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आचार्यश्री विद्यासागरजी
कदोहे
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10 बिन तन बिन मन वचन बिन, बिना करण बिन वर्ण। दिखा रोशनी रोष ना, शत्रु मित्र बन जाय। गुणगण गुम्फन घन नमूं, शिवगण को बिन स्वर्ण॥ भावों का बस खेल है, शूल फूल बन जाय। 2
11 पाणि-पात्र के पाद में, पल-पल हो प्रणिपात। उच्च-कुलों में जनम ले, नदी निम्नगा होय। पाप खपा, पा, पार को, पावन पाऊँ प्रान्त॥ शान्ति, पतित को भी मिले, भाव बड़ों का होय॥
12 शत-शत सुर-नर पति करें, वंदन शत-शत बार। सूर्योदय से मात्र ना, ऊष्मा मिले प्रकाश। जिन बनने जिन-चरण रज, लूँ मैं शिर पर सार॥ सूर-दास तक को मिले, दिशा-बोध अविनाश॥
4 सुर-नर यति-पति पूजते, सुध-बुध सभी बिसार। मानव का कल-कल नहीं, कल-कल नदी निनाद। गुरु गौतम गणधर नD, उमंग से उर धार॥ पंछी का कलरव रुचे, मानव! तज उन्माद॥
14 नमूं भारती तारती, उतारती उस तीर। भू पर निगले नीर में, ना मेंढक को नाग। सुधी उतारें आरती, हरती खलती पीर॥ निज में रह बाहर गया, कर्म दबाते जाग॥
6 तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश। कब तक कितना पूछना, चलते चल अविराम। करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष॥ रुको रुको यूँ सफलता, आप कहे यह धाम॥
16 कौरव रव-रव में गये, पाण्डव क्यों शिव-धाम। जिनवर आँखें अध-खुलीं, जिनमें झलके लोक। स्वार्थ तथा परमार्थ का, और कौन परिणाम? आप दिखे सब, देख ना!, स्वस्थ रहे उपयोग। 8
17 पारस-मणि के परस से, लोह हेम बन जाय। ऊधम से तो दम मिटे, उद्यम से दम आय। पारस के तो दरस से, मोह क्षेम बन जाय॥ बनो दमी हो आदमी, कदम-कदम जम जाय॥
18 एक साथ लो! बैल दो, मिल कर खाते घास। दोषरहित आचरण से, चरण पूज्य बन जाय। लोकतन्त्र पा क्यों लड़ो? क्यों आपस में त्रास?॥ चरण धूल तक शिर चढ़े, मरण पूज्य बन जाय॥
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'पूर्णोदयशतक' से साभार
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