न ने क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। किन्तु कोपीन और खण्ड वस्त्र भी उस मुक्ति पथिक को भार लग रहे थे और केवल 6 माह के अल्प समय के पश्चात् ही उन्होंने दिनांक 12 जून 1975 को सम्पूर्ण परिग्रह का त्यागकर महान् मुनि पद अंगीकार कर लिया और परमपूज्य मुनिराज समतासागर जी बन गए। नाम के अनुरूप समतापरिणामों के धनी पू. समतासागर जी महाराज ने साधुकाल में निर्दोष मुनिचर्या का पालन किया ।
मुनिराज समतासागर जी महाराज आचार्य समंतभद्र द्वारा स्थापित स्वरूप के अनुसार ज्ञान ध्यान व तप में सदैव लीन रहते थे। स्वयं के स्वाध्याय के साथ-साथ संघ के साधुओं एवं ब्रह्मचारियों को भी पढ़ाते थे । वे तीन वर्ष, साढ़े पाँच माह के अल्प साधुकाल की साधना के बाद केवल 62 वर्ष की आयु में ही समाधिपूर्वक इस मनुष्य पर्याय को छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। उनका देहांत अत्यंत चमत्कार पूर्ण रहा।
पू. समतासागर जी महाराज अन्य तीन मुनिराज पू. अजितसागर जी, पू. गुणसागर जी एवं पू. वर्द्धमानसागर जी के साथ कालू से नीमाच बिहार में थे । पू. मुनिश्री मार्ग में संघस्थ ब्रह्मचारी को शिक्षण देते हुए चल रहे थे कि एकाएक कटे हुए वृक्ष के समान गिर पड़े और अल्प समय में ही समाधिलीन हो गए। स्पष्टतः आगमचर्चा करते हुए उनका उपयोग शुभोपयोग में था एवं गिरने के बाद अवश्य ही उन्होंने शुद्धोपयोग को प्राप्त किया होगा । प्रत्यक्षत: किसी प्रकार की शारीरिक पीड़ा एवं मानसिक संताप का कोई कारण वहाँ प्रकट नहीं था और मुखमुद्रा पर अभिव्यक्त सौम्यता एवं शांति उनके अंदर के शुद्धोपयोग को द्योतित कर रही थी ।
ऐसे उत्कृष्ट गृहस्थ- जीवन एवं आदर्श साधु-जीवन जीकर उस महान् साधक ने मानों एक प्रयोगात्मक श्रावकाचार एवं यत्याचार की रचना श्रद्धालुओं के पठन एवं आचरण के लिए कर दी। उन्होंने अपने मनुष्यभव को सफल बना हुए हम सबको प्रेरणादायी मार्गदर्शन प्रदान किया। ऐसे परमपूज्य समता सागर जी महाराज के चरणों में बारंबार नमोऽस्तु ।
जयपुर रोड, मदनगंज - किशनगढ़
( राजस्थान ) 'अप्रैल 2007 जिनभाषित 5
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जैन शास्त्रों में मोक्ष और मोक्ष के कारणों की चर्चा । की है। कारणों से मतलब उनका मोक्षमार्ग से है । मोक्षमार्ग को उपाय और मोक्ष को उपेय माना है। उपायभूत मोक्षमार्ग के भी दो भेद किये हैं- एक निश्चय मोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग | निश्चय मोक्षमार्ग को निश्चय रत्नत्रय और व्यवहार मोक्षमार्ग को व्यवहार रत्नत्रय कहा है और लिखा है कि इन दोनों में साध्य साधक भाव है । अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है । इसी आशय को लेकर आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ अर्थात् निश्चय व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। इनमें पहला साध्य है और दूसरा साधन है। इस कथन से स्पष्ट है कि व्यवहार रत्नत्रय को निश्चय रत्नत्रय की कारणता है, न कि इन दोनों से परे मोक्ष की। जैन विद्वान् प्रारम्भ से उक्त बात ही कहते आ रहे हैं। उन पर यह थोपना कि वे मोक्ष का कारण व्यवहार रत्नत्रय को ही मानते हैं, गलत है, मनगढ़न्त है । हमें यह भी नहीं सूझ पड़ता कि किसी विद्वान् ने व्यवहार रत्नत्रय को मोक्ष का मूल कारण बतलाया है और यदि बताया भी है, हमने यह नहीं सुना कि जो स्वयं कार्यरूप परिणत हो जाय वह मूल कारण है । उपादान के सम्बन्ध में तो यह कहा जा सकता है कि वह कार्यरूप परिणत हो जाता है, परन्तु सभी मूल कारण उपादान हों, यह बात नहीं है । वास्तव में तो मूल कारण आद्य कारण ही कहा जाता है और यदि इस अर्थ में व्यवहार रत्नत्रय को मूल कारण कहा जाय, तो कोई बेजा बात नहीं है। निश्चय रत्नत्रय के लिये व्यवहार रत्नत्रय की मूल कारणता भी उसी तरह है जिस तरह वृक्ष के लिये जड़ की कारणता है। जड़ के बिना यदि वृक्ष की स्थिति नहीं है, तो व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चय रत्नत्रय की भी स्थिति नहीं है और जब निश्चय रत्नत्रय की स्थिति नहीं तब मोक्ष भी कहाँ टिक सकता है ? अतः यह कहना भी गलत नहीं है कि पहले यदि व्यवहार रत्नत्रय न हो, तो निश्चय रत्नत्रय और मोक्ष दोनों ही नहीं हो सकते।
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व्यवहार रत्नत्रय
अप्रैल 2007 जिनभाषित
स्व. पं० लालबहादुर जी शास्त्री
बीज वृक्ष का कारण है, वृक्ष पुष्पों का कारण है, पुष्प फलों का कारण है। फलोदय के समय जैसे बीज का कोई अस्तित्व नहीं रहता, उसी प्रकार मोक्षफल की प्राप्ति के समय व्यवहार रत्नत्रय का अस्तित्व नहीं रहता । पर बीज का वृक्ष, पुष्प, फल के लिये जो महत्त्व है वही महत्त्व व्यवहार रत्नत्रय का निश्चय रत्नत्रय और मोक्ष के लिये है ।
समन्तभद्र स्वामी ने जो यह लिखा है 'जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होता, वैसे ही सम्यक्त्व के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होता।' इस कथन में फलोदय से मतलब मोक्ष से ही है और सम्यक्त्व से अभिप्राय व्यवहार रत्नत्रय से है । रत्नकरण्ड में सबसे पहले उन्होंने दर्शन ज्ञान चारित्र को धर्म लिखा है और फिर दर्शन का लक्षण लिखा है ' श्रद्धानां परमार्थानामाप्तागम तपोभृतां त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम्' अर्थात् परमार्थभूत देव शास्त्र गुरु का श्रद्धान करना, तीन मूढ़तायें और आठ मद छोड़ना तथा आठ अंगों का पालन करना सम्यग्दर्शन है । इस लक्षण से स्पष्ट ही आचार्य का अभिप्राय व्यवहार रत्नत्रय से है। इसी व्यवहार सम्यक्त्व को लेकर उन्होंने लिखा है कि बिना सम्यक्त्व के ज्ञान चारित्र नहीं होते, न उनकी स्थिति, वृद्धि, फलोदय होते हैं । अतः वृक्ष के बीज की तरह व्यवहार रत्नत्रय को यदि मोक्ष का मूल कारण मान लिया जाय, तो क्या आपत्ति है? मूल कारण से मतलब यहाँ आद्य कारण से ही है, जैसा कि फलोदय के लिये बीज आद्य कारण है। वृक्ष की स्थिति निश्चय रत्नत्रय जैसी है और बाद में फलोदय की स्थिति मोक्ष जैसी है । इसलिये इसमें किसको आशंका है कि व्यवहार रत्नत्रय परम्परा से मोक्ष का कारण है ? जैन विद्वान् बहुत पहले से ही व्यवहार को परम्परा से मोक्ष का कारण कहते आ रहे हैं।
व्यवहार रत्नत्रय मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है, किन्तु उसकी मूल कारणता से इनकार नहीं किया जा सकता है। किसी भी कार्य की उत्पत्ति में कारणों की जो परम्परा है उसमें पहला कारण ही मूल कारण है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि मोक्ष का साक्षात् कारण
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निश्चय रत्नत्रय है और निश्चय रत्नत्रय का साक्षात् कारण परम्परा से प्राप्त व्यवहार रत्नत्रय की प्रकर्षता है। इस संबंध में हम आचार्य अमृतचन्द्र की समयसार की टीका के कुछ उद्धरण देते हैं
'अस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात् संसरत: सुनिश्चलपरिगृहीतव्यवहार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरम्परया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाण स्यान्तर्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा परमप्रकर्षमकरिकाधिरूढरत्नत्रयातिशय
प्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलितविमलस्वभाव - भावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानः ज्ञानं मात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति' (स्याद्वादाधिकार/पृ.५३१)
अर्थ- यह आत्मा अनादि काल से मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र से अपने स्वरूप से च्युत हो रहा है, किन्तु जब व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को यह भली भाँति ग्रहण करता है तब उस व्यवहार रत्नत्रय की प्रकर्ष परम्परा के क्रम से यह स्वरूप में अन्तर्मग्न होकर निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को ग्रहण करता है और उस निश्चय रत्नत्रय की विशेषता से साधकरूप होकर उसी रत्नत्रय की परमप्रकर्षता की पराकाष्ठा को प्राप्तकर उसके अतिशय से सकल कर्मों का क्षयकर अस्खलित विमल स्वभाव से सिद्ध अवस्था में स्वयं परिणत होकर ज्ञान मात्र स्वरूप उपाय - उपेय-भाव को साधता है।
इस कथन से दो बातें निश्चित होती हैं- एक तो यह कि व्यवहार रत्नत्रय पहले होता है और उसके पाकप्रकर्ष की परम्परा से जब स्वरूप में अन्तर्मग्न होता है, तब निश्चय रत्नत्रय होता है, दूसरी यह कि व्यवहार रत्नत्रय मूल कारण है और निश्चय रत्नत्रय की परम प्रकर्षता की पराकाष्ठा साक्षात् कारण है।
अवलम्बन लेना पड़ता है और निश्चय रत्नत्रय में आत्मा के दर्शन ज्ञान चारित्र के लिए आत्मा का ही अवलम्बन रह जाता है। सालम्बन ध्यान और निरालम्बन ध्यान की जो स्थिति है अथवा सवीचार और अवीचार ध्यान की जो स्थिति है, वही स्थिति कारण कार्य के प्रश्न में व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय की है। शीर्षासन प्रारंभ करनेवाला व्यक्ति पहले दीवाल का सहारा लेकर शीर्षासन करता है । बाद में बिना सहारे के शीर्षासन करता है। इसका अर्थ यह नहीं कि सहारा लेकर शीर्षासन का अभ्यास बिना सहारे के अभ्यास में कारण नहीं है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने 'तत्त्वार्थसार' में व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग का जो कथन किया है, उसके कथन के दो श्लोक हैं
श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः ॥ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा या पुनः स्यु परात्मनाम् ।
सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ॥
इन दो श्लोकों में पहले का अर्थ किया गया हैशुद्धात्मा का श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा निश्चय मोक्षमार्ग है।
और दूसरे का अर्थ किया है- परात्मा का श्रद्धान ज्ञान उपेक्षा व्यवहार मोक्षमार्ग है।
ज्ञान,
यहाँ प्रष्टव्य यह है कि यदि शुद्धात्मा का श्रद्धान, उपेक्षा निश्चय मोक्षमार्ग है, तो व्यवहार मोक्षमार्ग में क्या अशुद्ध आत्मा का श्रद्धान ज्ञान उपेक्षा होती है?
आगे के श्लोक में जो परात्मा का श्रद्धान, ज्ञान, उपेक्षा होना बतलाया है, वहाँ परात्मा से क्या मतलब है? क्या स्वात्मा को छोड़कर या कोई दूसरा अभिप्राय है?
वस्तुतः दोनों श्लोकों में सभी पद एक जैसे हैं । अन्तर केवल दो पदों में है। पहले श्लोक में 'स्वात्मनः ' पद है, जो षष्ठी विभक्त्यन्त है और दूसरे श्लोक में 'परात्मना' पद है, जो तृतीया विभक्ति का है, जिसका अर्थ होता है 'परात्मा के द्वारा ' । लेकिन लेखक ने इसका षष्ठीपरक अर्थ 'परात्मा का' किया है जो गलत है । और यह गलती 'स्वात्मनः ' पद के साथ संगति बैठाने के कारण हुई है। वास्तव में तो दोनों ही जगह 'स्वात्मना' और 'परात्मना' पद होना चाहिये। अतः दोनों श्लोकों का संगत अर्थ इसप्रकार करना चाहिए ।
यहाँ मूल कारण व्यवहार रत्नत्रय अपने कार्य निश्चय रत्नत्रयरूप परिणत हुआ है और निश्चय रत्नत्रय - रूप साक्षात् कारण अपने कार्य मोक्षरूप में परिणत हुआ है। यह कहना नितान्त गलत है कि व्यवहार कभी निश्चयरूप से परिणत नहीं होता। हमारा कहना है कि व्यवहार रत्नत्रय ही निश्चय रत्नत्रयरूप परिणत होता है। यह दलील भी अनुचित है कि व्यवहार का विषय 'पर' है और निश्चय का विषय 'स्व' है इसलिये व्यवहार निश्चयरूप परिणत नहीं होता । वास्तव में दोनों ही रत्नत्रय का विषय एक आत्मा अपने ही अवलम्बन से शुद्ध स्वरूप ज्ञान और उपेक्षा है । अन्तर इतना है कि व्यवहार रत्नत्रय में आत्मा के दर्शन भाव निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है तथा पर के अवलम्बन ज्ञान चारित्र के लिये अन्य देव शास्त्र गुरु आदि का । से शुद्ध स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान और उपेक्षा भाव व्यवहार
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है।
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है । यहाँ पर के अवलम्बन से अभिप्राय | है, फलोदय के लिये तो वह परम्परा से कारण है। यही है देव शास्त्र गुरु के आलम्बन से और अपने ही अवलम्बन | स्थिति बीज की तरह व्यवहार रत्नत्रय की है। वह साक्षात् से मतलब है निर्विकल्पसमाधिरूप अवस्था, जहाँ पर का कारण निश्चय रत्नत्रय का है और निश्चत रत्नत्रय साक्षात् अवलम्बन नहीं रहता। जिसको छहढालाकार ने 'निज माँहि | मोक्ष (फलोदय) का है। व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रयरूप निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो' कह कर स्पष्ट | परिणत होता है और निश्चय रत्नत्रय मोक्षरूप परिणत होता किया है।
आचार्य समन्तभद्र ने 'ज्ञान चारित्र की उत्पत्ति, वास्तव में तो उपादान कारण ही कार्यरूप परिणत स्थिति, वृद्धि और फलोदय बिना सम्यक्त्व के उसी तरह | होता है। जिस तरह स्थाल, कोष, कुशूल, घट आदि पर्याय नहीं होते जिस तरह बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, | के लिये मिट्टी उपादान है, उसी तरह व्यवहार निश्चय स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होते' यह जो दृष्टान्त दिया | रत्नत्रय आदि तो आत्मा की पर्यायें हैं, उन सबमें एक आत्मा है वह बीज को फलोदय का उपादान मानकर नहीं दिया | ही उपादान कारण है, जो प्रत्येक पर्यायरूप परिणत होती है, किन्तु फलोदय का मूल कारण मानकर दिया है। यदि | है। मूल कारण कार्यरूप परिणत हो जाता है, तब क्या यह इस तरह आचार्य समन्तभद्र के अनुसार बीज की माना जाय कि बीज फलरूप परिणत हुआ है? यदि ऐसा | जो स्थिति है, वही स्थिति व्यवहार रत्नत्रय की है। और हो तो फल से पहले की पर्याय जो फूल है उसको क्या | मोक्ष के लिये व्यवहार रत्नत्रय मूल कारण है। उससे इनकार कहा जायेगा? यदि फूल साक्षात् कारण है, तो कहना चाहिए | नहीं किया जा सकता। कि साक्षात् कारण ही वहाँ कार्यरूप परिणत हुआ है न
'पं. लालबहादुर शास्त्री अभिनंदन ग्रंथ' कि मूल कारण बीज। बीज तो साक्षात् कारण अंकुर का |
से साभार
सहनशक्ति की महिमा महात्मा सुकरात बहुत बड़े विद्वान् और दार्शनिक | डाल दिया। थे। सारा यूनान उनका आदर करता था। परन्तु उनकी तब सुकरात हँसकर बोले- "देवी, आज तो पुरानी धर्म-पत्नी थी क्रोध की साक्षात् मूर्ति। हर समय लड़ती | कहावत अशुद्ध हो गई। कहावत है कि गरजनेवाले बरसते वह । मीठा बोलना उसने सीखा नहीं था। प्रतीत होता था- नहीं। आज देखा कि जो गरजते हैं वे बरसते भी हैं।" चीनी उसने कम खाई,सदा कुनेन ही खाती रही। सुकरात सुकरात हँसते रहे, परन्तु उनका एक विद्यार्थी क्रोध घर पर मौन बैठते, तो वह चिल्लाना आरम्भ कर देती | में आ गया। उस विद्यार्थी ने चिल्लाकर कहा-"यह स्त्री तो "हर समय चुप ही बैठे रहते हैं!" वे कोई पुस्तक पढ़ते | चुडैल है, आपके योग्य नहीं।" । तो चिल्ला उठती "आग लगे इन पुस्तकों को! इन्हीं के सुकरात बोले- "नहीं, यह मेरे ही योग्य है। यह साथ विवाह कर लेना था, मेरे साथ क्यों किया?" ठोकर लगा-लगाकर देखती रहती है कि सुकरात कच्चा है
एक दिन वे आये तो पत्नी ने इसी प्रकार बकना- या पक्का। इसके बार-बार ठोकर लगाने से मुझे पता तो झकना आरम्भ किया। सुकरात के कुछ विद्यार्थी और लगता रहता है कि मेरे अन्दर सहनशक्ति है या नहीं।" भक्त भी उनके साथ थे। उन्होंने इस बात का बहुत बुरा पत्नी ने यह शब्द सुने तो झट उनके चरणों में गिर मनाया, परन्तु सुकरात मौन बैठे रहे। पत्नी ने इन्हें मौन पड़ी। रोती हुई बोली- "आप तो देवता हैं। मैंने आपको देखा, तो उसके क्रोध का पारा और भी चढ़ गया। वह पहचाना नहीं।" और भी ऊँची आवाज में बोलने लगी। सुकरात फिर यह है तप की महिमा! तप और सहनशीलता से चुपचाप बैठे रहे। पत्नी ने तब क्रोध से पागल होकर | अन्ततोगत्वा मनुष्य को विजय प्राप्त होती है। बुरे व्यक्ति मकान के बाहर पड़ा हुआ गन्दा कीचड़ एक बर्तन में | भी अपना स्वभाव बदल देते हैं। भरा, शीघ्रता से आकर सारा कीचड़ सुकरात के सिर पर
'बोध कथा' से साभार
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मिथ्यात्व-निवारक धर्ममूर्ति 'चारित्रचक्रवर्ती' ।
डॉ. राजेन्द्रकुमार बसंल श्री कार्तिकेय स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मुनिधर्म । वीतरागी देव, वीतरागी शास्त्र, वीतरागी गुरु और वीतरागी का स्वरूप निम्न रूप से व्यक्त किया है
