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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
प्रश्नकर्ता- सौ. संगीता, नंदुरवार।
| मिथ्यादृष्टि ही बने रहते हैं और रुद्रों की तरह पतित हो जाते जिज्ञासा- देव तथा नारकियों में उत्पन्न होने वाले | हैं और यदि स्वीकार नहीं करते हैं तो नियम से सम्यक्दृष्टि भव प्रत्यय अवधिज्ञान, भव के कारण होता है। तो फिर | भावलिंगी श्रमण होते हुये देवों से पूज्य एवं दस पूर्वित्व जन्म से क्यों नहीं होता?
| नामक बुद्धिऋद्धि के धारी हो जाते हैं। सम्यग्दृष्टि भावलिंगी समाधान- देव तथा नारकियों के पर्याप्तक हो जाने | मुनिराजों को अंग प्रविष्ट (पूर्ण द्वादशांग) तथा अंगबाह्यरूप पर ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति होती है। इसलिये जबतक | पूर्ण श्रुतज्ञान हो सकता है अर्थात् वे श्रुतकेवली बन सकते वह जीव पर्याप्तक नहीं हो जाता तब तक भव प्रत्यय अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। इस सम्बन्ध में श्री धवला यद्यपि लौकान्तिक आदि देवों को द्वादशांग तक का पुस्तक 13/290 में इस प्रकार कहा है
ज्ञान होता है परन्तु वे श्रुतकेवली नहीं कहलाते। क्योंकि जदि भवमेत्तमोहिणाणस्स कारणं होज्ज तो देवेसु | श्रुतकेवली पद तो उन्हीं दिगम्बर मुनिराजों को होता है जो णेरइएसु वा उप्पणपढमसमए ओहिणाणं किण्ण उप्पज्जदे। अंगप्रविष्ट के साथ अंगबाह्यरूप श्रुतज्ञान के भी ज्ञाता होते ण एस दोसो ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयद- | हैं। मवग्गहणादो।
प्रश्नकर्ता - नरेन्द्रकुमार शास्त्री, सागर। प्रश्न- यदि भव मात्र ही अवधिज्ञान का कारण है, तो जिज्ञासा - भरत, ऐरावत तथा विदेह क्षेत्र का यह देवों और नारकियों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही | नाम अनादि कालीन है या किसी कारणवश है। अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता।
समाधान- आपकी जिज्ञासा के समाधान में तत्त्वार्थ उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि छह पर्याप्तियों | श्लोकवार्तिक के रचयिता आचार्य विद्यानंद महाराज ने से पर्याप्त भव को ही यहाँ अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण | 'भरत-हैमवत-हरि-विदेह-रम्यक-हैरण्यवतैरावतवर्षा : माना गया है।
क्षेत्राणि' इस सूत्र की टीका करते हुए इस प्रकार कहा है। जिज्ञासा- अभव्य तथा भव्य को कितना अंगपूर्वरूप | 1. प्रत्येक अवसर्पिणी काल के चौथे काल के आदि श्रुतज्ञान सम्भव है?
में भरत नाम का पहला चक्रवर्ती इसके छह खण्डों को समाधान- नारकी एवं तिर्यञ्चों के किसी भी अंग | भोगता है इसलिये इसे भरतवर्ष कहते हैं। दूसरा सिद्धान्त या पूर्व का ज्ञान सम्भव नहीं होता है। देवों में सौधर्म इन्द्र, | उत्तर यह भी है कि जगत अनादि है, इस क्षेत्र की अनादि लौकान्तिक देव एवं सर्वार्थसिद्धि के देवों के द्वादशांग का | काल से भरत संज्ञा चली आ रही है। ज्ञान पाया जाता है।
2. भरत क्षेत्र के बीच में पूर्व से पश्चिम तक लम्बा __ मनुष्यों में अव्रती गृहस्थों के, व्रती गृहस्थों के, क्षुल्लक | जो विजयार्द्ध नामक पर्वत है, उसका यह सार्थक नाम इसलिये व ऐलकों के तथा क्षुल्लिकाओं के किसी भी अंग या पूर्व पडा है कि यहाँ तक चक्रवर्ती के विजय की आधी सीमा का ज्ञान नहीं होता। शास्त्रों के अनुसार आर्यिकाओं के ग्यारह | होती है। अत: इसका नाम विजयाद्ध सार्थक है। अंग तक का ज्ञान पाया जा सकता है। जैसे-सुलोचना आर्यिका 3. विदेह क्षेत्र के सम्बन्ध में लिखा है कि वहाँ सर्वदा को ग्यारह अंग का ज्ञान था। निर्ग्रन्थ मुनि लिंग के साथ मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति बने रहने से अनेक मनुष्य कर्म बन्ध को अभव्यों को ग्यारह अंग तक का ज्ञान हो सकता है। भव्य | नष्ट कर देह रहित हो जाते हैं। अतः इसका विदेह नाम मिथ्यादृष्टि साधुओं को ग्यारह अंग दस पूर्व तक का श्रुतज्ञान | सार्थक है। सम्भव है। दसवे पूर्व विद्यानुवाद का पाठी होने पर समस्त 4. भरत क्षेत्र के समान ऐरावत क्षेत्र के प्रत्येक विद्यायें उनके समक्ष आकर निवेदन करती हैं कि हे मुनिराज, | अवसर्पिणी के चतुर्थ काल का प्रथम चक्रवर्ती ऐरावत नाम हम सब आपको सिद्ध हुई हैं हमें स्वीकार करें और आज्ञा | वाला होता है। अतः इसी कारण इसे ऐरावत क्षेत्र कहा जाता प्रदान करें। यदि वे उनको स्वीकार कर लेते हैं तब वे | है।
अप्रैल 2007 जिनभाषित 25
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