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तथाहि वीतराग सर्वज्ञप्रणीत षड्द्रव्य पंचास्तिकाय । अर्थ- अग्नि और सुवर्ण पाषाण के समान निश्चय सप्ततत्त्व नवपदार्थ सम्यग्श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठान विकल्परूपो | और व्यवहारनय में साध्य-साधन भाव दिखलाने के लिए व्यवहारमोक्षमार्गः। अथवा धातुपाषाणेऽग्निवत् साधको कहा है। इनमें से पाँचवें से सातवें गुणस्थान तक साधनरूप व्यवहारमोक्षमार्गः, सुवर्णस्थानीयनिर्विकारस्वोपलब्धि | व्यवहार मोक्षमार्ग है और सातवें से बारहवें गुणस्थान तक साध्यरूपो निश्चयमोक्षमार्गः। (बृहद्रव्य संग्रह39/129) | साध्यरूप निश्चय मोक्षमार्ग है। व्यवहार को असत्य मानने
अर्थ- श्री वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहे हये जो छः । वाले कुछ लोग व्यवहार मोक्षमार्ग का लोप करके मोक्षमार्ग द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नवपदार्थ हैं इनका | को एक प्रकार का निरूपण करते हैं। लेकिन उपरोक्त प्रमाणों भले प्रकार श्रद्धान करना, जानना और व्रत आदि का आचरण से यह सिद्ध है कि मोक्षमार्ग को दो प्रकार ही मानना चाहिए। करना इत्यादि विकल्परूप जो है सो तो व्यवहार मोक्षमार्ग है | व्यवहार मोक्षमार्ग हेय नहीं है उपादेय ही है। जैसा कि निम्न
और जो अपने निरंजन शुद्ध आत्मतत्त्व का सम्यग्श्रद्धान, | प्रमाणों से स्पष्ट हैज्ञान और आचरण में एकाग्र परिणतिरूप है। वह निश्चय | 'निजशुद्धात्मैव शुद्धनिश्चयेनोपादेयं भेदरत्नत्रयस्वरूपं मोक्षमार्ग है अथवा साधु पाषाण के विषय में अग्नि के सदृश | तु उपादेयमभेदरत्नत्रय साधकत्वाद् व्यवहारेणोपादेयमिति' जो साधक है वह तो व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा सुवर्ण स्थानापन्न | (समयसार 120 की तात्पर्यवृत्ति टीका) निर्विकार जो निज आत्मा है, उसके स्वरूप की प्राप्ति रूप अर्थशुद्ध निश्चयनय से निज शुद्धात्मा ही उपादेय जो साध्य है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है। श्री पंचास्तिकाय में | है तथा भेद रत्नत्रय भी उपादेय है, क्योंकि वह अभेद रत्नत्रय भी कहते हैं
का साधक है अतः वह व्यवहार से उपादेय है। धम्मादी सद्दहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं।
'व्यवहारमोक्षमार्गो निश्चय रत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य चिट्ठा तवम्हि चरिया, ववहारो मोक्ख मग्गोत्ति ॥160॥ | कारणभूतत्वादुपादेयः परम्परया जीवस्य पवित्रताकारणत्वात्
अर्थ- धर्मास्तिकाय आदि छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, | पवित्रः।' (समयसार 161 की तात्पर्यवृत्ति टीका)। सप्ततत्त्व व नवपदार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंग ___ अर्थ- उपादेयभूत जो निश्चय रत्नत्रय, उसका कारण पूर्व आदि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तप में चेष्टा करना होने से व्यवहार मोक्षमार्ग उपादेय है और परम्परा से जीव सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग कहा। अब | की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है। निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप बताते है
उपर्युक्त समस्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि मोक्षमार्ग दो णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
प्रकार का ही है। इसलिए आगम सम्मत धारणाओं को ही ण कणदि किंचिवि अण्णं णमुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति 161॥ | स्वीकार करना चाहिए। एकान्त पक्ष में नहीं जाना चाहिए। अर्थ- जो आत्मा इन तीनों के द्वारा समाहित होता
इस समाधान में यह भी जानने योग्य है कि ऐसी हुआ, अन्य कुछ भी न करता है और न छोड़ता है। वह
मान्यता न बना ली जाये कि मोक्ष जाने के दो मार्ग हैं अर्थात आत्मा ही निश्चयनय से मोक्षमार्गी कहा गया है।
व्यवहारमोक्षमार्ग से भी मोक्ष होता है और निश्चयमोक्षमार्ग इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि मोक्षमार्ग दो प्रकार का है।।
से भी मोक्ष होता है। मोक्षमार्ग दो प्रकार का मानने का तात्पर्य जिसमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन
यह है कि प्राथमिक अवस्था में व्यवहार मोक्षमार्ग होता है जो है जैसा के समयसार गाथा 236 की टीका में कहा है कि
कि निश्चय मोक्षमार्ग का साधन है। मोक्ष की प्राप्ति तो 'अग्नि सुवर्ण पाषाणयोरिव निश्चयव्यवहारनययोः परस्पर
| निश्चय मोक्षमार्ग से ही होती है। साध्य-साधक भाव दर्शनार्थमिति।'
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002(उ.प्र.)
स्वभाव में जब तक न आये, विभाव का संकट रहेगा। कर्म की प्रभुता रहेगी, आनंद घट खाली रहेगा।
योगेन्द्र दिवाकर , सतना म.प्र.
- अप्रैल 2007 जिनभाषित 27
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