धर्म के आश्रय से होती है। रागी देव-शास्त्र-गुरु-धर्म से जो रयणत्तयजुत्तो,खमादिभावेहिं परिणदोणिच्चं। । वीतरागता का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरा जैन दर्शन सव्वत्थ वि मज्झत्थो, सो साहू भण्णदे धम्मो॥३९२॥ | स्वावलम्बन से स्वतंत्रता का मार्ग बताता है। इसमें परावलम्बन
अर्थ- जो पुरुष रत्नत्रय सहित हो, क्षमादि भावों से | इष्टकारक नहीं होता। तीसरा, व्यक्ति का इष्ट-अनिष्ट उसके नित्य परिणत हो सब जगह (सुख-दुख, तृण-कंचन, लाभ- | कर्मोदय से होता है और उसी अनुरूप बाहय साधन मिल अलाभ, शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा, जीवन-मरण में) समभाव | जाते हैं। कर्मबंध आदि भावाश्रित हैं। रूप रहे, राग-द्वेष रहित रहे, वह साधु है और उसी को धर्म | उक्त दार्शनिक दृष्टि से आचार्य शांतिसागर जी धार्मिक कहते हैं वही धर्म की मूर्ति है।
जीवन यात्रा को देखते हैं तो सच्चे अर्थों में जैन साधु और बीसवीं शताब्दी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री | धर्म की मूर्ति जैसे लगते हैं। आपका जन्म सन् १८७२ में शांतिसागर जी मुनिराज का दर्शन करने का सौभाग्य नहीं बेलगांव जिले के येलगल ग्राम में क्षत्रिय वंश में हआ। आप मिला। आचार्यश्री की समाधि दि. १८/९/१९५५ को हुई उस | चतुर्थ जैन थे। नामकरण सातगौंडा हुआ। आप स्वभाव से समय लेखक छात्र के रूप में बड़वानी में था और उसने | सरल, धार्मिक वृत्ति के संयमी जीवन के आराधक थे। वियोग की पीड़ा में 'आज तो ऊषा लिये कुछ कालिमा है' | उनमें नैसर्गिक साधुत्व था। शरीर से बलिष्ट, मन से पवित्र कविता लिखी थी। आचार्यश्री का प्रेरक परिचय पं. प्रवर श्री | और ज्ञान की पिपासा से युक्त थे। वे बचपन से ही स्वाध्याय सुमेरचन्द्र जी दिवाकर, सिवनी की अद्भुतकृति 'चारित्र- | प्रिय थे और चारों अनुयोगों का स्वाध्याय करते थे। आचार्यश्री चक्रवर्ती' (प्रथम संस्करण १९५३) से हुआ। आगम के | के शब्दों में "जब हम १५-१६ वर्ष के थे तब, हिन्दी में आलोक में जब आचार्यश्री के अंतरंग एवं बहिरंग स्वरूप समयसार तथा आत्मानुशासन वॉचा करते थे। उनके पढने से पर विचार करते है तब वे श्री कार्तिकेय स्वामी जी की उक्त | हमें विशेष लाभ हुआ, वैसे अन्य सभी आगम उपयोगी ग्रंथ भावनानुसार धर्म की मूर्ति के रूप में सहज ही दिखाई देते | हैं।" (चा. चक. प्रथम संस्क. पृ.४५१) आपका लौकिक
जीवन नैतिक प्रमाणिक और परोपरकारी था। जैन धर्म परसमय से स्वसमय, राग से वीतरागता, पिता श्री की मृत्यु के चार साल बाद ४३ वर्ष की उम्र अल्पज्ञ से सर्वज्ञ और इंद्रिय से अतिन्द्रिय आनंद प्राप्त कराता | | में सातगौंडा ने सन् १९१५ में श्री देवेन्द्र कीर्ति मुनिराज से है। इसका शाश्वत राजमार्ग 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और क्षुल्लक दीक्षाग्रहणकर लघुमुनित्व धारण किया। आप सम्यक्चारित्र की एकता'रूप आत्मपरिणाम है। वस्तु-स्वरूप जिनेश्वरी मार्ग के पथिक बने। आपके शब्दों में हम व्यवहार धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। उससे मोह-क्षोभ परिणाम विहीन | क्रियाओं को पालते हैं। किन्त हमारा ध्यान निश्चय पर
अधिक है'। (पृ.६०) आपने प्रथम चातुर्मास को गनोली में साधु होते हैं।
किया। वहाँ आपने अनुभव किया कि समाज गृहीत मिथ्यात्व ज्ञानावर्णादिक, द्रव्यकर्म, शरीरादिक नोकर्म तथा | से पीडित है। अत: आपने गहीत मिथ्यात्व छडाने का संकल्प क्रोधादिक भावकर्म से भिन्न ज्ञान-स्वरूप आत्मा की रूचि | किया। इसमें आप अतिशयरूप से सफल रहे। या प्रतीति सम्यग्दर्शन कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने | गृहीत मिथ्यात्व त्याग का महान प्रचाररयणसार में कहा है कि जिनके आठमद, तीनमूढ़ता, छह | चा. चक्रवर्ती पृष्ठ ७५ पर अंकित है "इन्होंने देखा
अनायतन, शंकादि आठ दोष, सात व्यसन, सातभय और | कि लोगों में कुदेवों, रागी द्वेषी मिथ्यादेवों की भक्ति विद्यमान नियमव्रत के उल्लंघन स्वरूप पाँच अतिचार मिलाकर | है। लोग जिनेन्द्र देव को भूलकर चतुर्गति संसार में डुबाने चवालीस दूषण नहीं होते हैं। (गाथा ७)
वालों की आराधना में संलग्न हैं, इससे इनके अंत:करण में साध्य अनुरूप साधनों से इच्छित लक्ष्य की पूर्ति | समाज के मिथ्यात्व रोग को दूर करने की भावना उत्पन्न होती है। वीतराग शुद्धात्मा की प्राप्ति या मोक्ष की उपलब्धि हुई।" इस उद्देश्य हेतु महाराजश्री ने नियम कर लिया 'जो
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हैं।
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अपने यहाँ कुदेवों को विराजमान किए होगा, उसके यहाँ आहार नहीं करेगें'। (पृ. ७९) आपके पास जो भी कुदेव सेवी आता, वह तत्काल मिथ्यात्व का त्यागकर व्यवहार सम्यक्त्व को धारण करता। जैनवादी में भी सभी कुदेवों की पूजा करते थे महाराजश्री की पुण्य देशना से सब श्रावकों ने मिथ्यात्व का त्याग किया और अपने घर से कुदेवों को अलग कर कई गाड़ियों में भरकर उन्हें नदी में गिरा दिया। (पृ. ७९) वहाँ के राजा ने इसका कारण पूछा तो महाराज श्री ने गणेश पूजा और रामचन्द्र जी की मूर्ति पूजा का अंतर समझाकर राजा को संतुष्ट किया। गणपति की पूजन बाद उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है। (पृ.८० ) आचार्यश्री की तर्कणा बुद्धि से राजा-रानी संतुष्ट हुऐ ।
लेखक के अनुसार 'महाराज ने दक्षिण के लोगों में कुदेवरूपी रोग देख उसके त्यागरूप औषधिदान द्वारा लोगों
श्रद्धा निर्मल की'। (पृ. १५१) आपने इसीप्रकार ब्राह्मणों से मांस और सुरापान का त्याग और जैन समाज में शूद्र जल का त्याग करवाया। 'कुदेव' से महाराजश्री का आशय 'रागद्वेषमलीमसा' रागी - देवी देवताओं से रहा होगा, ऐसा ध्वनित होता है । मूल लेखक ने भी कुदेव को स्पष्ट नहीं किया जैसा की अष्टम संस्करण के पृष्ठ क्रमशः ६७ एवं १३२ में कोष्ठक में 'अन्यमतियों के रागीद्वेषी मिथ्यादेव एवं अन्यमतियों के आराध्य - शासन देव' लिखकर काल्पनाशील संपादक जी ने किया है। यह उत्तर-विचार है, जैसा आगे स्पष्ट होगा। इससे अभिप्राय दूषित हुआ 1 मिथ्यादेवों के मंत्र भी वर्जित
महाराजश्री ने अत्यंत प्रमाणिकता एवं बौद्धिक ईमानदारी से मिथ्यात्वी देवों की उपासना का त्याग करवाया। जैनबाड़ी में एक महानुभाव मिथ्यादेवों की भक्ति कर मंत्र से सर्प का विष उतारते थे । यह प्रश्न हुआ की वे जीवन रक्षा का यह काम करें या नहीं। उसे मिथ्यात्वत्याग के बंधन से मुक्त करने का महाराज श्री ने अनुरोध किया। महाराजश्री ने कहा जैन मंत्रों में अचिंत्य सामर्थ्य है। उन्होंने एक मंत्र साधने दिया, दो माह के भीतर । संयोग से वह मंत्र सार्थक सिद्ध हुआ। उसने जीवनभर मिथ्यात्व त्याग का नियम ले लिया । महाराजश्री की जिनवाणी पर अगाधनिष्ठा भी और उनकी संकल्प शक्ति भी प्रबल थी । आचार्यश्री ने हजारों लोगों से मिथ्यात्व का त्याग कराया। जबकि पीढ़ियों से पोषित मिथ्यात्व
त्याग का कार्य मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत दुरूह होता है। आचार्यश्री ने तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना को जिनदीक्षा के
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। अनुकूल नहीं माना, यह ज्ञातव्य है की सभी देव नियम से प्रतिदिन जिनेन्द्र पूजन करते हैं। (ति.प./३/२२८-२२९) उच्च पद वाला नीचे पद वाले को नमस्कार नहीं करतापं. प्रवर श्री सुमेरचंद्र जी ने चा. चक्रवर्ती पुस्तक के पृ. १६५ (नवीन संस्करण पृ. १४४ - १४५ ) पर एक दिशाबोधक घटना का उल्लेख किया है। सन् १९२७ में महाराजश्री ससंघ शिखरजी की तीर्थ यात्रा पर बिहार करेंगे, इसकी विज्ञप्ति प्रकाशित की गई। उस पर “एक नामांकित वृद्ध पं. जी पूज्य श्री के समीप आये। सभा को प्रणामकर बड़े ममत्व के साथ कहने लगे, उत्तर की जनता वक्र प्रकृति की
। वहाँ कभी दिगम्बर मुनि का बिहार हमारे जीवन में नहीं हुआ, अब आपका संघ जाता है, इसको देखकर विद्वेषियों द्वारा विघ्न प्राप्त होगा। तब धर्म पर संकट आ जायेगा । अतः उचित होगा की पहले आप किसी देवता को सिद्ध कर लेवें। इससे कोई भी बाधा नहीं होगी।" महाराज जी बोले 'मालूम होता है, अब तक आपका मिथ्यात्व नहीं गया, जो हमें आगम विरुद्ध सलाह दे रहे हो' महाराज ने स्पष्ट करते हुये कहा 'क्या महाव्रती अव्रती को नमस्कार करेगा' ।
पं. जी बोले 'नहीं महाराज, व्रती को नमस्कार नहीं करेगा' ।
महाराज ने कहा- "विद्या या देवता सिद्ध करने के लिए नमस्कार करना आवश्यक है। देवता अव्रती होते हैं। तब क्या अव्रती को प्रणाम करना महाव्रती को दोषप्रद नहीं होगा ।" महाराज श्री ने कहा 'डरने की क्या बात है । हमारा पंचपरमेष्ठी पर विश्वास है। उनके प्रसाद से विघ्न नहीं आयेगा और कदाचित् पापकर्म के उदय से विपत्ति आ जाय तो हम सहन करने तैयार हैं।' महाराज श्री का उत्साह, युक्तिवाद और आत्मविश्वास ने सभी को चकित कर दिया। शासनदेव के नाम से उच्च भूमिका वाले महानुभावों को आचार्यश्री की उक्त आगमपोषित विचारों से अपना मिथ्या अभिप्राय दूर करना इष्ट होगा। ऐसा होने पर वे कृत-कारित - अनुमोदना से इस अप्रियकर अहितकारक प्रवृत्ति से बच सकेंगे, क्योंकि व्रती द्वारा अव्रती देव की उपासना का उपदेश देना भी मिथ्यात्व का सूचक |
मराठी समाचार पत्र 'सम्यक्त्व वर्धक' से पुष्टि
पूज्य आचार्यश्री के व्यक्तित्व एवं भ्रातृत्व के प्रकाशन में तत्कालीन समाचार पत्रों का महत्वपूर्ण योगदान है। उनके आधार पर घटनाओं को ऐसा रूप दिया गया जैसे कोई आँखों देखी लिख रहा हो। इसी क्रम में श्री हीराचंद मलूकचंद
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दोशी सोलापुर द्वारा संपादित एवं प्रकाशित 'सम्यक्त्व बोधक' । उत्तर में महाराजश्री ने कहा कि- 'आहार दाता के यहाँ मराठी पत्रिका का एक दिसंबर अंक सन् १९२३, पृ. ४ के | उपरोक्त प्रतिबंध की बात मिथ्या है।' आचार्यश्री के इस समाचार का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ जो आचार्यश्री | उत्तर से स्पष्ट है कि वे विजातीय विवाह को आगमविरुद्ध के प्रभाव को दर्शाता है। (जिनभाषीत, नवम्बर ०५)। नहीं मानते थे। (संदर्भ-जैनमित्र, ६/१/१९३८, अंक ९वाँ,
___ " मुनि श्री शांतिसागर जी का केशलोंच मुकाम- | वीर सं.२४६४) शेडवाल- यहाँ मगंसर शुक्ला ८ के दिन मुनि शांतिसागर | आचार्यश्री की धर्म देशनाजी का केशलोंच बड़े समारोह के साथ हुआ। उस समय । आचार्यश्री ने वीतरागता की प्राप्ति हेतु जीवनपर्यंत उस गांव के बाहर गांव के मिलकर तीन/चार हजार दि. रत्नत्रयरूप जैन धर्म की साधना की। सम्यक्त्व, ज्ञान और जैन एकत्रित हुये थे। जैन समाज से मिथ्यात्व निकालने | संयम के वे आराधक थे। आपने अंतिम संदेश में दर्शन का और निर्माल्य का त्याग करने का उपदेश मुनिराज हमेशा | मोहनीय कर्म के क्षय एवं कर्म की निर्जरा हेतु आत्मचिंतन देते हैं। गत चातुर्मास में कोन्नुर में दिये गये उपदेश से | करने का उपदेश/आदेश दिया। चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय करीबन दो हजार जैनियों ने अपने घर से खडोंवा, बिठोवा, | हेतु संयम धारण करने की मार्मिक प्रेरणा दी। आत्मानुभव भवानी, यल्लम्मा आदि मिथ्या देवताओं को निकाल दिया | के बिना सम्यक्त्व नहीं होता। व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय है। करीब १५-१६ उपाध्ये (पुजारी) लोगों ने निर्माल्य को | सम्यक्त्व का साधन बताया। आत्मचिंतन से मोक्ष सहित नहीं खायेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा ली है। आज तक दस हजार | सर्व कार्य सिद्ध होने का कहा।'धर्मस्य दया मलं'। जिनधर्म जैनियों ने अपने घर से मिथ्या देवताओं को निकाला होगा। | का मूल सत्य, अहिंसा और दया है। सत्य में सम्यक्त्व आ महाराज ने ऐसा कहा- करीबन २००/४०० लोगों ने | | जाता है। सम्यक्त्व धारण करो, संयम धारण करो, तब आपका क्षेत्रपाल-पद्मावती आदि शासन देवताओं की उपासना | कल्याण होगा। आचार्यश्री गृहीत मिथ्यात्व निवारक धर्म नहीं करेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा उनका उपदेश सुनकर ली है, ऐसा मूर्ति थे। उन्होंने (आचार्यश्री ने कहा, इससे लगता है कि उनके आचार्यश्री ने सज्जातित्व संरक्षण को धर्म या धर्मउपदेश से मिथ्यात्व बिल्कुल समाप्त हो जायेगा और रक्षा के रूप में कहीं भी नहीं दर्शाया। आचार्यश्री रत्नत्रयरूप (उपाध्ये)पुजारी निर्माल्य खाना बंद कर देंगे ऐसी आशा | धर्म एवं लोक व्यवहार की भेद रेखा लौकिक मान्यताओं निर्माण हो गई है।"
की पुष्टि करना उचित नहीं है। आगमनिष्ठ आचार्यश्री परम्परा विद्वान सम्पादक महोदय एवं पूज्य आचार्यश्री ने यह | से प्रवाहित/पोषित वीतरागी आगम और मल संघ के आदर्श कल्पना भी नहीं की होगी कि जिस मिथ्यात्व रूपी पाप के | प्रतिनिधि थे। उनका जीवन निष्पृह, निष्कपट, पावन था। विरुद्ध उन्होंने सामाजिक क्रांति की, उस क्रांति के विपरीत उनका व्यक्तिव अत्यंत विराट था उसे किसी संकीर्ण सीमा आचार्यश्री के संघ के उत्तराधिकारी एवं विद्वानगण निर्ममता | | में बांधना उनका अवर्णवाद करना होगा। आचार्यश्री को पूर्वक मिथ्यात्व का पोषण करेंगे और अपना मांगलिक
| किसी ऐसी संस्था या पोषक से सम्बद्ध नहीं किया जा आशीर्वाद देंगे। 'जल में लगी आग' चरितार्थ हुई। व्रती | सकता जो धर्म और धर्म की मूर्ति की विकृतियों का पोषक अवतियों की शरण माँगने लगे।
हो। वे पक्षातीत थे, सत्यनिष्ठ थे। इसीरूप में आचार्यश्री को उक्त समाचार से यह भी स्पष्ट होता है कि मिथ्यात्वी कुदेवों के साथ ही क्षेत्रफल-पद्मावती की उपासना का पूज्य आचार्यश्री को जैसा जाना, पढ़ा उसी अनुरूप विरोध भी पूज्य आचार्यश्री ने किया था और विवेकीजनों ने | | ससंदर्भ लिखा है। कहीं अन्यथा निष्कर्ष ग्रहण किये हों तो उसकी उपासना नहीं करने की प्रतिज्ञा की थी।
विज्ञजन मार्गदर्शन करें. सधार हेत तत्पर हैं। पज्यश्री के साथ विजातीय विवाह के संबंध में दृष्टिकोण
वर्षों सम्पर्क में रहने वाले भव्यजन अभी भी विद्यमान हैं, श्री पं. सुमेरचन्द्र जी दिवाकर जी ने आचार्यश्री से | जिनके मार्गदर्शन से गृहीत मिथ्यात्व पोषक प्रवृत्तियों से प्रश्न किया क्या यह सच है कि आप आहार के पूर्व गृहस्थ | छुटकारा मिल सकता है। जिनेन्द्र देव के शासन में साधुत्व से प्रतिज्ञा कराते हैं कि विजातीय विवाह आगम विरुद्ध है? | (वीतरागता) ही पूज्य है। णमोलोए सव्वसाहूणं।। ऐसी जो प्रतिज्ञा नहीं लेता वहाँ आप आहार नहीं लेते? इसके |
बी-३६९ ओ पी.एम. अमलाई जिला-शहडोल (म.प्र.)४८४११७
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दिगम्बर - परम्परा को बनाये रखने का दायित्व किस पर ?
पं. वसन्तकुमार जैन शास्त्री 'जिनभाषित' अंक दिसम्बर 2006 के सम्पादकीय | मुनि मर्यादा के प्रति सावधान रहते देखा है। मैंने अनेक बार में एक 'दिगम्बर जैन परम्परा को मिटाने की सलाह' लेख देखा है कि श्रावकजन उन आचार्यों के सामने दुनियादारी पढ़ने को मिला। ऐसे लेख और चिन्तन की परम आवश्यकता की बाते करते हुए डरते थे । उन आचार्यों को न तो किसी भी है। आज के परिवेश में सम्पूर्ण लेख में दिगम्बरत्व के प्रति प्रकार का अपने नाम का कोई मठ या भवन बनाने का आदर-सम्मान और वैराग्यजनक भावनाओं का सारगर्भित व्यामोह था और ना लिप्सा । वे और उनके शिष्य बराबर वर्णन किया गया है, जिससे दिगम्बरत्व की रक्षा एवं अपनी साधना में रत रहा करते थे । किन्तु आज मुझे मुनि प्रमाणिकता प्रकट होती है। बहुत-बहुत धन्यवाद है सम्पादक विमर्शसागर महाराज की 'सोचता हूँ कभी-कभी' संकलन महोदय को । जो व्यक्ति दिगम्बरत्व के प्रति उदासीन हैं, की वे पंक्तियाँ रह रह कर व्यथित करती रहती हैंहतोत्साही हैं, वे वैराग्य को न परखकर आसक्ति को मन में सोचता हूँ कभी-कभी आजकल - कतिपय साधु बिठाये हुए हैं। आगमानुसार दिगम्बर जैन सन्त पंचम काल पंथवाद की पतंगें उड़ा रहे हैं। के अन्त तक रहेंगे।
काटने एक दूसरे की पतंग पेच भी लड़ा रहे हैं। श्रावक के हाथ पकड़ा डोर-गिर्रा निरन्तर ढील बढ़ा रहे हैं। तो कुछ श्रावक, दूर से ही पंथवाद की पतंगे और पेंचों की उमंगें देख ताली बजा-बजा पंथाग्रही साधुओं का उत्साह बढ़ा रहे हैं।
मेरा यह लेख पढ़कर आप मुझे उलाहना दे सकते हैं कि आपको क्या अधिकार है दिगम्बर सन्तों के प्रति कुछ भी कहने का ?
