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________________ अपने यहाँ कुदेवों को विराजमान किए होगा, उसके यहाँ आहार नहीं करेगें'। (पृ. ७९) आपके पास जो भी कुदेव सेवी आता, वह तत्काल मिथ्यात्व का त्यागकर व्यवहार सम्यक्त्व को धारण करता। जैनवादी में भी सभी कुदेवों की पूजा करते थे महाराजश्री की पुण्य देशना से सब श्रावकों ने मिथ्यात्व का त्याग किया और अपने घर से कुदेवों को अलग कर कई गाड़ियों में भरकर उन्हें नदी में गिरा दिया। (पृ. ७९) वहाँ के राजा ने इसका कारण पूछा तो महाराज श्री ने गणेश पूजा और रामचन्द्र जी की मूर्ति पूजा का अंतर समझाकर राजा को संतुष्ट किया। गणपति की पूजन बाद उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है। (पृ.८० ) आचार्यश्री की तर्कणा बुद्धि से राजा-रानी संतुष्ट हुऐ । लेखक के अनुसार 'महाराज ने दक्षिण के लोगों में कुदेवरूपी रोग देख उसके त्यागरूप औषधिदान द्वारा लोगों श्रद्धा निर्मल की'। (पृ. १५१) आपने इसीप्रकार ब्राह्मणों से मांस और सुरापान का त्याग और जैन समाज में शूद्र जल का त्याग करवाया। 'कुदेव' से महाराजश्री का आशय 'रागद्वेषमलीमसा' रागी - देवी देवताओं से रहा होगा, ऐसा ध्वनित होता है । मूल लेखक ने भी कुदेव को स्पष्ट नहीं किया जैसा की अष्टम संस्करण के पृष्ठ क्रमशः ६७ एवं १३२ में कोष्ठक में 'अन्यमतियों के रागीद्वेषी मिथ्यादेव एवं अन्यमतियों के आराध्य - शासन देव' लिखकर काल्पनाशील संपादक जी ने किया है। यह उत्तर-विचार है, जैसा आगे स्पष्ट होगा। इससे अभिप्राय दूषित हुआ 1 मिथ्यादेवों के मंत्र भी वर्जित महाराजश्री ने अत्यंत प्रमाणिकता एवं बौद्धिक ईमानदारी से मिथ्यात्वी देवों की उपासना का त्याग करवाया। जैनबाड़ी में एक महानुभाव मिथ्यादेवों की भक्ति कर मंत्र से सर्प का विष उतारते थे । यह प्रश्न हुआ की वे जीवन रक्षा का यह काम करें या नहीं। उसे मिथ्यात्वत्याग के बंधन से मुक्त करने का महाराज श्री ने अनुरोध किया। महाराजश्री ने कहा जैन मंत्रों में अचिंत्य सामर्थ्य है। उन्होंने एक मंत्र साधने दिया, दो माह के भीतर । संयोग से वह मंत्र सार्थक सिद्ध हुआ। उसने जीवनभर मिथ्यात्व त्याग का नियम ले लिया । महाराजश्री की जिनवाणी पर अगाधनिष्ठा भी और उनकी संकल्प शक्ति भी प्रबल थी । आचार्यश्री ने हजारों लोगों से मिथ्यात्व का त्याग कराया। जबकि पीढ़ियों से पोषित मिथ्यात्व त्याग का कार्य मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत दुरूह होता है। आचार्यश्री ने तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना को जिनदीक्षा के 10 अप्रैल 2007 जिनभाषित Jain Education International । अनुकूल नहीं माना, यह ज्ञातव्य है की सभी देव नियम से प्रतिदिन जिनेन्द्र पूजन करते हैं। (ति.प./३/२२८-२२९) उच्च पद वाला नीचे पद वाले को नमस्कार नहीं करतापं. प्रवर श्री सुमेरचंद्र जी ने चा. चक्रवर्ती पुस्तक के पृ. १६५ (नवीन संस्करण पृ. १४४ - १४५ ) पर एक दिशाबोधक घटना का उल्लेख किया है। सन् १९२७ में महाराजश्री ससंघ शिखरजी की तीर्थ यात्रा पर बिहार करेंगे, इसकी विज्ञप्ति प्रकाशित की गई। उस पर “एक नामांकित वृद्ध पं. जी पूज्य श्री के समीप आये। सभा को प्रणामकर बड़े ममत्व के साथ कहने लगे, उत्तर की जनता वक्र प्रकृति की । वहाँ कभी दिगम्बर मुनि का बिहार हमारे जीवन में नहीं हुआ, अब आपका संघ जाता है, इसको देखकर विद्वेषियों द्वारा विघ्न प्राप्त होगा। तब धर्म पर संकट आ जायेगा । अतः उचित होगा की पहले आप किसी देवता को सिद्ध कर लेवें। इससे कोई भी बाधा नहीं होगी।" महाराज जी बोले 'मालूम होता है, अब तक आपका मिथ्यात्व नहीं गया, जो हमें आगम विरुद्ध सलाह दे रहे हो' महाराज ने स्पष्ट करते हुये कहा 'क्या महाव्रती अव्रती को नमस्कार करेगा' । पं. जी बोले 'नहीं महाराज, व्रती को नमस्कार नहीं करेगा' । महाराज ने कहा- "विद्या या देवता सिद्ध करने के लिए नमस्कार करना आवश्यक है। देवता अव्रती होते हैं। तब क्या अव्रती को प्रणाम करना महाव्रती को दोषप्रद नहीं होगा ।" महाराज श्री ने कहा 'डरने की क्या बात है । हमारा पंचपरमेष्ठी पर विश्वास है। उनके प्रसाद से विघ्न नहीं आयेगा और कदाचित् पापकर्म के उदय से विपत्ति आ जाय तो हम सहन करने तैयार हैं।' महाराज श्री का उत्साह, युक्तिवाद और आत्मविश्वास ने सभी को चकित कर दिया। शासनदेव के नाम से उच्च भूमिका वाले महानुभावों को आचार्यश्री की उक्त आगमपोषित विचारों से अपना मिथ्या अभिप्राय दूर करना इष्ट होगा। ऐसा होने पर वे कृत-कारित - अनुमोदना से इस अप्रियकर अहितकारक प्रवृत्ति से बच सकेंगे, क्योंकि व्रती द्वारा अव्रती देव की उपासना का उपदेश देना भी मिथ्यात्व का सूचक | मराठी समाचार पत्र 'सम्यक्त्व वर्धक' से पुष्टि पूज्य आचार्यश्री के व्यक्तित्व एवं भ्रातृत्व के प्रकाशन में तत्कालीन समाचार पत्रों का महत्वपूर्ण योगदान है। उनके आधार पर घटनाओं को ऐसा रूप दिया गया जैसे कोई आँखों देखी लिख रहा हो। इसी क्रम में श्री हीराचंद मलूकचंद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524316
Book TitleJinabhashita 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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