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बालवार्ता (कहानी)
दान 'अहं' का
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' सेट अमीरचन्द्र मात्र नाम से ही अमीर नहीं था बल्कि | लो! मैंने कितना दान दिया, पर किसी ने कभी मेरे, दान की वह वैभव में भी अमीर ही था। उसकी उन चन्द लोगों में | प्रशंसा तक नहीं की, सम्मान की तो बात ही अलग है?" । गिनती होती थी जो धन सम्पन्न थे और जिनके बारे में | सुनने वाले सुनते और कहते "ऐसा नहीं है, अच्छे प्रसिद्ध था कि वे अपने घर आये किसी भी याचक को | काम की तो सभी प्रशंसा करते हैं, फिर दान के काम को खाली हाथ नहीं जाने देते हैं। मानो दान में उनका विश्वास | कौन बुरा कहेगा?" । अटूट हो। कहते हैं अमीरी मात्र धन-दौलत से नहीं होती | खैर! एक दिन उसे पता चला कि अपने नगर में वह धर्म, धैर्य और दान से भी होती है। धन का दान सर्वोत्तम | कोई साधु आये हैं, सो वह भी दर्शन हेतु चल दिया। कुछ माना गया है। नीतिकारों ने कहा है कि धन की तीन गतियाँ | लोगों की विशेषता होती है कि वे स्वयं को सर्वज्ञ मानकर होती हैं- दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति न दान देता है, न | चलते हैं। डॉक्टर के यहाँ दवा लेने जायेंगे और डॉक्टर को भोग करता है उसकी धन-सम्पदा का नाश सुनिश्चित होता | ही दस बीस दवाईयाँ बता आयेंगे। यह महाशय भी गये तो है। सो, अमीरचन्द्र भी इसे बखूबी समझता था इसलिए धन | थे साधु के दर्शन करने और लगे अपनी साधुता बताने। के नाश होने से डरता था। वह धन का भोगी अवश्य था | "मेरा जीवन भी साधु से कम नहीं है। अब क्या करें किन्तु विलासी नहीं था। उसे कोई व्यसन भी नहीं था। यदि | जिम्मेदारियाँ हैं वरना हम भी आप जैसे होते?" आदि, कोई व्यसन था तो यही कि धन आये और खूब आये। धन | आदि। प्राप्ति का निमित्त कारण पुण्य होता है सो वह प्रतिदिन | साधु सब सुनते रहे। उनके मुख की रहस्यात्मक देवदर्शन, पूजन, पाठ आहारदानादिक जो भी उससे बनता, | मुस्कान को उन्होंने पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझी और करता था। वह दान में पीछे रहने वालों में से भी नहीं था। | रुपयों से भरी एक थैली निकालकर साधु के चरणों में रख
__बस, उसमें कोई अच्छाई थी तो यही कि वह धार्मिक | दी और बोले-महाराज ! यह आपके लिए मेरी तुच्छ भेंट है। आचरण करने वाला और दानी था, किन्तु यदि कोई बुराई | पूरे एक लाख हैं, कहें तो राशि बढ़ा भी सकता हूँ। थी तो यही कि उसे प्रदर्शन में विश्वास अधिक था। वह | | साधु तो साधु थे, बोले- "मेरा इससे क्या काम? मैं किसी याचक को तब तक दान नहीं देता था जब तक कि | तो बहता पानी, रमता जोगी की प्रकृतिवाला हूँ। मैं रुपयों को उसे यह अहसास न हो जाये कि चार लोग उसे देख रहे हैं। | लेकर क्या करूँगा?" यदि कोई देखने वाला नहीं तो याचक को बातों में उलझाकर यह सुन सेठ अमीरचन्द बोला- "महाराज! यह तो रखता और यदि कोई (दर्शक) न आता दिखे तो सप्रयास मेरा दान है?" बुलवा लेता। अपनी बात रखने के लिए कहता कि दान साधु ने कहा कि- "मैं दान क्यों लूँ? जब जरूरत छिपकर और छिपाकर नहीं देना चाहिए। याचकों का क्या होती है तो अन्न तुम्हारे जैसे श्रावकों से ही पाता हूँ और वह भरोसा? वह जब भी कुछ देता सबको बढ़ाचढ़ाकर बताता। भी बिना किसी याचना के, बिना किसी करुणा के। और प्रशंसकों को प्रेरित करता कि वे उसकी प्रशंसा करें। उन यदि मुझे कुछ जरूरत है तो मुझे तुम्हारे इस धन की नहीं प्रशंसकों की वह खूब खातिरदारी करता और चाहता कि वे तुम्हारे 'मैं' की जरूरत है।" उसकी दानशीलता का गुणगान अन्यत्र भी करें। जितना दान इधर अमीरचन्द का अहं जाग गया था। यह अहं वह नहीं उससे अधिक प्रशंसा प्राप्ति की भूख उसकी सदा नहीं था जो सोऽहं का भाव जागता है बल्कि यह तो वह अहं जाग्रत रहती। यदि कोई प्रशंसा नहीं करता तो स्वयं ही था जो आँखों, नथुनों और शरीर के रोम-रोम से प्रकट हो रहा कहता- "आज कल जमाना कितना बदल गया है कि कोई था। अरे! यह कैसा साधु है जो मेरी दी हुई दानराशि को तो किसी की अच्छाई देखकर भी अपने मुख से प्रशंसा तक नहीं | स्वीकार करता नहीं और कहता है कि मुझे तुम्हारे मैं की करना चाहता। अरे, औरों की तो जाने दो अब मुझी को देख | जरूरत है?
28 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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