लेख के अंत में सम्पादक महोदय ने 'शिथिलाचार से दिगम्बरत्व को खतरा' शीर्षक से यह भी अहसास कराया है कि आज की कतिपय बुद्धिजीवी मानस विचारधाराएँ आखिर दिगम्बर जैन परम्परा में क्यों उभर रही हैं? तो आखिर दिगम्बर जैन परम्परा को बनाये रखने का दायित्व किस पर आता है ? श्रावक पर या श्रमण पर ?
यद्यपि श्रमण (सन्तजनों) के प्रति हम श्रावकों को कुछ भी सुधार - सुझाव देने का अधिकार नहीं के बराबर है, क्योंकि सन्तजन स्वयं सोलह संस्कारों से संस्कारित होकर नियमबद्ध हैं । उन्हें ही उचित अनुचित का ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि समाज ( श्रमण एवं श्रावकों) ने उन्हें पंच परमेष्ठी की कतार में खड़ा किया है और राग-विराग की मर्यादा बनाये रखने की उन्होंने शपथ ग्रहण की है, तो जिस ने उन्हें दीक्षा दी है, वे ही अपना उत्तरदायित्व निभावें । गुरु उन्हें पूर्ण अधिकार हैं कि वे स्वयं के शिष्य यदि मर्यादा का बार-बार उलंघन करते हैं, तो उनका पिच्छी कमण्डलु छीन लें ।
आज सन्तजनों (मुनि-आर्यिका - ऐलक - क्षुल्लक) में जो शिथिलाचार पनप रहा है, उसका मूल कारण उनको दीक्षा देने वाले आचार्य श्री का अपने शिष्य के प्रति उदासीन हो जाना है ।
मेरी आयु 75 वर्ष की हो चुकी है और मैंने पूर्वाचार्यवर श्री 108 वीरसागरजी महाराज, आचार्यवर शिवसागरजी महाराज, आचार्यवर धर्मसागरजी महाराज के विशाल संघों का सान्निध्य प्राप्त किया है और उन संघों पर आचार्य श्री का कठोर अनुशासन भी देखा है। उनके शिष्यों को सदैव अपनी 12 अप्रैल 2007 जिनभाषित
आपका उलाहना । लेकिन मैं
बिल्कुल ठीक दिगम्बर सन्तों का परमभक्त अपने आपकों मानता हूँ। उन्हें परमेष्ठी पद पर आरुढ़ हुआ देखकर उनकी पूजा, भक्ति करता हूँ। तब कोई मेरे आराध्य के प्रति शंका की अँगुली उठाता और मैं भी उस शंका में सच का अहसास करता हूँ, तो मेरी अन्तर आत्मा रो उठती है कि त्यागी होकर भी अत्यन्त रागी क्यों बनता जा रहा है मेरा आराध्य सन्त ? किसकी नजर लग गई है इनको ? कौन इनको भ्रष्ट करने के पीछे लगा हुआ है। ऐसे में, मैं उन्हें ही, मेरे आराध्य सन्त जनों को ही तो कहूँगा कि आप सम्हलकर रहिए। आप त्यागी हैं। बाहर की वस्तुओं के त्याग का नाम ही त्याग नहीं है, अपितु अन्तरंग के क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोह के त्याग का नाम ही असल में त्याग है ।
तो मेरी अन्तर्व्यथा किसे कहूँ और दूसरा मेरी इस व्यथा को सुनेगा भी क्यों? मैं तो परम पूज्य दिगम्बराचार्यों से ही निवेदन कर सकता हूँ कि अपने शिष्यों में यदि शिथिलाचार नजर में आये तो, नरम मत होइए कठोर अनुशासन को काम में लीजिए । वह शिष्य चाहे मुनि हो या आर्यिका, क्षुल्लक हो या क्षुल्लिका, उसे मर्यादा में रखने का अधिकार आपको ही
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है। उनमें शिथिलाचार पनपाने या मिटाने का दायित्व आप। के लिए उनके गुरुओं को उत्तरदायी माना है और सुझाव पर है, शतप्रतिशत आप पर है।
दिया है कि गुरुओं को उन पर कठोर अनुशासन करना भक्ति भावना से प्रेरित होकर इस कठोर निवेदन के | चाहिए, और यदि वे आज्ञापालन नहीं करते, तो उनके पिच्छीप्रति क्षमा प्रार्थी हूँ। इसके अतिरिक्त मैं उन श्रेष्ठिजनों- | कमण्डलु छीन लेना चाहिए अर्थात् दीक्षाभंग कर देनी चाहिए। श्रावकों से भी विनम्र निवेदन करना चाहूँगा कि अपनी | यह सुझाव समीचीन है, क्योंकि दीक्षा-छेद की आज्ञा आगम सांसारिक लालसाओं की पर्ति के लिए इन भोले-भोले सन्तों में दी गयी है। किन्त प्रश्न यह है कि यदि गरु (अ को ख्याति लाभ के प्रलोभनों में फँसाकर दर्गति का मार्ग ना शिथिलाचारी हो, तो गरु और शिष्य दोनों के शिथिलाचार का दिखावें। क्यों कि अपनी मर्यादा भंग करने पर जितना दोष | उत्तरदायित्व किस पर है? उनके पिच्छी-कमण्डल छीनने उन्हें लगता है उससे दुगुना दोष आपको भी लग जाता हैं। | का अधिकार किसे है? यह यक्षप्रश्न सम्पूर्ण जैन समाज के
शिवाड़ (सिवाई माधोपुर) राजस्थान | लिए विचारणाय है। सम्पादकीय टिप्पणी
रतनचन्द्र जैन विद्वान् और अनुभवी लेखक ने मुनियों के शिथिलाचार
कुण्डलपुर के बड़े बाबा पर उपसर्ग
ब्र.अमरचन्द्र जैन पढ़ा था मुगलों ने बड़े बाबा की कीर्ति सुनकर अपने | आक्रोश एवं घोर अज्ञानता के अंधकार से इस अंधे जीव को धर्मानुसार कुण्डलपुर आकर मूर्ति को खंडित करने का शौर्य
क्षमा कर देना। उसे खबर नहीं कि वह क्या कर बैठा! यह (उद्योग) किया था। अतीत की इस घटना में वे इस अतिशयकारी | लिखते मेरी लेखनी काँप रही है। इस कृत्य' को सपने में भी मर्ति का कुछ बिगाड़ नहीं पाये और उल्टे पाँव भाग गये और | कोई जैन धर्मी सोच सकता है क्या? आज विधर्मियों ने नहीं, साधर्मी भाई ने ही अपने भावों से बड़े
| हम नहीं जानते यह पुस्तक प्रकाशित कर लेखक, बाबा को चीर बीच से दो टुकड़े कर (खंडित कर) जोड़कर संपादक, प्रकाशक श्री भाई अजित टोंग्या समाज से क्या उसे फोटो बनाकर एक पुस्तक लिखी 'कुण्डलपुर कोहराम' कहना चाहते हैं तथा क्या करना उन्हें इष्ट है? यह जिनभक्त
और चित्र को उक्त पुस्तक के मुखपृष्ठ पर छापकर अपनी | की भक्ति की कौन सी विधा है? अभी तक के इतिहास में तीव्रतम कषायों (कृष्ण लेश्या का) का लेखा प्रस्तुत किया है। मैंने ऐसा ककत्य नहीं पढा। अरे भाई जिनवाणी के पष्ठ यदि
जैनदर्शन में द्रव्य हिंसा से कहीं बहुत बढ़कर भाव | असावधानी से धरती पर गिर जायें या फट जायें तो उसे हिंसा कही गयी है और भावों के द्वारा ही पापों का बंध होता | उठाशीश से लगा पश्चाताप कर दःख करते हैं। इस अवमानना. है। मेरे भाई ने भावों से ही बड़े बाबा को खंडित प्रदर्शित | प्रमाद का प्रायश्चित लेते हैं और मेरे भाई ने जिनवाणी को किया और हंता बनकर शांति एवं आनन्द का अनुभव कर रहा | नहीं 'जिन' को ही बद्धिपूर्वक चीर डाला? है और लोक में प्रशंसा पाने की पात्रता की भीख माँग रहा है।
| अरे भाई पुराण में पढ़ा कि मात्र णमोकार मंत्र को आज मेरे साधर्मी बंधु ने भावों से हिंसाकर (वचन) | लिखकर मिटाने में नरक गति का बंध हो गया और आपने लेखन द्वारा प्रदर्शन किया है, अब द्रव्यरूप से कार्य शेष रह | लाखों जैनधर्मियों की आत्मा द:खायी है. घोर आसादना की गया है, तो क्या मुगलों की तरह यह भाई बड़े बाबा को | है. उसका प्रतिफल क्या होगा? नरक से नीची भी कोई गति खंडित करने का अब उद्योग करेगा? इस 'उपसर्ग' से 'बड़े | है क्या? बाबा' को बचाने को मैं भारतवर्ष के हर पुरुष महिला एवं
भाई टोंग्या का अगला कदम क्या होगा, नहीं जानता। बच्चे से अपील करता हूँ।
इस कार्य की निन्दा करें पर यदि मन-वचन और काय से, जब मुखपृष्ठ पर जिनेन्द्र देव की यह अवमानना की | इन्होंने कोई ऐसा उद्योग किया तो क्या होगा? अभी कहने में हो, तो आप उक्त (वगैर देखे ही) पुस्तक के गर्भ में क्या है, | असमर्थ हूँ। अतः हर जैन से मैं प्रार्थना करता हूँ कि बड़े अंदाज लगा सकते हैं। भगवान् की प्रतिमा के चित्र को इस | बाबा को इस उपसर्ग से बचायें और पण्य लाभ करें। विद्रूपता से प्रकाशित करने का मैं तीव्र विरोधक हूँ।
श्री महावीर दि. जैन उदासीन आश्रम, हे 'बड़े बाबा' इस पाप से किस गति का बंध होगा? |
- कुण्डलपुर(दमोह)
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कुण्डलपुर में दिगम्बरजैन साधु
मनैला अन्ने-मारिया पोप टॉम्स रिवर, यू. एस. ए.
वेव साइट- www.neo-hippy.com/jainmonks. html 2006 में यात्रा विवरण के सन्दर्भ में प्रकाशित लेखों की प्रतिस्पर्धा में भाग लेनेवाला लेख
यह लेख दिगम्बर जैन मुनि संघ,' जो कुण्डलपुर। हमें बताया गया कि कुछ दिन पूर्व ही वहाँ से एक दिगम्बर के समारोह में उपस्थित था, उसके संबंध में है। मैंने अपने | साधु का प्रवास हुआ है। मैं दिगम्बर साधुओं के बारे में पति के साथ भारत में दिसम्बर, 2005 से मार्च, 2006 तक | पूर्णतः अनभिज्ञ थी, इसलिए उनके बारे में मैंने अपने पति चार माह भ्रमण किया। हमने कई स्थानों का भ्रमण किया, | से पूछा, जिन्होंने बताया कि ये साधु नग्न होते हैं। कुण्डलपुर उनमें से एक है। इस लेख का कथानक हमारे | मैंने पश्चिम के ऐसे समुद्र तटों के बारे में पढ़ा था कि उन अनुभवों से संबंधित है जो हमने जैन बंधुओं और | वहाँ पूर्ण नग्न रहा जा सकता है। लेकिन इसके अलावा दिगम्बर जैन साधुओं के बीच प्राप्त किए।
अन्य स्थानों पर नग्न विचरण करना न केवल अनुपयुक्त है हमारे चार माह भारत प्रवास में, हम लोग खजुराहो | बल्कि कानून के विरुद्ध भी है। गए, जहाँ मंदिरों में कामोत्पादक दृश्य दिखाए गए हैं। वहाँ | | माइक और मैं, दोनों ही ऐसे नग्न जैन साधुओं के हमें बताया गया कि एक छोटे से गाँव कुण्डलपुर में दो बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक हो गए। अतः दिवसी समारोह का आयोजन है, जहाँ पचास जैन आर्यिकाओं | हमने होटल पहुँचकर यह पूछा कि हम कहाँ पर जाकर की दीक्षा होना प्रस्तावित है व सैकड़ों दिगम्बर जैन साधु दिगम्बर जैन साधुओं को देख सकते हैं। हमें बताया गया कि वहाँ इकट्ठे होंगे। हम लोग एक जैन परिवार के साथ उनकी | इसके बारे में पड़ोस के 'जैन होटल' के मालिक से मालूम कार से उस समारोह में सम्मिलित होने के लिए रवाना हुए। किया जा सकता है। वह परिवार अत्यंत सहृदय था और कुण्डलपुर में जो हमारा अनुभव रहा, उससे हमारे आत्मिक उनके पिता ने हमसे आग्रह किया कि हम उनके पुत्र और चिंतन में अत्यधिक उन्नति हुई और हमेशा के लिए भारतीय पुत्रवधू के साथ कुण्डलपुर उस उत्सव को देखने जाएँ। धर्मों के बारे में हमारे विचारों में आमूल परिवर्तन हुआ। हमने होटल में जाकर कई घण्टों तक विचार-विमर्श
खजुराहो में वास्तव में, ऐसे मंदिर हैं जिन्हें कोई | किया। कुण्डलपुर की यात्रा में मात्र दो हजार रुपये यानी देखना न भूलेगा। मंदिर पूरे प्रांगण में फैले हुए हैं और सभी | पचास डालर का खर्च आएगा। यह खर्च कार-यात्रा के लिए मंदिरों को देखने के लिए या तो साइकिल या रिक्शा को | कोई अधिक नहीं था, बावजूद इसके कि कुछ परिवार किराए पर लेना आवश्यक है। आप घण्टों तक उन मंदिरों | पचास डालर में पूरे एक सप्ताह का कार्य चलाते हैं। में उत्कीर्ण कलाकृतियों को देखकर आनंद ले सकते हैं। ये | दूसरे दिन प्रातः हम लोग दो दिन के प्रवास के लिए कलाकृतियाँ मानव जीवन की प्रतिदिन की क्रियाओं का | उस जैन परिवार के पास पहुंच गए। जो यात्रा दो घण्टे की चित्रण दर्शाती हैं। लेकिन इन मंदिरों को विश्वख्याति प्राप्त | बताई गई थी, उसमें पाँच घण्टों का समय लग गया। सड़क है उन कामोत्पादक चित्रों के कारण जो उनमें उकेरे गए हैं। अत्यधिक जर्जरित थी, अत: ड्राइवर को बीस कि.मी. प्रति
खजुराहो जाना यद्यपि महँगा होता है लेकिन फिर भी | घण्टे की रफ्तार से अधिकांश समय कार चलाना पड़ रही यह एक ऐसा स्थान है जो बार-बार देखा जा सकता है। थी। इस यात्रा में मुझे, उनके जैनधर्म के बारे में साथी दम्पति मंदिरों का अवलोकन और स्वादिष्ट भोजन के अतिरिक्त से पूछने का अवसर प्राप्त हुआ। भारतीय रीति-रिवाज और यहाँ अन्य कुछ भी देखने को नहीं है। कोई भी पर्यटक जो | भोजन बनाने आदि के बारे में भी जानकारी प्राप्त करने का थोड़े समय के लिए भारत प्रवास पर आता है, खजुराहो जैसे | अवसर प्राप्त हुआ। जैनियों के गुरु अधिक ज्ञानवान् होते हैं, शांत वातावरण की प्रशंसा करेगा।
जो धर्म की शिक्षा देते हैं और किस प्रकार जीवन-यापन मंदिरों के समूह में एक दिगम्बर जैन मंदिर है, जहाँ | करना चाहिए, बताते हैं। ऐसे गुरु अत्यधिक सम्मानीय और
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सब प्रकार के प्रश्नों के समुचित समाधान देने वाले होते हैं। । शौचालयों की ओर गई जो शामियाने से कुछ दूर पर बने थे।
हम दोपहर में लगभग तीन बजे कुण्डलपुर पहुंचे | वे शौचालय अत्यन्त गंदे थे, इसलिए मैंने उनका उपयोग और हमें यह देखकर आश्चर्य मिश्रित क्षोभ हुआ कि सैकड़ों | नहीं कर, कमरा मिलने का इंतजार किया। कारें खेतों में पार्क की गई थीं और हमें अपनी कार रखने के हम लोग बाहर भोजन करने गए और हमने कुछ लिए कोई जगह खाली नहीं थी।
शाकाहारी पकौड़ा और अन्य वस्तुएँ ग्रहण की। इसके बाद कुण्डलपुर मात्र एक तीर्थस्थान है, जहाँ पहाड़ियों पर हम लोग मुख्य परिसर में गए और एक कमरा लेने का कई मंदिर स्थित हैं। कुण्डलपुर जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर प्रयत्न किया। जैन दम्पति जो साथ था, उन्होंने उस व्यक्ति से महावीर स्वामी का जन्म स्थान है। यह स्थान दिव्य आनंद बात की जिसे कमरा देने की जबाबदारी दी गई थी। उसने और शांति प्रदान करता है। सभी मंदिर एक दसरे से एक
बताया कि कोई भी कमरा खाली नहीं था और बहुत से लोग पथ के द्वारा जुड़े हुए हैं, जिसका उपयोग जैन तीर्थयात्री एक | लाइन में लगकर बिस्तर आदि बाहर सोने के लिए प्रतीक्षारत मंदिर से दूसरे मंदिर में जाने के लिए करते हैं। हमारे वहाँ | थे। उस जैन दम्पत्ति ने मुझे और मेरे पति को विशिष्ट पहँचने के तुरंत पश्चात् हम उस समारोह में सम्मिलित हुए, | अतिथि बताया और एक कमरा देने का आग्रह किया। काफी जिसमें पचास महिलाएँ आर्यिका दीक्षा लेने वाली थीं। वे | इन्तजार के बाद जैन दम्पत्ति को एक कमरे की चाबी मिलने सभी पूर्ण ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का व्रत जीवनपर्यंत के | | में सफलता मिल गई। यह कोई बहुत अच्छा कमरा नहीं था लिए लेने वाली थीं।
लेकिन इसमें दो पलंग और जुड़ा हुआ प्रसाधन था, जो हम यह समारोह एक बहुत बड़े शामियाने के अंदर | चार व्यक्तियों के लिए था। हम लोगों ने अगले कुछ घण्टे आयोजित किया गया था जिसमें हजारों जैन धर्मावलम्बी बैठे | मंदिरों के दर्शन में लगाए। हम लोग पहाड़ के ऊपर गए और थे। चूँकि हम ही वहाँ केवल विदेशी थे, इसलिए स्वाभाविक बडे बाबा- प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान की मूर्ति के रूप से हमारे ऊपर सभी का ध्यान गया। अगली पंक्ति में
दर्शन किए। पहाड़ी के ऊपर निरंतर निर्माण कार्य हो रहा था, पहुँचकर समारोह को देखना लगभग असंभव था, लेकिन
क्योंकि बड़े बाबा के लिए नए मंदिर का निर्माण किया जा भारतीयों ने अथक परिश्रम कर सैकड़ों लोगों में से हमें आगे
रहा था। पहुँचाया। हम सब लोग जमीन पर बैठे और हमें शांत रहने
हम लोग शाम छह बजे भोजनशाला में गए। उन्होंने को कहा गया। मैं उनकी भाषा नहीं समझ पा रही थी लेकिन
सैकड़ों लोगों को बिना किसी शुल्क के भोजन दिया। और दीक्षा लेने वाली महिलाओं को नजदीक से देखने पर उनकी
हम सब भोजन प्राप्त करने के लिए दूसरों को हटाकर सफेद साड़ी में सिर के ऊपर खून के धब्बे दिख रहे थे।
प्रयत्नशील थे। हमें बताया गया था कि तीर्थ के धार्मिक सभी साधु और दीक्षार्थियों ने अपने बाल निकाल दिए थे।
| नियमों के अनुसार भोजन मिलना शीघ्र ही बंद होने वाला मुझे बाद में बताया गया था कि उन्होंने अपने बाल अपने | था। भोजन स्वादिष्ट था- चपाती. चना-मसाला और अन्य हाथों से निकाले थे।
| चीजें। हमने अपनी प्लेटें एक बहुत बड़े टीन में रख दीं जो वहाँ लगभग अस्सी साधु नग्न अवस्था में बेंचों पर
| फर्श पर रखा गया था। बैठे थे। मंच के बायीं ओर पचास दीक्षार्थी महिलाएँ बैठी
भोजन के बाद हम लोग सोने चले गए। हम लोगों थीं। उनके गुरु एक ऊँचे सिंहासन पर मंच के दाईं ओर | को सबह जल्दी उठकर मंदिरों में होने वाली प्रार्थना में विराजमान थे। वे माइक्रोफोन (ध्वनिग्राही) से बोल रहे थे |
सम्मिलित होना था मैं रात में ठीक से सो नहीं सकी। कमरे और एक-एक दीक्षार्थी महिला उनके निकट स्थित दूसरे | में गर्मी बहत थी, मच्छर बहत थे तथा बाहर बहत शोर हो माइक्रोफोन से बोलती जा रही थीं। वे आपस में संवाद कर | रहा था, जहाँ सैकड़ों लोग खुले आसमान के नीचे चाँदनी में रहे थे। भीड़ शांतिपूर्वक सुन रही थी और बीच-बीच में | सो रहे थे। हँसती भी थी। गुरुजी प्रमोद स्वभाववाले दिख रहे थे। मैं कुण्डलपुर में प्रार्थना बहुत सुबह सूर्योदय के पूर्व सोचती हूँ कि इस समय ही सब दीक्षार्थियों ने दीक्षा स्वीकार | होती है। वहाँ प्रथम मंदिर तक पहुँचने हेतु सीढ़ियों द्वारा की होगी। एक घण्टे तक समारोह को देखने और बहुत सारे | पर्वत की चढ़ाई प्रारंभ हो जाती है। यात्री एक-एक मंदिर में फोटो लेने के बाद हम लोगों ने भोजन करने का विचार | जाने लगते हैं। वहाँ लगभग साठ मंदिर हैं। किया। मुझे प्रसाधनों का उपयोग करना था। मैं टीन के उन प्रत्येक व्यक्ति मंदिर में प्रसाद लेकर आता है, जो
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चावल और फल होते हैं। जैन मंदिर में जाकर वे अपने भगवान् को प्रसाद भेंट करते हैं और फिर प्रार्थना करते हैं। 10 इसप्रकार करके, उसके बाद अगले मंदिर में जाते हैं।
एक मात्र विदेशी पर्यटक होने के कारण भारतीय लोग हमें घूरकर निरंतर देखते हैं और बाद में हमसे हमारा नाम और किस देश से आये हैं, यह पूछते ।
लगभग दोपहर 11 को हम नीचे उसी मंदिर में आ गए, जहाँ से हमने प्रातः यात्रा प्रारम्भ की थी । यहाँ हमने खुले आसमान में नग्न साधुओं को अपने गुरु के चारों और बैठे देखा। जैन माताएँ^2 साधुओं को घेरकर बैठी थीं। यह बैठने का ढंग अत्यन्त लुभावना था। ताँबो जैसे रंग के साधुओं को घेरकर सफेद साड़ी पहने माताएँ बैठी थीं। बाद में हमें बताया गया कि इस अवसर पर नई दीक्षित माताओं को उनके गुरुद्वारा नया नाम दिया गया।
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इस समारोह के बाद जैन साधु अपने-अपने कक्षों में चले गए। वे आसानी से इधर-उधर जा आ रहे थे। अपनेअपने कक्ष में वे जैन धर्मावलम्बियों से मिलकर उनके प्रश्नों के या तो उत्तर दे रहे थे या धर्म की बातें उन्हें बता रहे
थे
I
माइक और मैंने एक-दो साधुओं से बात की। वे बहुत अच्छी अँग्रेजी में बात कर लेते थे। हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि अधिकांश साधुओं ने अपने बहुत अच्छे सम्पन्न पद और स्थिति को छोड़कर, सभी कुछ त्यागकर ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया था। जैन साधु पूर्व में उच्च पदों, जैसे इंजीनियर, एकाउण्टेण्ट, शेयर दलाल आदि पर प्रतिष्ठित थे। इसीप्रकार जैन माताएँ भी उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएँ थीं, जिन्होंने सब कुछ त्यागकर दीक्षा ग्रहण की थी।
इतने उच्च पदों पर प्रतिष्ठित होने और सम्पन्न होने के बावजूद भी उन्हें मानसिक संतोष और शांति नहीं मिली थी। इसलिए साधु एवं माताएँ इस धार्मिक मार्ग में आए थे, जहाँ उन्हें उन सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो गए थे जिनको वे खोज रहे थे।
मैंने उनमें से एक से पूछा, आप इसप्रकार सब कुछ छोड़कर क्या अब प्रसन्न हैं? उनका उत्तर था, हाँ, मैं प्रसन्न हूँ और प्रत्येक क्षण मेरी प्रसन्नता बढ़ती जा रही है । '
मेरे पति ने कम दार्शनिक प्रश्न पूछे, जैसे, क्या आपको ठण्ड नहीं लगती? या 'क्या आपको कभी आइसक्रीम खाने की इच्छा नहीं होती?'
