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________________ श्री राजवार्तिक में भी इसी प्रकार कथन पाया जाता है।। होते हैं और उदीरणा रहित परिणाम मन्द होते हैं। जैसे- हम प्रश्नकर्ता- श्री राजीव जैन, अमर पाटन। सुई के छिद्र में कोई डोरा पिरोयें। तो वह नहीं पिरोया जाता। जिज्ञासा- क्या दिक्पालो अथवा शासन देवों को अर्घ्य | पर यदि उसमें थूक आदि कुछ लगा दें तो धागा तुरन्त पिरोने चढ़ाना उचित है? में आ जाता है। समाधान- दिगम्बर जैन धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार | 3. जो कर्म उदयावली में प्रवेश कर चुके हैं, उनकी पूज्यनीय तो ये नव देवता है- पांच परमेष्ठी, जिनधर्म, जिन | उदीरणा नहीं होती है। उससे अधिक समय वाली सत्ता आगम, जिनबिम्ब और जिन मंदिर। ये शासन देवता या स्थित कर्म प्रकृतियों की ही उदीरणा संभव है। दिक्पाल नव देवताओं में नहीं आते। ये हमारे साधर्मी अथवा 4. नारकी तथा देवों के भी नरकायु तथा देवायु की क्षेत्ररक्षक हैं। इनका किसी पंचकल्याणक विधान आदि के | उदीरणा, मरण से एक आवली पूर्व तक होती रहती है। पर अवसर पर जो आह्वान किया जाता है वह उनकी पूजा के इसका अर्थ अकाल मरण नहीं लगाना चाहिये। तिर्यंच तथा लिये नहीं किया जाता, बल्कि साधर्मी के रूप में 'हमारे | मनुष्यों के भी, तिर्यंचायु तथा मनुष्यायु के उदय के साथ साथ आकर पूजा करें' इसप्रकार भक्ति के लिये आमंत्रण के | उदीरणा भी होने का नियम है। रूप में किया जाता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि के 5. सत्ता स्थित कर्मों की (जो उदयावली से बाहर हैं) प्रतिष्ठा ग्रन्थों के अनुसार जिस स्थान पर विधान आदि | तपादि क्रिया विशेष की सामर्थ्य से, उदयावली में प्रविष्ट सम्पन्न किये जाते हैं वहाँ के शासन देव एवं क्षेत्ररक्षक | कराके जो उदीरणा पूर्वक अनुभव किया जाता है। उसे दिक्पाल आदि की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक होता है।। अविपाक निर्जरा कहते हैं। इसी अभिप्राय से इन देवों का आह्वान किया जाता है ताकि उदय एवं उदीरणा किन कर्म प्रकृतियों की किस वे हमें विधान की निर्विघ्न शान्ति के लिये सहयोगी होते हुए | गुणस्थान तक होती है, इसके लिये सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 355 उस अनुष्ठान में सम्मिलित हो। इसलिये इनका आह्वान | से 357 तक का अध्ययन करना चाहिए। करना तो उचित है परन्तु पूजा करना, आरती उतारना, श्रीफल प्रश्नकर्ता- मोक्षमार्ग कितने प्रकार का है। स्पष्ट चढ़ाना, पंचपरमेष्ठी की तरह ढोक देते हुए परिणाम करना | करें? या अर्घ्य आदि चढ़ाकर पूजा करना बिल्कुल उचित नहीं है। समाधान- मोक्षमार्ग दो प्रकार का है जैसा कि निम्न जिज्ञासा- उदीरणा क्या सब जीवों के होती है? | प्रमाणों से स्पष्ट है। समाधान - सर्वप्रथम उदय तथा उदीरणा की परिभाषा निश्चय व्यवहाराभ्याम् मोक्षमार्गो द्विविधा स्थितः। जानना आवश्यक है। पंचसंग्रह 3/3 में कहा है- भुंजणकालो (त.सार.9/2) उदओ, उदीरणापक्कपाचण फलं। अर्थ- निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो अर्थ- कर्मों के फल भोगने के काल को उदय कहते | प्रकार का है। हैं और अपक्वकर्मों के पाचन को उदीरणा कहते हैं। दुविहं पि मोक्ख हेडं, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। भावार्थ- जो कर्म अपने समयानुसार स्थिति पूरी होने तम्हा पयत्तचिता जूयं झाणं समब्भसह ॥47॥(द्र.संग्रह) पर फल देते हैं, उसे उदय कहते हैं। परन्तु जिनका स्थिति व अर्थ- दोनों ही प्रकार के मोक्षमार्गों को मुनि ध्यान में अनभाग तो ज्यादा है. परन्त जिनको समय से पर्व ही फल प्राप्त करते हैं। इसलिए तुम भी प्रयत्नपूर्वक ध्यान का अभ्यास देने वाला किया जाता है, वह उदीरणा है इस संबंध में निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं सम्यग्दर्शनज्ञानचरण शिवमग सो दुविध विचारो। 1. कुछ अपवादों को छोड़कर प्रत्येक जीव के छठे जो सत्यारथ रूप सुनिश्चय कारन सो व्यवहारो॥ (छहढ़ाला 3/1) गुणस्थान तक, जिन कर्म प्रकृतियों का उदय होता है, उनके | अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप साथ उन्हीं कर्मों की उदीरणा भी अवश्य होती है। यह तप मोक्षमार्ग दो प्रकार का कहा गया है। उनमें से जो यथार्थ आदि के कारण नहीं, बल्कि स्वभाव से होती है। स्वरूप है, वह तो निश्चय मोक्षमार्ग है और जो उसका 2. श्री राजवार्तिक के अनुसार बाह्य तथा अभ्यंतर कारण है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है। कारणों से,कषायों की उदीरणा होने पर अत्यन्त तीव्र परिणाम | आचार्यों ने दोनों मोक्षमार्गों का स्वरूप लिखा है26 अप्रैल 2007 जिनभाषित करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524316
Book TitleJinabhashita 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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