दिगम्बर जैन साधु पूरे भारत में छोटे-छोटे गाँवों में
16 अप्रैल 2007 जिनभाषित
पूरे जीवन भ्रमण करते हैं। वे कभी वस्त्र नहीं पहनते, न यात्रा में किसी वाहन का उपयोग करते हैं। वे नग्न ही एक शहर से दूसरे शहर में भ्रमण करते हैं। उनका ध्येय गाँवगाँव में जैनधर्म का प्रचार करना और अन्य लोगों की सहायता करना होता है । वे हमेशा एक पिच्छिका और पानी के लिए कमण्डलु साथ में रखते हैं । पिच्छिका मयूरपंख की बनी होती है और वे उस स्थान पर, जहाँ उन्हें बैठना होता है, प्रमार्जन करते हैं जिससे किसी क्षुद्र जीव-जन्तु का घात न हो
नग्न साधुओं के धर्म को दिगम्बर धर्म कहा जाता है। वे कभी वस्त्रों का उपयोग नहीं करते क्योंकि वे नियमित गृहस्थ जीवन का त्याग कर चुके हैं। उन्होंने सभी प्रकार के परिग्रह का त्यागकर इस धार्मिक विधि को अपनाया है । माताएँ केवल सफेद साड़ी ही पहनती हैं।
मुझे यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि साधु और माताएँ एक दूसरे को साधु ही कहती हैं। 14 जैन अपने साधुओं का बहुत सम्मान करते हैं और हमेशा उन्हें प्रणाम ( झुककर ) करते हैं। वे कभी भी उनके सामने नहीं चलते और न कभी उन्हें स्पर्श करते हैं। वे केवल उनकी आज्ञा से पैर छू सकते हैं। यही उनका आशीर्वाद देने का तरीका है। 15
मैंने और मेरे पति ने उन्हें आहार ग्रहण करते हुए भी देखा। साधु और माताएँ दिन में केवल एक बार ही आहार मध्याह्न में करते हैं और उन्हें केवल जैन धर्मावलम्बी ही आहार देते हैं। आहार के समय जैन परिवार एक समूह में खड़े होकर साधुओं और माताओं से उनके यहाँ ही आहार ग्रहण करने के लिए आग्रह करते हैं । जब विधि के अनुसार वे आहार प्रदान करने वाले व्यक्तियों का निर्णय करते हैं एवं उसके शांत स्थान पर जाकर आहार ग्रहण करते है । साधु खड़े होकर केवल अपने हाथों में ही आहार ग्रहण करते हैं। वे थोड़ा आहार सामग्री हाथों पर रखे जाने के बाद उसे मुँह की ओर ले जाकर, मुँह से चबाकर भोजन लेते हैं ।
दिगम्बर जैन पूर्ण रूपेण शाकाहारी होते हैं और वे कुछ सब्जियों या फलों का उपयोग करते हैं। मांसभक्षण के अलावा भी वे अण्डे, दूध के पकवान, प्याज, लहसुन आदि का उपयोग नहीं करते।
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यद्यपि हमारा धर्म अलग है, हम जैन धर्म को नहीं पालते, लेकिन फिर भी भारतीयों ने हमें बहुत आदर-सत्कार दिया और कई अवसरों पर आवश्यकता से अधिक हमारा ध्यान रखा । हमारी कुण्डलपुर यात्रा एक बहुत बड़ी उपलब्धि
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रही और केवल दो दिनों में ही हमें जैनधर्म के बारे में इतनी वीर निर्वाण संवत् 2532, विक्रम संवत् 2062, दिनांक 13, फरवरी, ज्यादा जानकारी हो गई तथा हमारी दिगम्बर जैन साधओं को। 2006 को आयोजित था। देखने की अभिलाषा पूर्ण हो गई।
| 5. कुण्डलपुर (दमोह) म.प्र. अंतिम अननुबद्ध केवली श्री श्रीधर
स्वामी की निर्वाणस्थली के लिए लोकप्रसिद्ध है। खजुराहो में वापस आकर, मैं और मेरे पति बहुत ही |
6. अट्ठावन दीक्षार्थियों में से पचपन बाल ब्रह्मचारिणी बहनें थी। खशी में फुलकर दूसरे विदेशियों के साथ बात करते थे। हमें | 7. कार्यक्रम में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तथा लगा कि जैन साधुओं की संगति से हमें बहुत अच्छा अनुभव आचार्यश्री जी द्वारा दीक्षित 48 नग्न दिगम्बर जैन मुनिराज तथा हुआ और हम उस जैन दम्पत्ति के आभारी थे जिनके सहयोग 107 आर्यिका माताजी भी मंचासीन थीं। से हम कुण्डलपुर जा सके। केवल जैन धर्मावलम्बी के 8. तीर्थ वन्दना एवं पूजा।। साथ ही जैन मंदिरों में कुण्डलपुर जाया जा सकता है. 17 वहाँ 9. पूजन हेतु अष्ट द्रव्य युक्त सामग्री।
10. अष्ट द्रव्य युक्त पूजन सामग्री को अर्घ्य बोलकर वेदिका पर जाने का दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
चढ़ाते/समर्पित करते हैं। मूल अंग्रेजी लेख से हिन्दी अनुवादक
11. प्रातः काल लगभग 8-9 बजे। शांतिलाल जैन, पूर्व एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर | 12. आर्यिका संघ।
मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल, जबलपुर, 13.13 फरवरी को दीक्षाविधि क्रिया के दौरान ही नामकरण संस्कार
सम्पर्क सूत्र- फ्लैट 7/3, नूपुर कुँज, ई-3, | किया जा चुका था। 14 फरवरी को उन नामों की सार्थक व्याख्या महावीर नगर अरेरा कॉलोनी, भोपाल-462 016 (म.प्र.) तथा धर्मोपदेश आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा किया गया फोन : 0755-4293654, मो. 094250-06804
14. साधु 28 मूलगुण/ महाव्रतों को पालन करते हैं जबकि आर्यिकाएँ पादटिप्पण- अनुवाद की ओर से
यथायोग्य मूलगुणों का पालन करती हैं तथा उपचार से महाव्रती 1. दिगम्बर जैनाचार्य सन्तशिरोमणि 108 श्री विद्यासागर जी महाराज
कहलाती हैं।
15.आशीर्वाद और भी अन्य तरीकों से प्राप्त किया जाता है। 2. श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र- सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि-कुण्डलपुर
16.जिन्होंने रस के रूप में दूध या दूध आदि से बने पकवानों इत्यादि जी, तहसील-पटेरा, जिला दमोह, म.प्र. पिन-470773
का त्याग नहीं किया हैं, ऐसे गृहस्थ श्रावक या साधु आदि भी दूध फोन: 07605-272230,2722271
या दूध आदि से बने पकवान आदि को ग्रहण करते हैं। 3. खजुराहो, जिला-छतरपुर, मध्यप्रदेश पिनकोड-4716061 । 17.जैनधर्मावलम्बियों के साथ के बिना भी कुण्डलपुर जाया जा सकता 4. वस्तुतः कार्यक्रम एक दिवसीय ही था, जो माघ शुक्ला पूर्णिमा, | है।
था।
ससंघ।
शाकाहारी सौ साल जिएंगे 2056 तक विज्ञान आदमी के पूरे सौ साल तक जीने के पुख्ता इंतजाम कर देगा। भविष्य का सौ वर्षीय आदमी आज के 60 वर्षीय आदमी की तरह ही चुस्त दुरुस्त होगा। न उसकी कमर झुकेगी, न दिमाग सठियाएगा और न ही उसका दिल कमजोर होगा। ये महज किसी कल्पनालोक की लंतरानियाँ नहीं हैं बल्कि वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं का यथार्थ बन चुकी उपलब्धियाँ हैं। फिलहाल स्तनधारियों के जीवन-वृत्त में चालीस फीसदी का इजाफा करने के बाद वैज्ञानिकों ने आदमी के लिए ऐसे सुरक्षा-तंत्र को विकसित करने की ठान ली है, जो पूरे सौ साल तक भीतर की टूटफूट की अनवरत मरम्मत करने में कामयाब साबित होगा। इससे न केवल आदमी चुस्त-दुरुस्त बना रहेगा बल्कि 'डिंब' और 'गर्भाशय-ऊतकों' के प्रत्यारोपण के जरिये स्त्री की प्रजनन क्षमता को भी 60-70 साल तक बरकरार रखा जा सकेगा। यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के प्रोफेसर डेनियल पाउली का मानना है कि हम जितना ज्यादा जीव-जंतुओं के दिमाग की भाषा पढ़ने में कामयाब हो सकेंगे, उतना ज्यादा ही हमारा मनुष्य समुदाय शाकाहार की ओर भी बढ़ता जाएगा और यह अपनी तरह की एक वैश्विक क्रांति होगी जब आदमी सौ साल जीएगा और वह भी दूसरे जीवों की हत्या किये बिना।
'कादम्बिनी' मार्च 2007 से साभार
- अप्रैल 2007 जिनभाषित 17
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पाखंड को प्रणाम कब तक ?
स्वामी अग्निवेश
आज चैनलों पर धर्म व अध्यात्म के नाम पर जो परोसा जा रहा है, उसमें धर्मतत्त्व कितना और किस रूप में है, उसे निष्पक्ष नजरिए से समझने की जरूरत है ।
पिछले कुछ दिनों से हमारे देश में धार्मिक 'चमत्कारों'। की बाढ़ सी आई है । कभी देव प्रतिमाओं के दूध पीने की खबरें आती हैं, तो कभी किसी समुद्र का पानी मीठा हो जाने का शोर मच उठता है। कभी किसी चर्च में जीसस 'प्रकट' हो जाते हैं, तो कभी किसी मस्जिद की दीवार पर अचानक कुरआन की आयतें या काबा शरीफ का अक्स उभर आता है। कभी किसी मंदिर में देव प्रतिमा की आंखों से आंसू टपकने की खबर आती है, तो किसी मंदिर में मूर्तियों के रंग बदलने की अफवाह सिर उठा लेती है । इसतरह की अंधविश्वासी घटनाओं को चमत्कार समझकर आम जनता उस पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेती है और उसे धर्म से जोड़ दिया जाता है। हमारे समाज में ऐसे-ऐसे गुरु घंटाल हैं जो इसतरह की बेसिर-पैर की खबरों के जरिए लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषणकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं ।
कुछ दिनों पहले अखबारों में मुझे यह खबर भी पढ़ने को मिली थी कि नेपाल में वर्षा के लिए महिलाओं को नग्नकर उनसे हल चलवाया गया। हमारे देश में भी कहींकहीं इसतरह के प्रयास हुए हैं। यह अंधविश्वास की पराकाष्ठा है । एक और भी घटना सुनने में आई कि आगरा के पास एक गांव में वहां के कुछ लोगों ने परवीन नूरी नामक एक जवान लड़की को बंधक बनाकर यह सिद्ध करना चाहा कि यह 'देवी माँ' है, यह तपस्या करेगी तो पानी बरसेगा । उस लड़की को सात दिनों तक बांधकर भूखा-प्यासा रखा गया। बाद में पता लगने पर पुलिस ने उसे मुक्त कराया।
दरअसल, धर्म के नाम पर सदियों से अंधविश्वास, रूढ़ियां, अनर्गल कर्मकांड, गुरुडम, जातिवाद और तमाम तरह की बुरी प्रथाएं समाज में परोसी जाती रही हैं। इससे धर्म का सही रूप जो सनातन व शाश्वत होता है, सिकुड़ता गया और धर्म संप्रदाय में बदलता चला गया। पहले जब टेक्नोलॉजी का अभाव था तो इस तरह की संकीर्णता व सांप्रदायिकता का प्रचार सीमित क्षेत्र में था । इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का विस्तार होने के बाद पैसे वाले धर्मगुरुओं को 18 अप्रैल 2007 जिनभाषित
टीवी के माध्यम से अपने गुरुडम का विस्तार करने के साथ-साथ अंधविश्वास, पाखंड और रूढ़ियों को फैलाने में खूब मदद मिल रही है। आज चैनलों पर धर्म व अध्यात्म के नाम पर जो परोसा जा रहा है, उसमें धर्मतत्व कितना और किस रूप में है, उसे निष्पक्ष नजरिए से समझने की जरूरत है।
इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि एक तरफ टीवी जैसा यंत्र आधुनिक विज्ञान का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ इसी के जरिए महाअवैज्ञानिक विचारों का संप्रेषण भी हो रहा है। ज्यादातर चैनलों की सत्य के प्रति कोई प्रतिबद्धता किसी भी स्तर पर दिखाई नहीं पड़ती है। बाजारवाद का सबसे ज्यादा असर इन पर ही दिखाई पड़ता है। यानी मुनाफा कमाना ही इनका एकमात्र मकसद रह गया है। समाज पर इसका अत्यंत प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इससे कैसे निबटा जाए, यह सोचने की जरूरत है । आलोचना करना या निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए । विज्ञान की इस उपलब्धि का सही इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है, इस पर पूरी ताकत लगाने की जरूरत है। टीवी चैनलों के जरिये समाज में फैली तमाम बुराइयों, अंधविश्वासों और पाखंडों पर युवा मस्तिष्क सवाल उठा-उठाकर नए सिरे से आंदोलन छेड़ने की जरूरत है यानी मानस शुद्धि आंदोलन चलाने की जरूरत है । इस सिलसिले में डीडी - १ और डीडी पर प्रसारित 'मंथन' कार्यक्रम ऐसी ही पहल कही जा सकती है, जो पिछले चार महीने से जारी है। ऐसी ही पहल मंथन मित्र मंडल बनाकर गांव-गांव व कस्बे कस्बे में की जानी चाहिए। धर्म व समाज के तमाम सवालों को उठाए बगैर न तो धर्म के सही रूप को समझा जा सकता है और न ही समाज का सुधार ही किया जा सकता है।
धर्म से ताल्लुक रखने वाले तमाम सवालों को तेजी से उठाने और स्कूल-कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले करोड़ों युवाओं के मन-मस्तिष्क को वैचारिक क्रांति की ऊर्जा से आंदोलित व उद्वेलित करने का काम नहीं किया जाएगा, तो निठारी जैसे अमानवीय एवं पैशाचिक
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कृत्यों को रोकना मुश्किल होगा। निठारी कांड की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि रतलाम के मिशन हास्पिटल से मासूम बच्चों के कंकाल और बड़ी तादात में मांस के लोथड़े मिले। यह सिलसिला इसी तरह पूरे देश व दुनिया में फैलता जा रहा है और फैलता जाएगा। कोई धर्मगुरु आगे नहीं आ रहा है। ढाई सौ करोड़ रुपए से बने अक्षरधाम मंदिर से महज चार कि.मी. पर स्थित निठारी गांव में कोई धर्मगुरु या नेता संवेदना व्यक्त करने नहीं गया। ऐसे अपराधों के खिलाफ यदि कोई बोल रहा है, तो वे सामाजिक कार्यकर्ता या राजनेता । तथाकथित धर्माचारियों की संवेदनाशून्यता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि ऐसे कांडों के बाद भी वे पूर्ववत् अपने पूजा-पाठ व अजान नमाज में लगे हैं। जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो।
धर्म यदि अधार्मिक कृत्यों को रोकने के लिए आगे नहीं आता, तो वह धर्म नहीं बल्कि पाखंड ही माना जाएगा। और धर्म का यह निष्क्रियरूप ही समाज को विकृत कर रहा
। धर्म की नई सामाजिक भूमिका समाजसुधार और सांस्कृतिक नवउत्थान में सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें उन सभी लोगों की भूमिका होनी चाहिए जो वाकई में विश्व
|
समाज को एक परिवार मानते हैं। जो चाहते हैं इंसानियत का भला और विकास हो । आज विश्व उस रूप में नहीं है जैसा कुछ दशक पहले था। इसे नजर में रखते हुए सबको साथ मिलकर काम करना होगा जो कथित धर्म के नाम पर देशदुनिया में हिंसा, आतंकवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद का जहर घोल रही हैं। और उन धर्मगुरुओं को सबसे ज्यादा सोचने की जरूरत है जो धर्म के नाम पर आदर-सम्मान हासिल कर रहे हैं लेकिन समाज में बढ़ रहे अधर्म और गैरइंसानी रवायतों के खिलाफ आगे आने में झिझकते हैं । इससे असामाजिक और अमानवीय ताकतों को लगातार बढ़ावा मिल रहा है।
समाज को आज ऐसे क्रांतिकारी और चिंतनशील कर्मवीरों की जरूरत है जो पद, प्रतिष्ठा और स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज और इंसानी तहजीब को मुसलसल रखने में यकीन करते हैं। इनसे ही बढ़ती दुष्प्रवृत्तियों और अमानवीयता पर लगाम लगाई जा सकती है। अंधविश्वास एवं तथाकथित धर्मगुरुओं के पाखंड को रोकने में तभी सफल हुआ जा सकता है।
सुधार का रास्ता
एक दिन आचार्य गुरुदेव से कहा- गुरुदेव कुछ लोग गलत कार्य करते हैं, उन्हें समझाते हैं फिर भी वे गलत कार्य करना नहीं छोड़ते। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए? आचार्य गुरुदेव ने युक्तिपूर्वक समझाते हुए कहा, जिससे आप पाप छुड़वाना चाहते हो, उससे पहले मित्रतापूर्वक व्यवहार करो। फिर कहो - भैया देखो, हमें आपके ये कार्य अच्छे नहीं लगते। मैं आपसे मित्र की तरह मिलता रहता हूँ, साथ में उठना, बैठना भी होता है, आप ऐसे कार्य मत किया करो। सरलता से समझाकर ही यह कार्य हो सकता है अपनापन देकर आप मनुष्य से क्या, पशु पक्षी से भी पाप छुड़वा सकते हो, वरना नहीं । यदि हमारा उसके प्रति सद्व्यवहार न हो, तो उसको ठेस लगने से उसका सम्यग्दर्शन भी छूट सकता है। इसलिए ऐसा व्यवहार करो, जिससे अपनी दृष्टि मजबूत हो और दूसरे को भी सही दृष्टि प्राप्त हो, क्योंकि दुकान सरलता से नम्रता से ही चलती है, जोर जबरदस्ती से नहीं ।
दैनिक भास्कर, भोपाल १४ मार्च, २००७ से साभार
मन मंदिर में
सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में नव निर्मित अष्ट धातु की आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा जी को वेदी पर स्थापित करने के लिए ट्रक में लाया जा रहा था, वह बीच में ही रुक गया। ट्रक का आधा पहिया जमीन में धँस गया। ट्रक वहीं रुक गया, आगे नहीं बढ़ रहा था । तब आचार्यश्री ने कहा भैया ! भगवान् बिना परीक्षा के वेदी पर नहीं बैठते, तो सोच लो आपके मन मंदिर में भी बिना परीक्षा के कैसे बैठेंगे?
मुनि श्री कुन्थुसागर संकलित 'संस्मरण' से साभार
'अप्रैल 2007 जिनभाषित 19
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जैन महिलाओं के व्यक्तित्व का चतुर्मुखी विकास
विमला जैन
जिला एवं सत्र न्यायाधीश भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय, सागर (म.प्र.) की संचालिका डॉ. रेखा जैन ने 16 फरवरी 2007 को सागर में अखिल भारतीय जैन महिला सम्मेलन आयोजित किया था। उन्होंने इस आयोजन में श्रीमती विमला जैन, जिला एवं सत्र न्यायाधीश, टीकमगढ़ को विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था। श्रीमती जैन अपनी तात्कालिक परिस्थितियों के कारण उपस्थित नहीं हो सकीं। उनकी अनुपस्थिति में पढ़े गये उनके भाषण का सारांश यहाँ प्रस्तुत है।
संपादक
जैन समाज ज्ञान-आधारित समाज है। जैन संस्कृति । का सशक्त चक्र है। पवित्र सामाजिक संस्कारों की जननी के रत्नत्रय में ज्ञान को केन्द्रीय कड़ी स्वीकार किया गया है। | है। संस्कृति की संरक्षिणी है। पारिवारिक, सामाजिक एवं ईसा की द्वितीय शताब्दी में आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित | धार्मिक कार्यों की सफल प्रबंधक एवं संचालक है। नारी तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम सूत्र 'सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' | अपने नैसर्गिक गुणों से अपने घर को स्वर्ग बनाती है। पूरे में ज्ञान को महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की गई है। पण्डित | परिवार को एक सूत्र में बाँधती है। वह करूणा की जीवंत दौलतराम जी द्वारा 300 वर्ष पूर्व रचित छहढाला की निम्नांकित | मूर्ति है। वह ममता, समता, सहिष्णुता, शांति, श्रमशीलता, पंक्तियों में, जो हमारी माताएँ बहिनें सदैव पढ़ती हैं, ज्ञान को | सहनशीलता, सेवा और विनम्रता जैसी शुचिधाराओं का संगम ही सुख का अनुपम उपाय बतलाया गया है
है। जैन नारियों ने अपनी गौरव, गरिमा, तपस्या और त्याग ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन। | की छवि सम्पूर्ण इतिहास में अंकित की है। जैन संस्कृति को
यह परमामत जन्म जरा मृत्यु रोग निवारण॥ अमरता प्रदान करने में जैन नारियों ने बहुमूल्य योगदान दिया
जैनधर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने | है। अपनी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को स्वयं अध्ययन ज्ञान-दान श्रेष्ठतम एवं सर्वोत्कृष्ट दान है। ज्ञान से कराया था और इसतरह समाज की सभी स्त्रियों को शिक्षा | हमारे अनेक कष्टों का निदान हो जाता है। हम यह शपथ लें ग्रहण करने की प्रेरणा दी थी। भगवान ऋषभदेव के स्त्रीशिक्षा- | कि. अपने परिवार. अपने संबंधियों और अपने समाज के संबंधी महत्त्वपूर्ण उपदेश को आचार्य जिनसेन द्वारा रचित | सदस्यों को सदैव ज्ञानदान का प्रयास करें। आदिपुराण के निम्नांकित श्लोक 16/98 में लेखबद्ध किया यह आवश्यक है कि हमारी शिक्षित महिलाएं गया है
आधुनिक विज्ञान और तकनीक को अपने ग्रामीण क्षेत्र में विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मतिं याति कोविदैः। । रहनेवाले प्रत्येक परिवार तक पहुँचाएँ। प्रत्येक मंदिर और
नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदम्॥ धर्मशाला में ज्ञानकेन्द्र स्थापित करें। ग्रामों में और छोटे नगरों
अर्थात् लोक में विद्यावान् पुरुष, पण्डितों के द्वारा | में रहने वाले जैन परिवारों का जीवन स्तर ऊँचा उठाएँ। उन्हें सम्मानित किया जाता है, विद्यावती नारी सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त | इन तकनीकों से जोडें। जिससे वे भी हमारी प्रगतिशील करती है। अतः हे पुत्रियों! तुम विद्यार्जन हेतु सदा प्रयत्नशील | समाज की मुख्यधारा में आ सकें। हमारी महिलाएँ जैन रहो।
संस्कृति और जैन कला के वैज्ञानिक एवं तकनीकी पक्षों का तीर्थंकरों एवं आचार्यों की सतत् प्रेरणा एवं उपदेश | प्रचार-प्रसार करें। जैन मान्यताओं, परम्पराओं, जैन के कारण जैन श्रावकाचार में शिक्षा प्राप्ति का सर्वाधिक महत्त्व जीवनपद्धतियों एवं पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण करें। रहा है। शिक्षित और ज्ञानी महिलाओं को समाज में सदा भारतीय संस्कृति माता को अनेकानेक गुरुओं से श्रेष्ठ अग्रणी और सम्मानीय स्थान प्रदान किया गया है। लौकिक मानती है। निम्नांकित श्लोक में कहा गया है कि दस उपाध्यायों शिक्षा प्राप्तकर श्रमण संस्कृति का अध्ययन करने की हमारी | से एक आचार्य, सौ आचार्यो से एक पिता तथा हजार पिताओं महिलाओं में सदैव जागरुकता एवं रुचि रही है।
से एक माता श्रेष्ठ है। नारी परिवार की आधारशीला है। वह सामाजिक रथ
उपाध्यायान्दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता। 20 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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सहस्रांस्तु पितॄन् माता, गौरवेणातिरिच्यते॥ । अच्छे व्यक्तित्व का मूलभूत गुण अच्छा नजरिया है। अच्छी
परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने अपने महाकाव्य | और सकारात्मक प्रवृत्तियाँ है। अतः आप अच्छा नजरियाँ मूकमाटी में माँ का जीवंत तथा आदर्श चित्रण किया है। सीखें, अच्छी प्रवृत्तियाँ अपनाएँ। हम अपने जीवन की उन्होंने माँ को विश्व प्रसिद्ध एवं विश्व की अनेक भाषाओं | परिस्थितियों को तुरंत परिवर्तित नहीं कर सकते, किन्तु हम में अनुवादित 'माँ' उपन्यास के रचयिता गोर्की से भी अधिक | अपने व्यक्तित्व में सहजता और सरलता से सहन करने की ऊँचाई दी है। बालब्रह्मचारी दिगम्बर संत द्वारा मातृत्व के | प्रवृत्ति और शक्ति विकसित कर सकते हैं। हम देश में फैल सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य का ऐसा विवेचन निश्चित ही अत्यधिक | रहे नकारात्मक वातावरण को नियंत्रित नहीं कर सकते, सराहनीय है
परन्तु हम अपने और अपने बच्चों के मस्तिष्क को अपनी माँ की गोद में बालक हो।
इच्छानुसार नियंत्रित कर उसे सकारात्मक ढंग से विकसित माँ उसे दूध पिला रही हो।
कर सकते हैं। पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी ने बुन्देलखण्ड के ग्रामीण
. आप सतर्क रहें। संवेदनशील बनें। सही चिंतन करें। क्षेत्र की निर्धन यवा प्रतिभाओं की पहचान की। उन्होंने ऐसी | सहीं चिंतन करने वाले व्यक्तियों से मिले-जुलें। उनकी प्रतिभाओं एवं उनके परिवार का विश्वास अर्जित किया अच्छी आदते सीखें। अच्छे कार्यों को बार-बार करके हम और हमें ऐसी प्रतिभाओं को उच्च शिक्षा प्रदान करने का अच्छी प्रवृत्तियाँ और अच्छी आदतें विकसित करें। आप अवसर दिया। नारी शिक्षा के क्षेत्र में उनकी यह व्यावहारिक | प्रतिदिन सही शब्द बोलें, प्रतिदिन अच्छी पुस्तकें पढ़े, आप एवं प्रभावी भूमिका अत्यधिक सराहनीय और अनुकरणीय | कभी किसी को नीचा न दिखायें। किसी की आलोचना नहीं
करें। हँसी-मजाक में भी आलोचना नहीं करें। ऐसी आलोचना इस आलेख के माध्यम से प्रत्येक छोटी बहिन, बहू | किसी को स्थायी चोट पहँचा सकती है। नीचा दिखाने से एवं बेटी से मेरा विनम्र आग्रह है कि हम ज्ञान आधारित | किसी व्यक्ति का स्वाभिमान और आत्मविश्वास कम हो समाज के सक्रिय एवं प्रभावी अंग बनें। लगातार कुछ नया सकता है। जब कभी भी अवसर मिले, अन्य व्यक्तियों की करें। सदैव रचनात्मक कार्य करें। नई परिकल्पना करें। नई | प्रशंसा करें। अपने से छोटों को बेहतर काम करने के लिए खोज करें। नई परिकल्पना और नई खोज को मिलाकर कुछ | प्रेरित एवं प्रोत्साहित करें। प्रोत्साहन ऑक्सीजन की भाँति नया गढ़ने का प्रयास करें। घिसे-पिटे विचारों को नया स्वरूप | उपयोगी होता है। प्रोत्साहन से व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दें। पुराने विचारों को नए ढंग से लाग करें। अच्छे परिवर्तनों | करते हैं।
और नई प्रक्रियाओं को स्वीकार करने के लिए सदैव तत्पर अपने भीतर छुपे नेतृत्व के गुणों को उभारें। अपनी रहें। प्रत्येक क्षण नई संभावना की खोज करें। अपने नजरिए | विशेष योग्यता की पहचान कर उसे विकसित करें। स्वयं में लोच रखें। अच्छी बात का आनन्द उठायें। भूल को | को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें। सुधारें। हम किसी वस्तु या घटना को भले ही साधारण | आप सदैव यह स्मरण रखें कि विभिन्न बाहरी साधनों व्यक्ति की भाँति देखें, किन्तु उस पर विशिष्ट व्यक्ति की | को अपनाकर आप अपने चेहरे की सुंदरता में थोड़ी सी ही भाँति सोचें। सभी स्तरों पर निरंतर नूतन तरीका अपनाएँ।। वृद्धि कर सकती हैं परन्तु अपनी दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों नित्य नवीन करने की ललक रखें। नई कार्य संस्कृति को नियंत्रित कर अपने व्यक्तित्व की सुन्दरता में चतुर्मुखी विकसित करें। कुशाग्रबुद्धि एवं रचनात्मक मनोवृत्ति वाले | वृद्धि कर सकती हैं। युवक-युवतियों को सामने लाएँ। उनके विचारों को आप अपनी क्षमता और शक्ति का सदुपयोग करें। व्यावहारिक स्वरूप दें। नए विचारों की प्रतिस्पर्धा विकसित सर्वप्रथम आप अपने ऊपर विजय प्राप्त कीजिए। अपने करें। ऐसी प्रतिस्पर्धा को संरक्षण और संवर्द्धन दें। नए विचार |
जीवन में आत्म अनुशासन विकसित कीजिए। आप आज और सोच को पुरस्कृत और प्रोत्साहित करें।
से ही आत्म अनुशासन के छोटे छोटे बिन्दु विकसित करना आप अपने व्यक्तित्व में अच्छा नजरिया और | प्रारंभ कर दें। ताकि आप कल बड़ी सीमा तक अनुशासित सकारात्मक प्रवृत्ति विकसित करें। तकनीकी प्रशिक्षण के हो सकें। अच्छा चरित्र हमें धीरे-धीरे बनाना पड़ता है। हम कारण केवल 15 प्रतिशत सफलता मिलती है। शेष 85| अपनी भावनाओं से नहीं, किन्तु अपने चरित्र से संचालित प्रतिशत सफलता अच्छे व्यक्तित्व के कारण मिलती है और | हो। अच्छे विचार, साहस और संकल्प से अच्छा चरित्र और
• अप्रैल 2007 जिनभाषित 21
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अनुशासित जीवनशैली विकसित करें ।
आप समय बचाने का सदैव प्रयास करें। प्रतीक्षा के समय का सदुपयोग करें । सदैव रचनात्मक कार्य करें और समय का सार्थक उपयोग करें। बस और ट्रेन में बैठने के समय का उपयोग हलके-फुलके काम करने और पढ़ने में करें। कभी भी बस और ट्रेन में बिना पुस्तक के नहीं बैठें। जब भी ट्रैफिक में फस जायें, तो पुस्तक को बाहर निकालकर पढ़े। विचारों को लिखने के लिए नोट पैड भी रखें। इस प्रकार आप व्यक्तिगत विकास और काम के लिए आप कुछ अतिरिक्त घण्टे हासिल कर सकते है । ब्रश करते समय अच्छी बाते स्मरण करें। स्नान करते समय अच्छे गीत
आशा
आशा ही संसार है, नर जीवन सुख मूल, हो निराश मन मर गया, हृदय गढ़ा सा शूल । आशा ऊर्जा - ज्योति है, तम हर, दे पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, अरूकाम, शिव, आशा से परमार्थ ।
22 अप्रैल 2007 जिनभाषित
गुनगुनाएँ । अपनी शारीरिक और मानसिक स्फूति के क्षणों का निर्धारण करें। सर्वोच्च महत्त्व के कार्य इसी समय करें । स्वागत एवं सामाजिक संबंधों के लिए समय निर्धारित करें। अंत में प्रत्येक छोटी बहिन बेटी एवं बहू को मेरी यह विनम्र सलाह है कि अतिभोग से बचें। अतिवादी जीवन से बचकर सम्यक् जीवन, प्राचीन और अर्वाचीन श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक धरातल पर समन्वय करें और समकालीन परिस्थितियों में शाश्वत जीवन मूल्यों के संरक्षण का सार्थक प्रयास करें।
'मुक्तक-मणियाँ'
विद्या
नव निधि का भण्डार है, देवे यश सम्मान, स्व-परहित सिंचित करे, नित प्रति बढ़ती शान । विद्या - विनयविभूषिता, कभी न हो कंगाल, मरे, अमर, स्मृति रहे, मिटे न काल कराल ।
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प्रेम
पावन प्रेम पीयूष है, लोकालोक का सत्व, नि:स्वारथ जहाँ प्रेम हो, प्रकट होय अमरत्व | प्रेमप्रभा प्रमुदित करे, कष्ट अशांति अतीत, सच्चा प्रेम प्रसाद प्रभु, मिले जगत जग मीत।
30, निशात कॉलोनी, भोपाल, म.प्र. 462003
कर्मयोग
नर त्रियोग को साधकर, कृत्य करहि सुविचार, सन्मुख जो कर्त्तव्य है, प्रेयस वही सभार । अनासक्त निष्काम कृत, कहलाता है श्रेष्ठ, सुयश, सफल अमरत्व है, कर्मयोग जग ज्येष्ठ ।
डॉ. विमला जैन 'विमल'
1 / 344, सुहागनगर, ,फिरोजाबाद
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अक्षयतृतीया पर्व
सुशीला पाटनी प्रतिवर्ष वैशाख शल्क ततीया को अक्षय ततीया पर्व । श्रेयांस हे भगवान! तिष्ठ-तिष्ठ. ठहरिए-ठहरिए कहकर मानाया जाता है। यह पर्व प्राचीन है। इस दिन प्रथम तीर्थंकर | उन्हें घर के भीतर ले गए और उच्चासन पर विराजमानकर ऋषभदेव ने निर्ग्रन्थ अवस्था में हस्तिनागपर के राजा श्रेयांस | उनके चरण-कमल धोए. उनके चरणों की पजा करके उन्हें के यहाँ आहार लिया था, तभी से उनके निमित्त से यह पर्व | मन, वचन, काय से नमस्कार किया और सम्पर्ण लक्षणों से प्रारम्भ हआ। भगवान ऋषभदेव मानव संस्कृति के आदि | युक्त पात्र को देने की इच्छा से उन्होंने इक्षरस से भरा हआ संस्कर्ता हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे सषमा- | कलश उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षरस सोलह उदगम दुषमा नामक काल में जब चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, | दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष तथा धूम, अगार, आठ माह, एक पक्ष बाकी रह गया था तो आषाढ़ कृष्णा | प्रमाण और संयोजना इन चार दाता सम्बन्धी दोषों से रहित द्वितीया के दिन अन्तिम कुलकर नाभिराय की पत्नी मरूदेवी एवं प्रासुक है, इसे ग्रहण कीजिए। अनन्तर जिनकी आत्मा के गर्भ में ऋषभ आये। नव मास के बाद चैत्रकृष्ण नवमी के | विशुद्ध थी और जो पैरों को सीधाकर खड़े थे ऐसे ऋषभदेव दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में उनका । | ने क्रिया से आहार की विधि दिखाते हुए चारित्र की वृद्धि के जन्म हुआ।
लिए पारणा किया। राजा श्रेयांस ने कल्याणकारी श्री एक दिन राज-सभा में देवी नीलांजना का नृत्य देखते | | जिनेन्द्ररूपी पात्र को आहारदान दिया इसलिए पाँच प्रकार हुए अकस्मात् उसकी आयु समाप्त हुई जानकर ऋषभदेव | की आश्चर्यजनक विशुद्धियों से ये पञ्चाश्चर्य प्राप्त हुए- 1. संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गये और लौकान्तिक | रत्नवृष्टि, 2. पृष्पवृष्टि, 3. दुन्दुभि का बजना, 4. शीतल देवों के द्वारा प्रस्तुत होकर देवों के द्वारा लाई हुई सुदर्शना | और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु का चलना, 5. 'अहो दानम्' नामक पालकी पर आरूढ़ होकर अयोध्या नगरी से बाहर | इत्यादि प्रशंसा वाक्य। अर्चित होने के बाद जब तीर्थंकर कुछ दूर पर सिद्धार्थ नामक वन में पहुँचे। पंचमुष्टि केशलोंच | ऋषभदेव तप की वृद्धि के लिए वन को चले गए तब देवों ने करके उन्होंने सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दिया और ऊँ | राजा श्रेयांस की पूजा की। देवों से समीचीन दान और उसके नमः सिद्धेभ्य: कहते हुए उन्होंने दीक्षा ले ली। वह दिन चैत्र | फल की घोषणा सुनकर भरत और राजाओं ने भी आकर वदी नवमी का था। छह मास मौन साधना करने के बाद वे | राजा श्रेयांस की पूजा की। आहार के लिए नगर और ग्रामों में विहार करने लगे। भावुक | पूर्व घटना का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी मनुष्य भगवान् के दर्शनकर भक्ति-भावना से विभोर होकर | धर्म की विधि चलाई उस दान का प्रत्यक्ष फल देखनेवाले अपनी रूपवती कन्याएँ, सुन्दर वस्त्र, अमूल्य आभूषण, हाथी, | भरत आदि राजाओं ने बड़ी श्रद्धा के साथ श्रवण किया। राजा घोड़े, रथ, सिंहासन आदि वस्तुए भेंट करने लगे। कोई भी | श्रेयांस ने बताया कि दान सम्बन्धी पुण्य का संग्रह करने के विधिपूर्वक उन्हें आहार नहीं देता था, क्योंकि आहार देने की | लिए 1. अतिथि का प्रतिग्रह (पड़गाहना), 2. उच्च स्थान विधि उन्हें ज्ञात ही नहीं थी। इसप्रकार पुनः उन्होंने छह माह | पर बैठना, 3. पाद-प्रक्षालन करना, 4. दाता द्वारा अतिथि की निराहार रहकर योग साधना की। छह माह बाद पुनः आहार | पूजा करना, 5. नमस्कार करना, 6. मनः शुद्धि, 7. वचन के लिए हस्तिनापुर की ओर आए। दूर से ही उन्हें आता | शुद्धि,8. काय शुद्धि और 9. आहार शुद्धि ये नवधा भक्ति/नौ हुआ देखकर राजा श्रेयांस को अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो | प्रकार जानने योग्य हैं। दान देने से जो पुण्य संचित होता है आया। इस भव से आठ भव पहले भगवान् ऋषभदेव राजा | वह दाता के लिए स्वर्गादि फल देकर अन्त में मोक्षफल देत वज्रजंघ ने वन में दमधर और सागरसेन नामक मुनिराज को | है। आहार दिया था। उस आहार-दान के प्रभाव से देवों ने जिस दिन ऋषभदेव को आहार हुआ उस दिन वैशाख पञ्चाश्चर्य किए थे। ।
तृतीया थी। राजा श्रेयांस के यहाँ उस दिन रसोई गृह मे चान्द्रीचर्या से विचरण करते हुए भगवान् ऋषभदेव | | भोजन अक्षीण (जो क्षीण न हो, समाप्त न होने वाला) हो के सामने आने पर दान-धर्म की विधि के ज्ञाता और उसकी | गया। अतः इसे आज भी लोग 'अक्षय तृतीया पर्व' कहते स्वयं प्रवृत्ति कराने वाले श्रद्धा आदि गुणों से युक्त राजा । हैं। भरत क्षेत्र में इसी दिन से दान की प्रथा प्रचलित हुई। यह
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पर्व जैन समाज की भाँति हिन्दू समाज में भी मनाया जाता है। बुंदेलखण्ड में यह पर्व ' अकती ' के रूप में प्रसिद्ध है । ये दोनों ही शब्द अक्षयतृतीया के ही अपभ्रंश रूप हैं।
अक्षय तृतीया को लोग इतना अधिक शुभ मानते हैं कि इस दिन बिना लग्न संशोधन के भी शुभ कार्य किये जाते हैं। इस दिन प्रायः सभी शुभकार्य-नवीन मकान, दुकान या अन्य नए कार्य का मुहूर्त करने में लोग गौरव मानते हैं,
सुगन्धी चौध इस जीव ने संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य बनकर लौकिक । आत्मस्वभाव से विपरीत है । दुःखमय व दुःख के कारण शिक्षा व गिनती तो सीख ली, किन्तु अध्यात्म की हैं और आत्मा पवित्र, सुखमय एवं सुख का कारण है। कल्याणकारी गिनती आज तक न सीखी। इस अध्यात्म की गिनती से संसार छूटेगा । लौकिक गिनती से संसार का काम चलेगा और इस गिनती से परलोक का काम चलेगा।
चार का अंक कहता है- चार विकथा, चार कषाय, ये संसार के कारण हैं, तो प्रशम, संवेग, अनुकंपा व आस्तिक्य ये चार भावनाएँ सम्यग्दृष्टि को ही होती हैं। अनन्तानुबंधी आदि चार कषायें भावों की निर्मलता व आत्मपरिणामों की स्थिरता का निमित्तपाकर, क्रम से नष्ट होती जाती हैं। गुणस्थानों की वृद्धि इन्हीं कषायों के जाने से होती है । पाँच का अंक बताता है कि पाँच पापों का त्याग करते हुए, पाँच अणुव्रत महाव्रत व पांच ही समितियों का पालन भी क्रमशः ही होता है। छह काय के जीवों की रक्षा का भाव यदि न हो, तो वह जीव जैन नाम नहीं पाता है। आचार्यों ने पांच इन्द्रिय व मन को वश में करते हुए, १२ अविरति को भी त्यागने की बात कही है । ६ द्रव्य, ७ तत्त्वों, ९ पदार्थों व ५ अस्तिकायों में जीवराजा की ही प्रमुखता है। सात के अंक को क्यों छोड़े? ७ व्यसनों का त्यागना भी जरूरी है।
८ मूलगुणों का पालन करना प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य है । ९ देवता, ९ निधियाँ, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण ९ बलभद्र इनकी चर्चा भी प्रथमानुयोग के ग्रंथों में मिलती
। १० धर्मों के माध्यम से दशलक्षण पर्व मनाया जाता है। श्रावक की ११ प्रतिमाएँ, १२ व्रत, मुनियों का तेरह प्रकार का चारित्र, १४ - १४ गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास भी आगम में बताये हैं। प्रमाद के १५ भेदों को भी नहीं भूलना है।
१६ कारण भावनाओं के भाने से तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है । १८ दोष अरहंत भगवान् के नहीं होते हैं। मुनिराज २२ परीषहों को सहन करते हुए ४६ दोषों को टालते हैं । ३२ प्रकार के अंतराय को टालते हुए आहार लेते हैं। बस इतनी ही गिनती सीखना पर्याप्त है ।
स्वयं विचार करना है। एक शब्द अपनी आत्मा व मिथ्यात्व की ओर इशारा करता है । 'एक अकेला मेरा आत्मा है जिसका आश्रय लेकर मनन-चिंतन-अनुभव करके संसार का किनारा पा सकते हैं। यदि इसका सहारा न लिया तो एक अकेला मिथ्यात्व चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में भटकता रहा है और भटकाता रहेगा।'
सीखो अध्यात्म की गिनती
दो की गिनती जीव के रागद्वेष की याद दिलाती है कि हे जीव, तू अनादि से यही करता आ रहा है। प्रिय वस्तु से राग व अप्रिय वस्तु से द्वेष । पं. प्रवर टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में जीव के दुःखी होने की बात कही है कि यह जीव इष्ट वस्तुओं को रखना चाहता है और अनिष्ट वस्तुओं को हटाना चाहता है। इष्ट वस्तुयें सदा उसके साथ बनी रहें, ऐसा होना तो असंभव है। सो दुःखी होता है। यदि जीव सुखी होना चाहता है, तो यह सूत्र याद रखे कि अनादि अनिधन वस्तुयें, अपनी-अपनी सीमा में रहकर, स्वयं ही परिणमित होती हैं। इन्हें अपने अनुसार परिणमित कराने का भाव मिथ्या है।
तीन का अंक बताता है कि मन-वचन-काय की चंचलता कर्मों के आस्रव-बंध का कारण है। इन्हीं के कारण जीव तीनों लोकों में भटकता फिरता है। छहढाला में पं. प्रवर दौलतराम जी ने कहा है कि 'जो योगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई । आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे ॥' समयसार की ७२वीं गाथा' में भी आत्मा व आस्रव में अंतर बताया है। 'आस्रव अशुचि व
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उनका विश्वास है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमतः सफल होता है ।
जिस दिन उदयकाल में उक्त तृतीया हो उसी दिन अक्षय तृतीया का उत्सव सम्पन्न करना चाहिए। दान देना, पूजा करना, अतिथि सत्कार करना आदि विधेय कार्यों को इस तिथि में करना चाहिए।
आर. के. हाऊस, किशनगढ़ (राजस्थान )
दीपचंद एण्ड संस गौरमूर्ति, सागर (म. प्र. )
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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
प्रश्नकर्ता- सौ. संगीता, नंदुरवार।
| मिथ्यादृष्टि ही बने रहते हैं और रुद्रों की तरह पतित हो जाते जिज्ञासा- देव तथा नारकियों में उत्पन्न होने वाले | हैं और यदि स्वीकार नहीं करते हैं तो नियम से सम्यक्दृष्टि भव प्रत्यय अवधिज्ञान, भव के कारण होता है। तो फिर | भावलिंगी श्रमण होते हुये देवों से पूज्य एवं दस पूर्वित्व जन्म से क्यों नहीं होता?
| नामक बुद्धिऋद्धि के धारी हो जाते हैं। सम्यग्दृष्टि भावलिंगी समाधान- देव तथा नारकियों के पर्याप्तक हो जाने | मुनिराजों को अंग प्रविष्ट (पूर्ण द्वादशांग) तथा अंगबाह्यरूप पर ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति होती है। इसलिये जबतक | पूर्ण श्रुतज्ञान हो सकता है अर्थात् वे श्रुतकेवली बन सकते वह जीव पर्याप्तक नहीं हो जाता तब तक भव प्रत्यय अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। इस सम्बन्ध में श्री धवला यद्यपि लौकान्तिक आदि देवों को द्वादशांग तक का पुस्तक 13/290 में इस प्रकार कहा है
ज्ञान होता है परन्तु वे श्रुतकेवली नहीं कहलाते। क्योंकि जदि भवमेत्तमोहिणाणस्स कारणं होज्ज तो देवेसु | श्रुतकेवली पद तो उन्हीं दिगम्बर मुनिराजों को होता है जो णेरइएसु वा उप्पणपढमसमए ओहिणाणं किण्ण उप्पज्जदे। अंगप्रविष्ट के साथ अंगबाह्यरूप श्रुतज्ञान के भी ज्ञाता होते ण एस दोसो ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयद- | हैं। मवग्गहणादो।
प्रश्नकर्ता - नरेन्द्रकुमार शास्त्री, सागर। प्रश्न- यदि भव मात्र ही अवधिज्ञान का कारण है, तो जिज्ञासा - भरत, ऐरावत तथा विदेह क्षेत्र का यह देवों और नारकियों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही | नाम अनादि कालीन है या किसी कारणवश है। अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता।
समाधान- आपकी जिज्ञासा के समाधान में तत्त्वार्थ उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि छह पर्याप्तियों | श्लोकवार्तिक के रचयिता आचार्य विद्यानंद महाराज ने से पर्याप्त भव को ही यहाँ अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण | 'भरत-हैमवत-हरि-विदेह-रम्यक-हैरण्यवतैरावतवर्षा : माना गया है।
क्षेत्राणि' इस सूत्र की टीका करते हुए इस प्रकार कहा है। जिज्ञासा- अभव्य तथा भव्य को कितना अंगपूर्वरूप | 1. प्रत्येक अवसर्पिणी काल के चौथे काल के आदि श्रुतज्ञान सम्भव है?
में भरत नाम का पहला चक्रवर्ती इसके छह खण्डों को समाधान- नारकी एवं तिर्यञ्चों के किसी भी अंग | भोगता है इसलिये इसे भरतवर्ष कहते हैं। दूसरा सिद्धान्त या पूर्व का ज्ञान सम्भव नहीं होता है। देवों में सौधर्म इन्द्र, | उत्तर यह भी है कि जगत अनादि है, इस क्षेत्र की अनादि लौकान्तिक देव एवं सर्वार्थसिद्धि के देवों के द्वादशांग का | काल से भरत संज्ञा चली आ रही है। ज्ञान पाया जाता है।
2. भरत क्षेत्र के बीच में पूर्व से पश्चिम तक लम्बा __ मनुष्यों में अव्रती गृहस्थों के, व्रती गृहस्थों के, क्षुल्लक | जो विजयार्द्ध नामक पर्वत है, उसका यह सार्थक नाम इसलिये व ऐलकों के तथा क्षुल्लिकाओं के किसी भी अंग या पूर्व पडा है कि यहाँ तक चक्रवर्ती के विजय की आधी सीमा का ज्ञान नहीं होता। शास्त्रों के अनुसार आर्यिकाओं के ग्यारह | होती है। अत: इसका नाम विजयाद्ध सार्थक है। अंग तक का ज्ञान पाया जा सकता है। जैसे-सुलोचना आर्यिका 3. विदेह क्षेत्र के सम्बन्ध में लिखा है कि वहाँ सर्वदा को ग्यारह अंग का ज्ञान था। निर्ग्रन्थ मुनि लिंग के साथ मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति बने रहने से अनेक मनुष्य कर्म बन्ध को अभव्यों को ग्यारह अंग तक का ज्ञान हो सकता है। भव्य | नष्ट कर देह रहित हो जाते हैं। अतः इसका विदेह नाम मिथ्यादृष्टि साधुओं को ग्यारह अंग दस पूर्व तक का श्रुतज्ञान | सार्थक है। सम्भव है। दसवे पूर्व विद्यानुवाद का पाठी होने पर समस्त 4. भरत क्षेत्र के समान ऐरावत क्षेत्र के प्रत्येक विद्यायें उनके समक्ष आकर निवेदन करती हैं कि हे मुनिराज, | अवसर्पिणी के चतुर्थ काल का प्रथम चक्रवर्ती ऐरावत नाम हम सब आपको सिद्ध हुई हैं हमें स्वीकार करें और आज्ञा | वाला होता है। अतः इसी कारण इसे ऐरावत क्षेत्र कहा जाता प्रदान करें। यदि वे उनको स्वीकार कर लेते हैं तब वे | है।
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श्री राजवार्तिक में भी इसी प्रकार कथन पाया जाता है।। होते हैं और उदीरणा रहित परिणाम मन्द होते हैं। जैसे- हम प्रश्नकर्ता- श्री राजीव जैन, अमर पाटन। सुई के छिद्र में कोई डोरा पिरोयें। तो वह नहीं पिरोया जाता।
जिज्ञासा- क्या दिक्पालो अथवा शासन देवों को अर्घ्य | पर यदि उसमें थूक आदि कुछ लगा दें तो धागा तुरन्त पिरोने चढ़ाना उचित है?
में आ जाता है। समाधान- दिगम्बर जैन धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार | 3. जो कर्म उदयावली में प्रवेश कर चुके हैं, उनकी पूज्यनीय तो ये नव देवता है- पांच परमेष्ठी, जिनधर्म, जिन | उदीरणा नहीं होती है। उससे अधिक समय वाली सत्ता आगम, जिनबिम्ब और जिन मंदिर। ये शासन देवता या स्थित कर्म प्रकृतियों की ही उदीरणा संभव है। दिक्पाल नव देवताओं में नहीं आते। ये हमारे साधर्मी अथवा 4. नारकी तथा देवों के भी नरकायु तथा देवायु की क्षेत्ररक्षक हैं। इनका किसी पंचकल्याणक विधान आदि के | उदीरणा, मरण से एक आवली पूर्व तक होती रहती है। पर अवसर पर जो आह्वान किया जाता है वह उनकी पूजा के इसका अर्थ अकाल मरण नहीं लगाना चाहिये। तिर्यंच तथा लिये नहीं किया जाता, बल्कि साधर्मी के रूप में 'हमारे | मनुष्यों के भी, तिर्यंचायु तथा मनुष्यायु के उदय के साथ साथ आकर पूजा करें' इसप्रकार भक्ति के लिये आमंत्रण के | उदीरणा भी होने का नियम है। रूप में किया जाता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि के 5. सत्ता स्थित कर्मों की (जो उदयावली से बाहर हैं) प्रतिष्ठा ग्रन्थों के अनुसार जिस स्थान पर विधान आदि | तपादि क्रिया विशेष की सामर्थ्य से, उदयावली में प्रविष्ट सम्पन्न किये जाते हैं वहाँ के शासन देव एवं क्षेत्ररक्षक | कराके जो उदीरणा पूर्वक अनुभव किया जाता है। उसे दिक्पाल आदि की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक होता है।। अविपाक निर्जरा कहते हैं। इसी अभिप्राय से इन देवों का आह्वान किया जाता है ताकि उदय एवं उदीरणा किन कर्म प्रकृतियों की किस वे हमें विधान की निर्विघ्न शान्ति के लिये सहयोगी होते हुए | गुणस्थान तक होती है, इसके लिये सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 355 उस अनुष्ठान में सम्मिलित हो। इसलिये इनका आह्वान | से 357 तक का अध्ययन करना चाहिए। करना तो उचित है परन्तु पूजा करना, आरती उतारना, श्रीफल
प्रश्नकर्ता- मोक्षमार्ग कितने प्रकार का है। स्पष्ट चढ़ाना, पंचपरमेष्ठी की तरह ढोक देते हुए परिणाम करना | करें? या अर्घ्य आदि चढ़ाकर पूजा करना बिल्कुल उचित नहीं है। समाधान- मोक्षमार्ग दो प्रकार का है जैसा कि निम्न
जिज्ञासा- उदीरणा क्या सब जीवों के होती है? | प्रमाणों से स्पष्ट है।
समाधान - सर्वप्रथम उदय तथा उदीरणा की परिभाषा निश्चय व्यवहाराभ्याम् मोक्षमार्गो द्विविधा स्थितः। जानना आवश्यक है। पंचसंग्रह 3/3 में कहा है- भुंजणकालो
(त.सार.9/2) उदओ, उदीरणापक्कपाचण फलं।
अर्थ- निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो अर्थ- कर्मों के फल भोगने के काल को उदय कहते | प्रकार का है। हैं और अपक्वकर्मों के पाचन को उदीरणा कहते हैं।
दुविहं पि मोक्ख हेडं, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। भावार्थ- जो कर्म अपने समयानुसार स्थिति पूरी होने
तम्हा पयत्तचिता जूयं झाणं समब्भसह ॥47॥(द्र.संग्रह) पर फल देते हैं, उसे उदय कहते हैं। परन्तु जिनका स्थिति व
अर्थ- दोनों ही प्रकार के मोक्षमार्गों को मुनि ध्यान में अनभाग तो ज्यादा है. परन्त जिनको समय से पर्व ही फल प्राप्त करते हैं। इसलिए तुम भी प्रयत्नपूर्वक ध्यान का अभ्यास देने वाला किया जाता है, वह उदीरणा है इस संबंध में निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं
सम्यग्दर्शनज्ञानचरण शिवमग सो दुविध विचारो। 1. कुछ अपवादों को छोड़कर प्रत्येक जीव के छठे
जो सत्यारथ रूप सुनिश्चय कारन सो व्यवहारो॥
(छहढ़ाला 3/1) गुणस्थान तक, जिन कर्म प्रकृतियों का उदय होता है, उनके |
अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप साथ उन्हीं कर्मों की उदीरणा भी अवश्य होती है। यह तप
मोक्षमार्ग दो प्रकार का कहा गया है। उनमें से जो यथार्थ आदि के कारण नहीं, बल्कि स्वभाव से होती है।
स्वरूप है, वह तो निश्चय मोक्षमार्ग है और जो उसका 2. श्री राजवार्तिक के अनुसार बाह्य तथा अभ्यंतर
कारण है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है। कारणों से,कषायों की उदीरणा होने पर अत्यन्त तीव्र परिणाम |
आचार्यों ने दोनों मोक्षमार्गों का स्वरूप लिखा है26 अप्रैल 2007 जिनभाषित
करो।
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तथाहि वीतराग सर्वज्ञप्रणीत षड्द्रव्य पंचास्तिकाय । अर्थ- अग्नि और सुवर्ण पाषाण के समान निश्चय सप्ततत्त्व नवपदार्थ सम्यग्श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठान विकल्परूपो | और व्यवहारनय में साध्य-साधन भाव दिखलाने के लिए व्यवहारमोक्षमार्गः। अथवा धातुपाषाणेऽग्निवत् साधको कहा है। इनमें से पाँचवें से सातवें गुणस्थान तक साधनरूप व्यवहारमोक्षमार्गः, सुवर्णस्थानीयनिर्विकारस्वोपलब्धि | व्यवहार मोक्षमार्ग है और सातवें से बारहवें गुणस्थान तक साध्यरूपो निश्चयमोक्षमार्गः। (बृहद्रव्य संग्रह39/129) | साध्यरूप निश्चय मोक्षमार्ग है। व्यवहार को असत्य मानने
अर्थ- श्री वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहे हये जो छः । वाले कुछ लोग व्यवहार मोक्षमार्ग का लोप करके मोक्षमार्ग द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नवपदार्थ हैं इनका | को एक प्रकार का निरूपण करते हैं। लेकिन उपरोक्त प्रमाणों भले प्रकार श्रद्धान करना, जानना और व्रत आदि का आचरण से यह सिद्ध है कि मोक्षमार्ग को दो प्रकार ही मानना चाहिए। करना इत्यादि विकल्परूप जो है सो तो व्यवहार मोक्षमार्ग है | व्यवहार मोक्षमार्ग हेय नहीं है उपादेय ही है। जैसा कि निम्न
और जो अपने निरंजन शुद्ध आत्मतत्त्व का सम्यग्श्रद्धान, | प्रमाणों से स्पष्ट हैज्ञान और आचरण में एकाग्र परिणतिरूप है। वह निश्चय | 'निजशुद्धात्मैव शुद्धनिश्चयेनोपादेयं भेदरत्नत्रयस्वरूपं मोक्षमार्ग है अथवा साधु पाषाण के विषय में अग्नि के सदृश | तु उपादेयमभेदरत्नत्रय साधकत्वाद् व्यवहारेणोपादेयमिति' जो साधक है वह तो व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा सुवर्ण स्थानापन्न | (समयसार 120 की तात्पर्यवृत्ति टीका) निर्विकार जो निज आत्मा है, उसके स्वरूप की प्राप्ति रूप अर्थशुद्ध निश्चयनय से निज शुद्धात्मा ही उपादेय जो साध्य है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है। श्री पंचास्तिकाय में | है तथा भेद रत्नत्रय भी उपादेय है, क्योंकि वह अभेद रत्नत्रय भी कहते हैं
का साधक है अतः वह व्यवहार से उपादेय है। धम्मादी सद्दहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं।
'व्यवहारमोक्षमार्गो निश्चय रत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य चिट्ठा तवम्हि चरिया, ववहारो मोक्ख मग्गोत्ति ॥160॥ | कारणभूतत्वादुपादेयः परम्परया जीवस्य पवित्रताकारणत्वात्
अर्थ- धर्मास्तिकाय आदि छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, | पवित्रः।' (समयसार 161 की तात्पर्यवृत्ति टीका)। सप्ततत्त्व व नवपदार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंग ___ अर्थ- उपादेयभूत जो निश्चय रत्नत्रय, उसका कारण पूर्व आदि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तप में चेष्टा करना होने से व्यवहार मोक्षमार्ग उपादेय है और परम्परा से जीव सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग कहा। अब | की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है। निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप बताते है
उपर्युक्त समस्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि मोक्षमार्ग दो णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
प्रकार का ही है। इसलिए आगम सम्मत धारणाओं को ही ण कणदि किंचिवि अण्णं णमुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति 161॥ | स्वीकार करना चाहिए। एकान्त पक्ष में नहीं जाना चाहिए। अर्थ- जो आत्मा इन तीनों के द्वारा समाहित होता
इस समाधान में यह भी जानने योग्य है कि ऐसी हुआ, अन्य कुछ भी न करता है और न छोड़ता है। वह
मान्यता न बना ली जाये कि मोक्ष जाने के दो मार्ग हैं अर्थात आत्मा ही निश्चयनय से मोक्षमार्गी कहा गया है।
व्यवहारमोक्षमार्ग से भी मोक्ष होता है और निश्चयमोक्षमार्ग इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि मोक्षमार्ग दो प्रकार का है।।
से भी मोक्ष होता है। मोक्षमार्ग दो प्रकार का मानने का तात्पर्य जिसमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन
यह है कि प्राथमिक अवस्था में व्यवहार मोक्षमार्ग होता है जो है जैसा के समयसार गाथा 236 की टीका में कहा है कि
कि निश्चय मोक्षमार्ग का साधन है। मोक्ष की प्राप्ति तो 'अग्नि सुवर्ण पाषाणयोरिव निश्चयव्यवहारनययोः परस्पर
| निश्चय मोक्षमार्ग से ही होती है। साध्य-साधक भाव दर्शनार्थमिति।'
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002(उ.प्र.)
स्वभाव में जब तक न आये, विभाव का संकट रहेगा। कर्म की प्रभुता रहेगी, आनंद घट खाली रहेगा।
योगेन्द्र दिवाकर , सतना म.प्र.
- अप्रैल 2007 जिनभाषित 27
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बालवार्ता (कहानी)
दान 'अहं' का
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' सेट अमीरचन्द्र मात्र नाम से ही अमीर नहीं था बल्कि | लो! मैंने कितना दान दिया, पर किसी ने कभी मेरे, दान की वह वैभव में भी अमीर ही था। उसकी उन चन्द लोगों में | प्रशंसा तक नहीं की, सम्मान की तो बात ही अलग है?" । गिनती होती थी जो धन सम्पन्न थे और जिनके बारे में | सुनने वाले सुनते और कहते "ऐसा नहीं है, अच्छे प्रसिद्ध था कि वे अपने घर आये किसी भी याचक को | काम की तो सभी प्रशंसा करते हैं, फिर दान के काम को खाली हाथ नहीं जाने देते हैं। मानो दान में उनका विश्वास | कौन बुरा कहेगा?" । अटूट हो। कहते हैं अमीरी मात्र धन-दौलत से नहीं होती | खैर! एक दिन उसे पता चला कि अपने नगर में वह धर्म, धैर्य और दान से भी होती है। धन का दान सर्वोत्तम | कोई साधु आये हैं, सो वह भी दर्शन हेतु चल दिया। कुछ माना गया है। नीतिकारों ने कहा है कि धन की तीन गतियाँ | लोगों की विशेषता होती है कि वे स्वयं को सर्वज्ञ मानकर होती हैं- दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति न दान देता है, न | चलते हैं। डॉक्टर के यहाँ दवा लेने जायेंगे और डॉक्टर को भोग करता है उसकी धन-सम्पदा का नाश सुनिश्चित होता | ही दस बीस दवाईयाँ बता आयेंगे। यह महाशय भी गये तो है। सो, अमीरचन्द्र भी इसे बखूबी समझता था इसलिए धन | थे साधु के दर्शन करने और लगे अपनी साधुता बताने। के नाश होने से डरता था। वह धन का भोगी अवश्य था | "मेरा जीवन भी साधु से कम नहीं है। अब क्या करें किन्तु विलासी नहीं था। उसे कोई व्यसन भी नहीं था। यदि | जिम्मेदारियाँ हैं वरना हम भी आप जैसे होते?" आदि, कोई व्यसन था तो यही कि धन आये और खूब आये। धन | आदि। प्राप्ति का निमित्त कारण पुण्य होता है सो वह प्रतिदिन | साधु सब सुनते रहे। उनके मुख की रहस्यात्मक देवदर्शन, पूजन, पाठ आहारदानादिक जो भी उससे बनता, | मुस्कान को उन्होंने पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझी और करता था। वह दान में पीछे रहने वालों में से भी नहीं था। | रुपयों से भरी एक थैली निकालकर साधु के चरणों में रख
__बस, उसमें कोई अच्छाई थी तो यही कि वह धार्मिक | दी और बोले-महाराज ! यह आपके लिए मेरी तुच्छ भेंट है। आचरण करने वाला और दानी था, किन्तु यदि कोई बुराई | पूरे एक लाख हैं, कहें तो राशि बढ़ा भी सकता हूँ। थी तो यही कि उसे प्रदर्शन में विश्वास अधिक था। वह | | साधु तो साधु थे, बोले- "मेरा इससे क्या काम? मैं किसी याचक को तब तक दान नहीं देता था जब तक कि | तो बहता पानी, रमता जोगी की प्रकृतिवाला हूँ। मैं रुपयों को उसे यह अहसास न हो जाये कि चार लोग उसे देख रहे हैं। | लेकर क्या करूँगा?" यदि कोई देखने वाला नहीं तो याचक को बातों में उलझाकर यह सुन सेठ अमीरचन्द बोला- "महाराज! यह तो रखता और यदि कोई (दर्शक) न आता दिखे तो सप्रयास मेरा दान है?" बुलवा लेता। अपनी बात रखने के लिए कहता कि दान साधु ने कहा कि- "मैं दान क्यों लूँ? जब जरूरत छिपकर और छिपाकर नहीं देना चाहिए। याचकों का क्या होती है तो अन्न तुम्हारे जैसे श्रावकों से ही पाता हूँ और वह भरोसा? वह जब भी कुछ देता सबको बढ़ाचढ़ाकर बताता। भी बिना किसी याचना के, बिना किसी करुणा के। और प्रशंसकों को प्रेरित करता कि वे उसकी प्रशंसा करें। उन यदि मुझे कुछ जरूरत है तो मुझे तुम्हारे इस धन की नहीं प्रशंसकों की वह खूब खातिरदारी करता और चाहता कि वे तुम्हारे 'मैं' की जरूरत है।" उसकी दानशीलता का गुणगान अन्यत्र भी करें। जितना दान इधर अमीरचन्द का अहं जाग गया था। यह अहं वह नहीं उससे अधिक प्रशंसा प्राप्ति की भूख उसकी सदा नहीं था जो सोऽहं का भाव जागता है बल्कि यह तो वह अहं जाग्रत रहती। यदि कोई प्रशंसा नहीं करता तो स्वयं ही था जो आँखों, नथुनों और शरीर के रोम-रोम से प्रकट हो रहा कहता- "आज कल जमाना कितना बदल गया है कि कोई था। अरे! यह कैसा साधु है जो मेरी दी हुई दानराशि को तो किसी की अच्छाई देखकर भी अपने मुख से प्रशंसा तक नहीं | स्वीकार करता नहीं और कहता है कि मुझे तुम्हारे मैं की करना चाहता। अरे, औरों की तो जाने दो अब मुझी को देख | जरूरत है?
28 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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अमीरचन्द्र यह सब कह तो मन में रहा था, किन्तु वे साधु मन की बात समझ ही गये और बोले कि सेठ जी लगता है तुम्हें मेरी बात का बुरा लगा है ?
बुरा लगने की तो बात ही है महाराज ! एक तो आप मेरा दान लेते नहीं और ऊपर से कहते हो कि मुझे तुम्हारे दान की नहीं, तुम्हारे मैं की जरूरत है? फिर मैं दान भी तो कम नहीं दे राह हूँ, पूरे एक लाख हैं। यह कहते हुए अमीरचन्द्र अब भी क्रोध में काँप ही रहा था । वह भी नहीं समझा पा रहा था कि उसे हो क्या गया है ?
सेठ जी! जो दाता इन सात गुणों के साथ दान देता है उसी का दान स्व पर कल्याणक होता है ।
साधु को अब लगा कि चोट गहरी लगी है सेठ को, इसे सम्बोधन की आवश्यकता है। साधु ने कहा-सेठ जी ! मैंने ठीक ही तो कहा था- मुझे तुम्हारे दान (धन) की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह तो मैं पहले ही त्याग चुका हूँ। जैन साधु तो तिलतुषमात्र परिग्रह भी अपने पास नहीं रखते। मैंने जो तुम्हारा 'मैं' माँगा था वह भी इसलिए कि यदि दान भावना के पीछे और साथ में अहंकार रहा तो दान का फल तुम्हें कैसे प्राप्त होगा? दान एवं जिस दान के साथ दाता स्वयं को नहीं देता वह दान दान नहीं नादानी है। दान के लिए कहा है- “ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गोदानम्" अर्थात् स्व पर कल्याण के लिए देना दान है। यदि तुममें अहंकार रहा तो
आँखें
साधु के इस वचनों को सुनकर सेठ अमीरचन्द की खुल गयी थी । धन की थैली चरणों में ही पड़ी थी, किन्तु अब अहंकार का प्रतीक उन्नत सिर भी साधु चरणों में पड़ा हुआ था। अब वह जान गया था कि दान की कीमत दान की भावना से होती है, दान के अहं से नहीं। अहं तो जितनी जल्दी विसर्जित हो जाये, उतना ही ठीक है ।
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। जिसे तुमने दिया उसका भले ही कल्याण हो जाये किन्तु तुम्हारा कल्याण कैसे होगा ?
दान दाता के लिए तो आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने सात गुण बताये हैं
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आपको सूचित करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में प्रथम बार श्री पारसनाथ दिगम्बर जैन गुरुकुल की स्थापना 1 जून 2004 को की गई जो कि एक अद्वितीय कार्य हुआ है। वर्तमान में गुरुकुल में 60 छात्र अध्ययनरत हैं तथा प्रतिवर्ष 25 छात्रों को प्रवेश देने की योजना है छात्रों का चयन निम्नलिखित नियम एवं शर्तों | के आधार पर किया जाता है । नियम एवं शर्तें -
1. 10 वीं कक्षा में 70 प्रतिशत अधिक अंक होना अनिवार्य है। 2. चयन मैरिट लिस्ट के आधार पर किया जाता है। 3. प्रवेश इण्टर प्रथम वर्ष ( 11वीं कक्षा) के छात्रों को ही दिया जाता है। (CEC, BPC, MPC, MEC) 4. अंग्रेजी एवं हिन्दी ज्ञान अनिवार्य है। 5. धार्मिक पढ़ाई अनिवार्य है। 6. नियम एवं शर्तें पूर्णतया लागू होंगी ।
ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिर्निष्कपटानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारमिति हि दात्रगुणाः ॥ (पुरुषार्थसिद्धयुपाय) अर्थात् 1. इस लोक में फल की इच्छा न करे, 2. क्षमाभाव धारण करे, 3. निष्कपट रहे, 4. दूसरे दातारों के प्रति ईर्ष्या भाव न रखे, 5. विषाद न करे कि मेरे यहाँ जो अच्छी वस्तु थी वह मैंने दे दी, मुझे नहीं देनी थी, 6. दान देकर हर्षित हो तथा 7. अहंकार नहीं करे।
लौकिक एवं पारमार्थिक शिक्षा हेतु एक सुन्दर संस्थान
हैदराबाद नगर में श्री पारसनाथ दिगम्बर जैन गुरुकुल संचालित
व्यवस्थाएँ - छात्रों को आवास, भोजन, कॉलेज एवं धर्म की पढ़ाई आदि की पूर्ण निःशुल्क व्यवस्था ।
इण्टर प्रथम वर्ष से स्नातक (डिग्री) की सम्पूर्ण पढ़ाई की सुविधा ।
अंग्रेजी एवं कम्प्यूटर का ज्ञान उपलब्ध । उद्देश्य-हमारा उद्देश्य लौकिक अध्ययन में उन्नति के साथसाथ छात्रों को आगमानुकूल ग्रन्थों का अध्ययन कराकर संस्कारित करना एवं समाज में फैल रही कुरीतियों को दूर करने के लिए धर्म की रक्षा हेतु समर्पित एवं उपासक विद्वान् तैयारकर समाज सेवा में उपलब्ध कराना है ।
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अप्रैल 2007 जिनभाषित 29
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आपके पत्र
आज 'जिनभाषित' का जनवरी 2007 का अंक प्राप्त हुआ । उसमें आपका उच्चस्तरीय संपादकीय लेख पढ़ कर अतीव प्रसन्नता हुई। 'समता - नि:कांक्षिता में अनुत्तीर्ण गृहस्थ मुनि - डिग्री का पात्र नहीं' इस शीर्षक से लिखा गया आपका लेख जिनवाणी के मर्म को आगम व अध्यात्म के संतुलन, सुमेल को दर्शानेवाला है। गृहस्थ को सर्वप्रथम मिथ्यात्वादि दोषों का परित्याग कर भाव से नग्न होना चाहिए- यह सम्यक्त्व से प्रकट होने वाली प्रथम प्रकार की भावनग्नता है। वस्तुत: भावनग्नता की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही गृहस्थ को मुनि की डिग्री (दि. मुनिलिंगरूप जिनदीक्षा) प्रदान की जानी चाहिये। भावपाहुड गाथा - 73, 54, 51, 152 में भावनग्नता का स्वरूप दर्शाकर कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने यद्यपि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को भावश्रमण एवं परीतसंसारी कहा है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के ही सच्ची ज्ञान-वैराग्य भावना व शक्ति प्रकट होती है, तथापि मोक्षप्राप्ति तो भावश्रमणत्व (निश्चयरत्नत्रय) एवं द्रव्यश्रमणत्व (व्यवहार रत्नत्रय) धारक साधक मुनिराज को ही होती है।
आप इसीतरह आगम अध्यात्म के आलोक में अपने उच्चस्तरीय संपादकीय लेखों द्वारा जिज्ञासु पाठकों को धर्म का मर्म (तीन भुवन में सार वीतराग-विज्ञानता) समझाते रहें, यही शुभकामना है ।
'जिनभाषित' के गताङ्क में प्रकाशित 'साधार है कुण्डलपुर' शीर्षक आलेख पढ़ा। कुण्डलपुर - प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के दि. 20 मई 2006 के आदेश की प्रबुद्ध लेखक श्री बंसलजी द्वारा की गई समीक्षा के अधिकांश बिन्दुओं से हम सहमत हैं। प्रसंग से हटकर प्रयुक्त किए गये कुछ वाक्यांशों को यदि छोड़ दें, तो इसे एक तटस्थ समीक्षा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, 'कुण्डलपुर कोहराम' या 'अधर में है कुण्डलपुर' शीर्षक लेख शृंखला की निष्पत्तियाँ काल्पनिक एवं धार्मिक सौहार्द की भावना से रहित हैं। नकारात्मक लेखन से कभी अच्छे परिणाम नहीं निकल सकते।
कोई धर्म का ज्ञाता हो या सामाजिक कार्यकर्ता, यह आवश्यक नहीं है कि वह कानून का भी विशेषज्ञ हो, परन्तु स्वयं को 'ऑलराउण्डर' सिद्ध करने के लिए कभी-कभी लोग वकीलों की तरह किसी भी प्रकरण को लम्बा खींचते हैं और यह ध्यान नहीं रखते कि तिल का ताड़ बनाने से सामाजिक एकता छिन्न-भिन्न हो सकती है। यह सही है कि इस सन्दर्भ में कुछ भूलें हुई हैं, किन्तु उनका सुधार आपसी बातचीत से किया जा सकता है, कानूनी पेंच फँसाकर नहीं । धर्म एवं समाज के हित में कुण्डलपुर की समस्या का शीघ्र समाधान हो, सबकी यही भावना होनी चाहिए। इसी भावना से हमने अपने कुछ विनम्र सुझाव जैनगजट में प्रकाशनार्थ भेजे थे, जो दि. 24 अगस्त 2006 के अंक में छपे और कई महानुभावों ने उनकी सराहना भी की, किन्तु लेखक की ओर से दि. 28 सितम्बर के अंक में जिन शब्दों में उसका उत्तर दिया गया, उससे हमें यह लगा कि इन लोगों का उद्देश्य बातचीत के सारे दरवाजों को बन्द रखकर विवाद को जिन्दा रखने और समाधान को लटकाए रखने का है तथा इनकी भाषा स्वयंभू कमाण्डरों जैसी है, अतः हमने चुप्पी साधना ही ठीक समझा।
हमारा तो आज भी यही मत है कि चूँकि कुण्डलपुर का प्रकरण न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए शाब्दिक खींचातानी छोड़कर हमें धैर्यपूर्वक उसके निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। क्या हमें न्यायपालिका पर विश्वास नहीं है ? यदि ऐसा हो भी तो उचित रास्ता यही है कि हम सुनवाई के समय जज के सामने एक तीसरा पक्ष बनकर अपने विचार रखें। आरोप-प्रत्यारोपों को कागजों पर उछाल-उछालकर समाज के वातावरण को बोझिल बनाना हमें तो उचित नहीं लगता, शास्त्रार्थ - महारथियों की बात वे स्वयं जानें।
30 अप्रैल 2007 जिनभाषित
ब्र. हेमचन्द्र जैन 'हेम' कहान नगर लामरोड, देवलाली (महा.)
नरेन्द्र प्रकाश जैन
104, नई बस्ती, फीरोजाबाद (उ.प्र.)
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समाचार आचार्य विद्यासागर जी महाराज कुण्डलपुर में महावीर जयंती एवं उपाध्याय श्री का 20वाँ विराजमान
मुनिदीक्षादिवस समारोह सम्पन्न विश्ववंदनीय परमपूज्य संत आचार्य श्री विद्यासागर परम पूज्य सराकोद्धारक उपाध्याय श्री 108 ज्ञान सागर जी महाराज ससंघ सुप्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र/अतिशय क्षेत्र कुण्डल- जी महाराज के ससंघ मंगल सान्निध्य में मध्यप्रदेश की गिरी, कुण्डलपुर (म.प्र.) में विराजमान हैं। आचार्यश्री के | राजधानी भोपाल स्थित मंगलवारा दिगम्बर जैन मंदिर के सान्निध्य में ग्रन्थराज षटखण्डागम (धवला) भाग ४ की | विशाल प्रांगण में 31/3/2007 को भगवान् महावीर जन्म वाचना प्रारम्भ है। प्रति रविवार दोपहर ३ बजे से आचार्य श्री | जयंती समोराह एवं पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञान सागर जी महाराज विद्यासागर जी महाराज के मंगल प्रवचन हो रहे हैं। का 20वाँ मुनि दीक्षा दिवस हजारों जनसमुदाय की उपस्थिति
कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी अध्यक्ष संतोष सिंघई, महामंत्री में मनाया गया। समारोह के मुख्य अतिथि म.प्र. शासन के वीरेन्द्र बजाज ने श्रद्धालु भक्तगणों से कुण्डलपुर पधारकर मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान थे। बड़े बाबा एवं बाबा (आचार्यश्री) के दर्शनकर धर्मलाभ लेने ब्र. अनीता दीदी, प्रो. फूलचंद 'प्रेमी' वाराणसी, पं. की अपील की है।
निर्मल जैन, सतना. डॉ. जयेन्द्र कीर्ति आदि वक्ताओं ने जयकुमार जैन जलज' भगवान् महावीर स्वामी के जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला।
हटा, जिला-दमोह (म.प्र.) उपा. श्री ने अपनी पीयूषवाणी में उपस्थित विशाल डॉ. श्रेयांस जैन बड़ौत सहजानंद वर्णी पुरस्कार से | जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा कि आत्मजयी पुरस्कृत
महावीर के अहिंसा, अनेकांत, स्याद्वाद, अपरिग्रह जैसे सूत्र अहमदाबाद (गुजरात) में दि. 11.2.07 को डॉ. शेखर | आज भी प्रासंगिक हैं। भगवान् महावीर ने विश्व को जीने के जी जैन का अभिनंदन ग्रंथ समर्पण हुआ, इसी अवसर पर साथ मरण की कला सिखाई। अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद् के यशस्वी अध्यक्ष डॉ. श्रेयांस
कृतियों का विमोचन कुमार जैन, बड़ौत को 'सहजानंद वर्णी पुरस्कार' जिसमें
परमपूज्य सराकोद्धारक उपाध्याय श्री 108 ज्ञान सागर प्रशस्ति पत्र, साल, श्रीफल व 1100/-की नकद राशि प्रदान
जी महाराज के ससंघ मंगल सान्निध्य में भोपाल (म.प्र.) के की गयी। यह पुरस्कार श्री हुकमचंद जी पंचरत्न के सौजन्य
मंगलवारा स्थित दिगम्बर जैन मंदिर के विशाल प्रांगण में से सहजानंद ट्रस्ट द्वारा दिया गया।
31.3.2007 को चार कृतियों को विमोचन किया गया। श्री दीवान जी 'सवाई सिघंई' एवं 'प्रतिष्ठारत्न' की कृतियों का विमोचन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय उपाधि से विभूषित
श्री शिवराजसिंह चौहान एवं वित्त मंत्री श्री राघवजी भाई ने जैन जगत के ख्यातिलब्ध बहआयामी व्यक्तित्व के अपने करकमलों से किया। विमोचित पुस्तकें हैं सराक धनी वाणीभूषण प्रतिष्ठाचार्य पं. श्री पवन कुमार जैन शास्त्री | सोपान (मासिक, संपादक श्री हंस कुमार जैन), ज्ञान महादधि 'दीवान' मरैना (म.प्र.) एवं उनके परिजनों की श्री शांतिनाथ (संपादक डॉ. शर्मा एवं नवनीत जैन), जिन ज्ञान (संपादक दि. जैन अतिशय क्षेत्र सेरोन जी (ललितपुर-उ.प्र.) में | डॉ. शर्मा एवं नवनीत जैन), सराक क्षेत्र: एक दृष्टि (पं. उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में सुनील 'संचय' नरवा), आओ महावीर बने (डॉ. मूलचंद पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रय गजरथ महोत्सव में एक जैन) ये पुस्तकें आचार्य श्री शांति सागर छाणी स्मृति ग्रंथ गजरथ अपनी ओर से प्रवर्तन कराने पर 'सवाई सिंघई' की | माला बुढ़ाना एवं श्रुत संवर्द्धन संस्थान मेरठ से प्रकाशित हैं। उपाधि से दि. 14/2/07 को हजारों धर्मानुरागियों की उपस्थिति
सुनील 'संचय' शास्त्री में विभूषित किया गया। पगड़ी अलंकरण श्री दीवान जी के देहली में जैन सिद्धान्त प्रशिक्षण शिविर सम्पन्न पूज्य पिताजी श्री सिंघई बाबूलाल जी को हुआ।
भारत की राजधानी देहली में प्रथम बार जैन सिद्धान्त भवदीय | प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। शिविर का आयोजन दि. सिंघई अरिहंत जैन, मोरेना | 18/3/07 से 1/4/07 तक वीर सेवा मंदिर, दरियागंज में
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यह शिविर मुख्यरूप से युवा एवं प्रौढ़ शिविरार्थियों। लौकिक शिक्षा (वाणिज्य, विज्ञान, कम्प्यूटर) के साथ धार्मिक के लिये था शिविर का आयोजन दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति | शिक्षा एवं संस्कार दिये जाते हैं। संस्थान, सांगानेर के अधिष्ठाता पं. रतनलाल जी बैनाड़ा के | लौकिक शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को आवास कुलपतित्व में हुआ। जिसमें जैन धर्म शिक्षा भाग 1-2,] एवं भोजन की सुविधा निःशुल्क उपलब्ध है, जबकि धार्मिक छहढाला तथा तत्त्वार्थसूत्र का अध्ययन कराया गया। अध्ययन | जैन विद्वान् बनने के लिए प्रविष्ट हए छात्रों का भोजन, करानेवाले, स्वयं बैनाड़ा जी के अलावा पं. सौरभ जी शास्त्री | आवास, वस्त्र, लेखन सामग्री, स्कूल फीस आदि की सुविधाएँ एवं पं. पुलक जी शास्त्री थे। शिविरार्थियों की संख्या लगभग | निःशुल्क उपलब्ध हैं। जिन छात्रों ने दसवीं (हाईस्कूल) की 140 रही। सुबह तथा रात्रि में कक्षाएँ लगती थीं एवं दोपहर | परीक्षा इस वर्ष उत्तीर्ण की है तथा प्रवेश के इच्छक हैं, वे में 2 घंटे तत्त्वचर्चा होती थी। तत्त्वचर्चा के दौरान अनेक गूढ़ | अपना प्रार्थना पत्र श्रमण ज्ञान भारती मथुरा के पते से मँगाकर, विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई।
पासपोर्ट साइज फोटो एवं अंकतालिका 20 जून 2007 तक शिविर को संयोजन श्री किशोर जी तथा दिगम्बर जैन | उपर्युक्त पते पर भेज सकते हैं। नैतिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष धनपाल सिंह जी जैन, | जिन छात्रों को दसवीं कक्षा में 55 प्रतिशत से कम महामंत्री- विमल प्रसाद जी, सुभाष जी, मदनलाल जी आदि | अंक प्राप्त हुए हों, वे प्रार्थना पत्र न भेजें। के सहयोग से किया गया। समापन समारोह की अध्यक्षता | इस वर्ष मात्र 15 छात्रों को प्रवेश दिया जाना है अतः श्री सलेखचंद जी ने की। सभी देहलीवासियों ने शिविर की | आवेदन करने में शीघ्रता करें। बहुत-बहुत सराहना की एवं भविष्य में निरंतर इसीप्रकार
निरंजनलाल बैनाड़ा शिविर लगाने का संकल्प किया।
अधिष्ठाता, 9927091970, डॉ. अशोककुमार जैन महावीर पुरस्कार 2006 से
छात्रावास 0565-2420323 पुरस्कृत
छात्र प्रवेश सूचना जैन जगत् में ख्यातिलब्ध, युवामनीषी डॉ. अशोक | श्री दिगम्बर जैन संस्कृत शिक्षा समिति द्वारा संचालित कुमार जैन, रीडर जैन बौद्ध दर्शन विभाग, संस्कृत विद्या धर्म | श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय मनिहारों का विज्ञान सङ्काय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी (उ.प्र.)| रास्ता जयपुर से सम्बन्ध पं. चैनसुखदास जैन छात्रावास में को दिनांक 3 अप्रैल 2007 को महावीर जयन्ती के पावन | वर्ष 2007-2008 के लिए प्रवेश हेतु आवेदन पत्र दिनांक प्रसंग पर आयोजित श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महावीर | 15/6/2007 तक आमन्त्रित है। जी में जैन विद्या संस्थान द्वारा विशाल धर्मसभा में उनकी इच्छुक विद्यार्थी कक्षा आठ, दस एवं बारहवीं में शोधकृति 'जैनदर्शन में अनेकान्त वाद : एक परिशीलन' पर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने चाहिये। आवेदन प्रतिष्ठित दिगम्बर महावीर पुरस्कार 2006 से पुरस्कृत किया गया। जैन व्यक्ति द्वारा प्रेषित होना चाहिए। प्रवेश दिये जाने पर छात्र प्रवेश सूचना
निःशुल्क आवास एवं भोजन की सुविधा उपलब्ध रहेगी। ज्ञान भारती जैन चौरासी मथुरा का सप्तम शैक्षणिक
प्रकाश चन्द्र दीवान सत्र 1 जुलाई 2007 से प्रारम्भ हो रहा हैं। यहाँ छात्रों को |
संयोजक
आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित जिस प्रकार दो नेत्रों के माध्यम से मार्ग का ज्ञान होता है, उसी प्रकार निश्चय एवं व्यवहार इन दोनों नयों के माध्यम से मोक्षमार्ग का ज्ञान होता है।
जैसे दोनों कूल परस्पर प्रतिकूल होकर भी नदी के लिए अनुकूल हैं, ठीक वैसे ही व्यवहारनय और निश्चनय एक दूसरे के प्रतिकूल होकर भी आत्मा के प्रमाणरूप ज्ञान के लिए अनुकूल हैं।
मुनिश्री समतासागर-संकलित 'सागर द समाय'
से साभार
32 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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वस्तुतत्त्व समझने के लिए अध्यात्मयात्रा जरूरी
० उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी दिनांक 29.3.2007, है, जब व्यवहार नय का कथन चलता हैं तब निश्चय गौण रहता भोपाल मंगलवारा-मंदिर है। एक नय फूल है, तो दूसरा नय फल है। दोनों नय नदी के दो के निकट विशाल पाण्डाल तटों के समान हैं सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों का अपने-अपने में धर्मसभा को संबोधित स्थान पर महत्त्व है। अतः विवादों से ऊपर उठकर वस्तु तत्त्व को
करते हुये उपाध्याय श्री समझना चाहिये। ज्ञानसागर जी महाराज ने अपनी पीयूष वाणी द्वारा कहा कि साधना अध्यात्म की यात्रा के लिये जरूरी है। कायोत्सर्ग वस्तु तत्त्व को समझने के लिये अध्यात्म की मात्रा जरूरी है। का अर्थ-शरीर में रहते हुये शरीर के प्रति आसक्ति नहीं होना। देह श्रमणों को तो आवश्यक है ही गृहस्थ को भी अध्यात्म की से विदेह की यात्रा, बाहर से अंदर की यात्रा, भोग से योग की यात्रा यात्रा जरूरी है। बाहर से अंदर जाने की प्रक्रिया का नाम का नाम कायोत्सर्ग है। 9 बार णमोकार मंत्र पढ़ लेना मात्र अध्यात्म है। अकेलेमात्र अध्यात्म की चर्चा करने से वस्तु कायोत्सर्ग नहीं है। सहिष्णुता का विकास जिन्हें, जीवन में हो तत्त्व समझ में नहीं आयेगा। उसको जीवन में आचरित जाता है,वही कायोत्सर्ग की साधना कर सकता है। करना होगा।
आज सहनशक्ति नहीं रही, जरा-जरा सी परिस्थिति में मैं शुद्ध हूँ, मैं बुद्ध हूँ, ऐसा शब्दों से कहना सरल है, व्यक्ति असंतुलित हो फलस्वरूप आज हर व्यक्ति अशान्त है। पर जब कोई गाली दे, उस समय मन में उसके प्रति प्रतिशोध सर्दी-गर्मी-भूख प्यास सहन नहीं होती, 10 मिनिट भी अगर की भावना न जागे, तो समझना आपने अध्यात्म को मात्र भोजन आने में बिलम्ब हो जाता हैं तो क्या होता है? आग बबूला शब्दों से नहीं जाना है, उसका अनुभव भी किया है। हो जाते हो।
चारों ओर से कर्मों की छावनी आ जाने के बाद भी धन जब आप कमाते हैं, तो कितना सहन करना होता है, जो अपने धैर्य के बांध को नहीं तोड़ता वही आध्यात्मिक है। तब कहीं आप धनाढ्य कहलाते हैं। प्रतिकूलताओं के बीच रहकर भी जो मुस्कुराता रहता है, एक विद्यार्थी जब परीक्षा आती है, तब रातो-रात पढ़ता है, वही आध्यात्मिक है। निरंतर संवर-निर्जरा की ओर जिनके कितना श्रम करता है, तब कहीं वह अच्छे अंकों को प्राप्त कर कदम बढ़ते रहते हैं, वही आध्यात्मिक है। समयसार पढ़ने सकता है। के बाद भी अशुभोपयोग की मात्रा अगर आप के जीवन में जब लौकिक क्षेत्र में बाध्य निधि को प्राप्त करने के लिये चल रही है, आस्रव-बंध की प्रक्रिया चल रही हैं तो सोच सहन शक्ति जरूरी है फिर आंतरिक संपदा को प्राप्त करने के लिये लो अभी आपने अध्यात्म की गहराई को नहीं जाना है, क्या सहनशक्ति जरूरी नहीं है? अवश्य है। अन्त में पूज्यश्री ने अध्यात्म को जानने वाले व्यक्ति का आमूल-चूल परिवर्तन कहा कि अध्यात्म की यात्रा हेतु हर व्यक्ति को अपना मानस बनाना हो जाता है।
चाहिये,तभी बहिर्यात्रा से छुटकारा पाया जा सकता है। आज पक्षपात में उलझकर कषाय की ग्रंथि को प्रवचन के पश्चात् ब्र. अनीता दीदी के द्वारा प्रश्नमंच का मजबूत किया जा रहा है फलस्वरूप आज परस्पर में विवाद आयोजन किया गया। चल रहा है, किसी ने मात्र निश्चय का पक्ष पकड़ लिया है, दोपहर में पूज्यश्री के द्वारा स्वाध्याय की श्रृंखला में अनेको किसी ने मात्र व्यवहार का पक्ष पकड़ लिया है। वस्तु- तत्त्व जिज्ञासाओं का समाधान दिया गया।
को जानने के जो साधन हैं प्रमाण और नय, उन्हें आज शाम को 6.30 बजे से 7 बजे तक गुरुभक्ति का आयोजन विवादों का कारण बना लिया है। निश्चय नय शुद्ध दशा का किया गया। तत्पश्चात् ब्र.अनीता दीदी ने धार्मिक कक्षा द्वारा सच्चे वर्णन करता है व्यवहार नय अशुद्ध-दशा का वर्णन करता देव शास्त्र, गुरु का लक्षण बताते हुये नमस्कार करने का उद्देश्य है। जब निश्चय का कथन चलता हैं तब व्यवहार गौण रहता बताते हुये नमस्कार करने की मुद्रा का विवरण किया।
ब्र. अनीता दीदी
दभा
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________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 0 मुनि श्री योगसागर जी श्री नेमिनाथ-स्तवन टश्री पार्श्वनाथ स्तुति (नवजा कन्द) श्री नेमिनाथ वर कीर्ति वाले। वे मील वर्णित शरीरवाले // देवीच्य माना मणि नील जैसे। सौन्दर्य की परिपूर्णता से॥ देवाधिदेवा हे पार्श्वनाथा / हे वीतरागी शिव विश्वनाथा // अर्हत् जिनेशा शत इन्द्रवश्या / हे सूर्य मेरे मम पाप संध्या॥ कारुपयहाथी पशु क्रन्दनों से। जागी अहिंसा उस स्त्रोत में से॥ क्या वे सभी पाप विवाह के हैं। क्यों भोग भोगे घर को सलायें। हे विघ्नहर्ता भवरोग = वैद्य।। जो नाम जो हर कार्य साधा। सागी न द्वेषी सम भाव रूपी। चैतन्धगुण मिज आत्मरूपी॥ 3 कैवल्यज्ञानी भवदुःखमुक्ता। निर्मोहला से वसु कर्म जीला / / त्रैलोक्य के सर्व पदार्थ जाने। आत्मीय आनन्द अपूर्व पाया। संसारमाया लख के विस्वती। वैराग्य ज्योत्स्ना बढ़ने लगी थी। संसार में ना उन को सुहाये। निम्रन्ध दीक्षा मन को लुभाये // क्या देह में ही ममता रही हैं। क्या रूम मेरा यह ज्ञात ना है। स्वाधीनता क्या जम में हमारी। ज्योतिर्मुखी आत्म स्वरूप मेस। पर्याय बुद्धी भव में भ्रमावे। लास्विक ज्ञानी भव को मिटाये। यह सारपूर्णा लव देशना है। वैराग्य को जाग्रत कराये। 5 योगेश का दुर्धर योग होता। घोसतिघोस उपसर्ग जीता। नागेन्द्र का आसन भी हिलाया। ओ ही फणा मंडप को किया था। स्वामी चल्ले पर्वत उर्जयन्त। साम्राज्य सत्ता सबसे विरक्त // धारे अनेकों लव त्यामध्यान। चैतन्य लक्ष्मी प्रगटी महान् // प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।